आखिरकार, जिसका लंबे समय से इंतजार था वो राफेल विमान मिल गए हैं. कुल मिलाकर पांच राफेल विमान (तीन ट्रेनर और दो फाइटर विमान). आने वाले सालों में जैसे-जैसे 4.5 पीढ़ी के इस विमान की तादाद बढ़ेगी, भारतीय वायु सेना की क्षमता बढ़ती चली जाएगी. इन विमानों के आने से मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (MMRCA) को खरीदने की हमारी दशकों पुरानी प्रक्रिया भी कुछ हद तक एक अंजाम तक पहुंच गई है.
MRCA से लेकर MMRCA तक: एक बेहद लंबी प्रक्रिया
ये प्रक्रिया मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट की जरूरत के साथ 1990 के आखिर में शुरू हुई थी, जो कि जल्द ही और मिराज-2000 विमान मंगाने के फैसले में तब्दील हो गई, जिसे बनाने का लाइसेंस HAL को मिलना था. 2003 के आखिर तक इस पर व्यापक विचार-विमर्श होता रहा और प्रोजेक्ट के लिए प्रस्ताव आते रहे, उम्मीद थी कि सरकार इसे मंजूरी दे देगी. लेकिन तभी जसवंत सिंह की अध्यक्षता वाली रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) ने प्रस्ताव को ये कहकर खारिज कर दिया कि इतनी बड़ी खरीदारी के लिए ग्लोबल टेंडर की प्रक्रिया ही ठीक रहेगी.
यह फैसला बिलकुल ठीक था, क्योंकि भारतीय वायु सेना को M 2000 और F-16 जैसे 40 साल पुराने विमानों की जगह नए विमानों की तलाश की जरूरत थी.
4.5 पीढ़ी के मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट को ध्यान में रखते हुए अक्टूबर 2004 में मेरे हस्ताक्षर से नई RFI (रिक्वेस्ट फॉर इन्फॉर्मेशन) भेजी गई. MMRCA की प्रक्रिया शुरू हुई और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास बन चुका है. 2004 में इरादा था कि पहला विमान 2010-11 तक आ जाएगा.
- 5 राफेल से मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट खरीदने की जो प्रक्रिया 1990 के आखिरी में शुरू हुई वो कुछ हद तक एक अंजाम तक पहुंच गई है.
- राफेल के वायु सेना में शामिल होने से हमारी स्थिति रक्षात्मक और प्रतिक्रियात्मक से बदलकर दुश्मन के दुस्साहस को रोकने वाली हो जाएगी.
- हालांकि जरूरत इस बात की है कि हम वास्तविकता को समझें और डींगें हांकने से बचें.
- राफेल के दो स्क्वॉड्रन, जिनके तैयार होने में अभी वक्त है, भी भारत की जरूरतों का महज एक हिस्सा ही पूरी कर पाएंगे, हमारे पास 12 स्क्वॉड्रन की कमी बनी रहेगी.
- सुरक्षा तैयारी में इस कमी का असर आने वाले समय में भारत के पास मौजूद विकल्प और रणनीतियों पर पड़ेगा.
- अगर अफवाह सच है और भारत 44 और राफेल खरीदता है तो ये भारत के लिए मौका गंवाने की विडंबना जैसा होगा.
राफेल की डिलीवरी के लिए आदर्श वक्त
भारतीय खरीदारी परंपराओं के मुताबिक इसमें भी एक दशक ज्यादा समय लग गया और विमानों की संख्या भी काफी कम कर दी गई, और सबसे बड़ी बात ये कि विमान निर्माण और तकनीक के हस्तांतरण को लेकर औद्योगिक साझेदारी को भी रद्द कर दिया गया.
इन कमियों के बावजूद राफेल ऐसे नाजुक समय पर आया है जब भारत-चीन के बीच तनाव 1967 के बाद सबसे बुरे दौर में पहुंच चुका है.
दोनों देशों ने बड़ी तादाद में लद्दाख में सेना की तैनाती कर दी है. मौजूदा माहौल में चीन के किसी भी दुस्साहस को रोकने के लिए भारत को अपनी वायु शक्ति के इस्तेमाल पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है.
हालांकि भारत की जरूरत के हिसाब से पांच राफेल काफी कम हैं, लेकिन वायु सेना में इन्हें शामिल करने से हमारी स्थिति में बड़ा फर्क आएगा. हमारी स्थिति रक्षात्मक और प्रतिक्रियात्मक होने के बजाए दुश्मन के दुस्साहस को रोकने वाली हो जाएगी. लद्दाख सेक्टर में सुखोई और एम 2000 के साथ चार या पांच राफेल की तैनाती से BVR क्षमता और हमलों के विकल्प में इजाफे के साथ हमारी वायु शक्ति के दूसरे हिस्से भी मजबूत होंगे.
राफेल अपने साथ बेहद अहम एडवांस AESA रडार क्षमता के अलावा 150 किमी रेंज की मीटियर मिसाइल और जमीन-से-आसमान में मार करने वाले सटीक हथियार भी ला रहा है जिसमें अचूक निशाना साधने वाली SCALP क्रूज मिसाइल भी मौजूद है.
हालांकि ये भी जरूरी है कि हम वास्तविकता को समझें और डींगें हांकने से बचें. सारे साजोसामान से लैस राफेल का पहला स्क्वॉड्रन 2021 के फरवरी/मार्च महीने से पहले तैयार नहीं हो पाएगा, और दूसरे स्क्वॉड्रन को तैयार करने में अप्रैल 2022 तक का समय लगेगा. ये दो स्क्वॉड्रन भी भारत की जरूरतों का महज एक हिस्सा ही पूरी कर पाएंगे, इसके बाद भी हमारे पास 12 स्क्वॉड्रन की कमी बनी रहेगी.
सुरक्षा तैयारी में इस कमी का असर आने वाले समय में भारत के पास मौजूद विकल्प और रणनीतियों पर पड़ेगा, जो कि मूल रूप से हालात के बेकाबू होने से बचने की जरूरत से जुड़ी है. भारतीय वायु सेना की चुनौतियां तय हैं. अगले दस साल के अंदर युद्ध स्तर पर इसका आधुनिकीकरण जरूरी है. जिसमें सुखोई-30 को अपग्रेड करना, M2000 और MiG 29 अपग्रेड की प्रकिया को पूरा करना, तेजस को वायु सेना में शामिल करना और एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम की मौजूदा क्षमता का विस्तार और संचालन जरूरी है. दो मोर्चे पर लड़ाई में दुश्मन को टक्कर देने के लिए ये बेहद जरूरी है.
राफेल को अंबाला और हाशीमारा में तैनात करने का फैसला सही
पश्चिमी सेक्टर में अंबाला और पूर्वी सेक्टर में हाशीमारा एयर बेस में राफेल के एक-एक स्क्वॉड्रन होंगे. आधुनिक लड़ाकू विमानों के सुचारू और कुशल संचालन के लिए एयरबेस में रखरखाव, सर्विस, इलेक्ट्रॉनिक और ट्रेनिंग के इन्फ्रास्ट्रक्चर की दरकार होती है. ये सब बहुत महंगा और तकनीक पर आधारित होता है. इससे स्क्वॉड्रन को दो या तीन उड़ान में अलग-अलग जगहों पर तैनात करना और भरोसेमंद तरीके से इसका संचालन मुमकिन हो जाता है.
अंबाला और हाशीमारा के मुख्य बेस होने के फायदे स्पष्ट हैं. इन बेस पर दो-दो स्क्वॉड्रन के लिए व्यापक बुनियादी ढांचा मौजूद हैं. इसलिए, अगर दोनों स्क्वॉड्रन को इनमें से एक ही जगह पर रखा जाता तो किफायती होता. दोनों एयर बेस सरकार को बुनियादी ढांचे पर किसी नए खर्च के बिना दो और स्क्वॉड्रन खरीदने का विकल्प देते हैं. हालांकि इसमें अभी वक्त है.
वहीं, यह बात किसी से छिपी नहीं है कि MMRCA के दो स्क्वॉड्रन 2004 में अनुमानित 126 एयरक्राफ्ट की जरूरत के सामने नाकाफी हैं.
मौजूदा जरूरत तो, तेजस के शामिल किए जाने के बाद भी, 200 से ऊपर विमान की हो चुकी होगी.
क्या चीन से टक्कर के लिए भारत और राफेल खरीदेगा?
गलवान संघर्ष के बाद बहुत तेज अफवाह उड़ी कि भारत 44 राफेल की दूसरी खेप खरीद सकता है, जिससे भारत के पास कुल 80 राफेल एयरक्राफ्ट हो जाएंगे. जहां भारतीय वायु सेना को निश्चित रूप से ज्यादा MMRCA की जरूरत है, भारत के लिए इस तरह का फैसला अवसरों को गंवाने जैसी विडंबना ही कही जाएगी.
मूल रूप से जिस तरह के कॉन्ट्रैक्ट की परिकल्पना की गई थी उससे राफेल का निर्माण भारत में ही मुमकिन होता, जिसमें स्वदेशी उद्योग और दूसरे देशी कार्यक्रमों को काफी फायदा मिलता. हमारी चूक से रणनीतिक निर्णय लेने में निरंतर दोहराया जाने वाला भ्रम ही उजागर होता है.
(एयर मार्शल एम मातेश्वरन AVSM VM PhD (Retd) इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के पूर्व डिप्टी चीफ हैं. वह अभी एक चेन्नई-बेस्ड पॉलिसी थिंक टैंक 'The Peninsula Foundation' के प्रेसिडेंट हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं.)
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