जिस वायरस ने 2020 में हमारी जिंदगी पर राज किया है, वह 2021 की शुरुआत में भी मंद मंद मुस्कुरा रहा होगा. क्योंकि उसके नए म्यूटेशंस का आतंक नए साल में भी जारी है. दूसरी तरफ उससे मुकाबला करने के लिए जिन वैक्सीन्स को तैयार किया गया है, उन्हें लेकर भी तमाम तरीके के विवाद छिड़े हैं.
पर क्या इससे इस वैज्ञानिक तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि विज्ञान ने सार्स-कोव-2 के खिलाफ जंग जीत ली है. न सिर्फ वायरस की विशेषताओं का पता लगा लिया है, बल्कि वैक्सीन तक बना ली है.
इसीलिए भले ही नियम अस्पष्ट हों, वैक्सीन निर्माताओं के बीच होड़ मची हो और राजनैतिक ट्विट्स की बौछार हो रही है, फिर भी उनके धुएं से आगे का रास्ता धुंधला नहीं होना चाहिए. बेशक, विज्ञान ही उस रास्ते को रोशन करेगा, जिसके जरिए इस वायरस से आम लोगों की जान बचाई जा सकती है.
वैक्सीन्स पर उठने वाले सवालों के जवाब मिलने ही चाहिए
वैसे भारतीय रेगुलेटर ने जिन दो वैक्सीन्स को मंजूरी दी है, उन दोनों के लिए भरपूर शोध किए गए हैं लेकिन कुछ खुलासे ऐसे भी हुए हैं जो सवाल खड़े करते हैं और सावधानीपूर्वक उनके जवाब खोजने पड़ेंगे. इस बात की पूरी उम्मीद है कि दोनों वैक्सीन कोविड-19 के खिलाफ उपयोगी साबित होंगी. फिर भी सवाल पूछे ही जाने चाहिए और उनके जवाब भी मिलने चाहिए. विज्ञान इसकी मांग करता है और जनता के विश्वास के लिए यह जरूरी है. इसलिए मैं इन वैक्सीन्स को लेकर चिंता जाहिर करना चाहता हूं. इसलिए नहीं क्योंकि मैं इन्हें नकारता हूं, बल्कि सामूहिक तौर पर अपनी समझ को और पैना करने के लिए.
ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन
इसके लिए कहा गया है कि इसे प्रारंभिक कोरोना वायरस पर व्यापक शोध करके और कई देशों में ट्रायल के बाद तैयार किया गया है. एक हानिरहित चिंपाजी एडेनोवायरस वेक्टर मानव शरीर में सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन के कोड को पहुंचाता है. जब वेक्टर पोस्टमैन इस कोड को डिलिवर करता है तो वह कोड सार्स-कोव-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन के लिए इंसान के इम्यून रिस्पांस को उकसाता है और आगे मुकाबले करने के लिए शरीर तैयार हो सकता है.
ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन कितनी असरदार
ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन के असर और सुरक्षा के काफी गुण गाए गए हैं. लेकिन कुछ बातों को स्पष्ट किया जाना अभी बाकी है. चूंकि इसकी दो डोज दी जानी हैं तो क्या दोनों के बीच 28 दिनों का समय होना चाहिए या तीन महीने का? दोनों फुल डोज होंगी या पहली डोज आधी होगी, और अगली डोज मिलकर वे पूरी होंगी? ये सवाल इसलिए खड़े हो रहे हैं क्योंकि यूके से गलतफहमी पैदा करने वाली खबरें आ रही हैं.
सबसे पहले यह दावा किया गया कि ऑक्सफोर्ड ग्रुप की वैक्सीन का असर या जिसे वैक्सीन की एफिकेसी कहते हैं, 70% है. इस आधार पर भारतीय रेगुलेटर ने भी मान लिया कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की वैक्सीन का भी वही असर होगा. फिर यूके में पता चला कि यह अनुमान दो स्ट्रैंड्स के लिए निकाले गए हैं जोकि “कॉन्ट्रैक्टर एरर” के कारण इत्तेफाक से ट्रायल के दौरान उभरकर सामने आए. प्रोटोकॉल का अनुपालन करने वाले बड़े स्ट्रैंड के दो डोज़ लगाए गए थे. दूसरा स्ट्रैंड, जिसकी संख्या कम थी, का असर 90% मालूम चला था. तो, इन दोनों को मिलाने से नतीजा 70% कैसे आया, यह वैज्ञानिक स्तर पर नहीं माना जा सकता.
फिर प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा कि यूके में तीन महीने के अंतर पर दो डोज़ लगाई जाएंगी ताकि आंशिक सुरक्षा के लिए बहुत से लोगों को पहली डोज दी जा सके. क्या ट्रायल प्रोटोकॉल में इतना समय लगा था? शुरुआत में यह नहीं बताया गया था. इसके बाद एक नई बात पता चली. 30 दिसंबर को यूके की मीडिया रिपोर्ट्स में प्रोफेसर सर मुनीर पीरमोहम्मद के हवाले से नया खुलासा किया गया. प्रोफेसर पीरमोहम्मद वैक्सीन डेटा की समीक्षा करने वाले एक्सपर्ट ग्रुप के अध्यक्ष हैं. उन्होंने कहा कि ऑक्सफोर्ड की वैक्सीन में 90% नहीं, सिर्फ 80% असर देखा गया था. वह भी तब, जब दो महीने के अंतर पर दो डोज लगाई जाएं. उन्होंने न्यूज कॉन्फ्रेंस में कहा था कि हमने आधी डोज को भी देखा है जिसे व्यापक तौर पर प्रचारित किया गया था लेकिन हमने महसूस किया है कि इसके नतीजे पूरे विश्लेषण से प्राप्त नहीं हुए थे. इस दौरान यूके की रेगुलेटरी एजेंसी ने अपना फैसला सुनाया था.
एस्ट्रा-जेनेका और स्पूतनिक-वी के सिंगल शॉट्स
एक चिंता और उभरी है. न्यूज रिपोर्ट्स से पता चला है कि एस्ट्रा-जेनेका और स्पूतनिक-वी भी एक ट्रायल की योजना बना रहे हैं जिसमें वे दो शॉट कॉम्बो में सिंगल शॉट्स के तौर पर अपनी वैक्सीन का इस्तेमाल करेंगे. चूंकि यह आशंका जताई गई है कि उनकी वैक्सीन में इस्तेमाल होने वाले एडेनोवायरस वेक्टर्स (एक में चिंपाजी वायरस और दूसरे में मानव) दूसरे शॉट में खुद होस्ट इम्युनिटी का शिकार हो सकते हैं.
इस तरह वे स्पाइक प्रोटीन कोड को डिलिवर नहीं कर पाएंगे. यह महसूस किया गया कि बेहतर इम्युनिटी ऐसे कॉम्बो से हासिल की जा सकती है जिसमें दो अलग अलग एडेनोवायरस से काम लिया जाए. मौजूदा वैक्सीन में दोनों शॉट्स में वही एडेनोवायरस है.
भारत बायोटेक की वैक्सीन की खासियत
भारत बायोटेक वैक्सीन ने रेगुलेटर को इम्युनोजेनिसिटी और सुरक्षा के सबूत दिए हैं. हालांकि एफिकेसी के फेज 3 के क्लिनिकल ट्रायल में देरी हो रही है. क्या शुरुआत में और ट्रायल साइट्स को शामिल करने से वॉलंटियर्स को रिक्रूट करना आसान होता, क्योंकि उस समय मामले बढ़ रहे थे और मौतें भी और लोग काफी परेशान थे. यह स्पष्ट तौर से कहना तो मुश्किल है लेकिन ट्रायल्स में हिस्सा लेने का उत्साह खतरे की कम होती उम्मीद के साथ फीका पड़ सकता है.
इनएक्टिवेटेड वायरस वैक्सीन के कई फायदे हैं. भारत बायोटेक की वैक्सीन ऐसी ही वैक्सीन है. एक ऐसा ज्ञात प्लेटफॉर्म जिसके जरिए ऐसे वायरस को शरीर में प्रवेश दिलाया जाता है जोकि संक्रमण पैदा करने के काबिल नहीं है. यह सुरक्षा के लिहाज से भी अच्छा है. इसी वजह से यह इम्यूनोकॉम्प्रोमाइज्ड या इम्यूनोसरप्रेस्ड लोगों को भी दिया जा सकता है. इसे सामान्य तापमान में स्टोर किया जा सकता है, और लाया-ले जाया जा सकता है. इसके लिए किसी कोल्ड चेन की जरूरत नहीं. इस तरह इसे सुदूर ग्रामीण इलाकों में भी सप्लाई किया जा सकता है. अब चूंकि यह सिर्फ स्पाइक प्रोटीन को नहीं, दूसरे एंटीजंस को भी उकसाती है इसलिए इनएक्टिवेटेड वायरस किसी म्यूटेंट को भी काबू कर सकता है जोकि इसके स्पाइक प्रोटीन को इम्यून रिस्पांस से अनजान बना देता है.
यह सब काफी दिलचस्प है लेकिन फिर भी फेज 3 का ट्रायल जरूरी है. रेगुलेटर ने अभी यह साफ नहीं किया है कि ‘क्लिनिकल ट्रायल मोड’ के जारी रहने का क्या मायने हैं. क्या फेज 3 के ट्रायल जारी रहेंगे, जबकि दूसरों को पूरी जांच पड़ताल के बाद वैक्सीन मिल जाएगी? अगर ऐसा है तो दूसरी वैक्सीन को कोई प्रतिस्पर्धा नहीं मिलेगी. क्या फेज 3 और 4 (लाइसेंसर के सर्विलांस के बाद) के डेटा को एक साथ जमा किया जाएगा पर उनका विश्लेषण अलग-अलग होगा.
क्या सभी आंकड़ों का आकलन करने के बाद रेगुलेटर ने कहा है कि ट्रायल पूरा होने के बाद इस वैक्सीन के लिए अस्थायी मंजूरी तत्काल जरूरत और प्रारंभिक समीक्षा के पूर्वानुमान के आधार पर दी जा रही है? यदि हां, तो अंतरिम मंजूरी के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के किन मुद्दों पर विचार किया गया था? उम्मीद है कि यह वैक्सीन असरदार होगी, लेकिन पूरे हो चुके क्लिनिक ट्रायल से इसका सबूत नहीं मिला है. हमें उम्मीद है कि यह जल्द मिल जाएगा.
पर सब कुछ इतना अस्पष्ट है कि भरोसा टूटता है
यूके में ऑक्सफोर्ड वैक्सीन की मंजूरी को लेकर मीडिया ने कोई आलोचना नहीं की और न ही वहां इसे कोई वैज्ञानिक चुनौती दी गई. इसकी वजह यह थी कि रेगुलेटर को इसके प्रोटोकॉल का खुलासा किया गया. इस पर खुलकर चर्चा भी हुई. वैक्सीन कितनी असरदार, इस पर कोई विवाद नहीं हुआ क्योंकि उस पर खुलापन था. कहने का मतलब यह है कि भारत में रेगुलेटर्स को महत्वपूर्ण नतीजों को साझा करना चाहिए. उन्हें वैज्ञानिकों, और आम लोगों को यह भी बताना चाहिए कि वैक्सीन की मूल्यांकन प्रक्रिया में क्या कमियां थीं.
अगर रेगुलेटर बताएगा कि सभी उपलब्ध सबूतों के आधार पर फैसले लिए गए और उन फैसलों की क्या वजहें थीं तो जनहित में कुछ कमजोरियों को भी स्वीकार किया जाएगा. दूसरी तरफ जिस तरह सर हमफ्री एपलबाई रहस्यमय तरीके से क्रिसमस की शुभकामनाएं देते हैं, उसी किस्म की रहस्यमय मंजूरियों से पासा ऐसा पलटेगा कि उपयोगी वैक्सीन्स पर भी लोगों को भरोसा नहीं होगा. अब भी साफ-साफ बात करके, वैक्सीन से जुड़े सभी भ्रम को तोड़ने से ही लोगों का विश्वास कायम होगा.
(प्रोफेसर के. श्रीनाथ रेड्डी एक कार्डियोलॉजिस्ट और एपिमेडियोलॉजिस्ट हैं. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) के अध्यक्ष हैं और मेक हेल्थ इन इंडिया: रीचिंग अ बिलियन प्लस नामक किताब लिख चुके हैं. यह एक ओपिनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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