पतझड़ का मौसम खास होता है. इसमें पेड़ों से पत्तियों का आवरण हट जाता है और उनकी असलियत सामने आती है. इस साल यूरोप में पतझड़ के मौसम में कुछ ऐसा हुआ, जिससे फ्रांस से 12 हजार किलोमीटर दूर दिल्ली में कई नकाब हट गए. फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के खुलासे से राफेल लड़ाकू विमान सौदे का सच सामने आया, जिसमें पहले से ही कई गड़बड़ियां दिख रही थीं. इसके बाद रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री ने जो विरोधाभासी बयान दिए, उनसे पता चलता है कि मोदी सरकार ना सिर्फ सौदे के तथ्य छिपा रही थी, बल्कि उसे यह भी पता नहीं है कि वह अपने ही बुने झूठ के जाल में जिस तरह से फंस गई है, उससे कैसे बाहर निकले.
कीमत पर सरकार का झूठ
जब यह पूछा गया कि यूपीए सरकार जिस विमान के लिए 526 करोड़ पर समझौता करने वाली थी, उसकी कीमत कैसे 1,670 करोड़ रुपये हो गई तो सरकार ने पहले कहा कि वह गोपनीयता की शर्तों से बंधी है, इसलिए दाम की जानकारी नहीं दे सकती. हालांकि, ओलांद ने एक इंटरव्यू में बताया कि लड़ाकू विमान की कीमत गोपनीयता की शर्त से नहीं बंधी है. इससे भी बड़ी बात यह है कि रिलायंस डिफेंस और दैसॉ दोनों ने ही विमान की कीमत का जिक्र किया था. ऐसे में सरकार दोनों पर कथित गोपनीयता की शर्तों का उल्लंघन करने के मामले में मुकदमा क्यों नहीं करती.
उसके बाद रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि यूपीए की डील इसलिए सस्ती थी, क्योंकि उसमें सारे हथियार शामिल नहीं थे. शायद प्रधानमंत्री ने उन्हें 10 अप्रैल 2015 में भारत-फ्रांस के संयुक्त बयान की जानकारी नहीं दी थी. इसमें कहा गया था कि ‘वही विमान, उससे जुड़े सिस्टम और हथियार दिए जाएंगे, जिसकी भारतीय वायुसेना ने जांच की थी और उसे अप्रूव किया था.
’ इसका मतलब है कि यूपीए सरकार ने 526 करोड़ की कीमत पर फुली लोडेड एयरक्राफ्ट और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का एग्रीमेंट किया था. मोदी सरकार ने बिना टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के 1,670 करोड़ की कीमत पर वही सौदा किया.
यानी निर्मला सीतारमण ने दाम में फर्क की वजह ‘विमान के कॉन्फिगरेशन में रहस्यमयी अंतर’ को बताया तो अरुण जेटली ने दावा किया कि मोदी ने जो सौदा किया, उसमें विमान का बेसिक प्राइस यूपीए से 9 पर्सेंट कम है और कुल मिलाकर यह पिछली सरकार के सौदे से 20 पर्सेंट सस्ता है. दोनों ही भूल गए कि अप्रैल 2015 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने 126 रफाल लड़ाकू विमान की कीमत 90 हजार करोड़ के करीब बताई थी.
ऑफसेट गाइडलाइंस
जब हमने सरकार से पूछा कि एचएएल की जगह रिलायंस डिफेंस को क्यों पार्टनर बनाया गया तो 12 फरवरी 2018 को निर्मला सीतारमण ने कहा कि इसमें अभी तक कोई ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट नहीं दिया गया है.
दिलचस्प बात यह है कि 27 अक्टूबर 2017 को फ्रांस की रक्षा मंत्री फ्लोरेंस पार्ली ने नागपुर में रिलायंस के प्लांट की आधारशिला रखी थी. वह उसी दिन सुबह में निर्मला सीतारमण से मिली थीं. उसके बाद कहा गया कि ऑफसेट पॉलिसी के मुताबिक दैसॉ अपनी पार्टनर चुनने के लिए आजाद है और इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है. सच यह है कि ऐसी डील में ऑफसेट पार्टनर्स के लिए रक्षा मंत्रालय की मंजूरी जरूरी होती है.
राफेल डील पर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी देश को गुमराह किया. उन्होंने दावा किया कि दैसॉ और रिलायंस के बीच एग्रीमेंट साल 2012 में ही हो गया था. इस हास्यास्पद दावे का उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया. उन्हें इतना तो पता ही होगा कि उस वक्त दैसॉ से पार्टनरशिप की बात मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज कर रही थी, ना कि अनिल अंबानी की कोई कंपनी. वैसे तत्कालीन यूपीए सरकार ने दैसॉ के सामने स्पष्ट किया था कि सरकारी कंपनी एचएएल ऑफसेट पार्टनर होगी.
टेक्नोलॉजी ट्रांसफर यूपीए सरकार ने ना सिर्फ सस्ती डील की थी, बल्कि 560 करोड़ प्रति जहाज के इस सौदे में देश को टेक्नोलॉजी भी मिलती. मोदी ने ऐसी डील की, जिसमें एक राफेल जहाज की कीमत 1,670 करोड़ रुपये हो गई और इसमें टेक्नोलॉजी भी नहीं मिलेगी. इस बारे में सरकार ने अब तक कुछ नहीं कहा है और यह उसकी अपनी ‘मेक इन इंडिया’ पॉलिसी के खिलाफ है. दिलचस्प यह भी है कि रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर ने निवेशकों को दिए प्रेजेंटेशन में बताया कि राफेल में 30 हजार करोड़ के ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के अलावा उसे 1 लाख करोड़ का ‘लाइफसाइकल कॉस्ट कॉन्ट्रैक्ट’ भी मिला है यानी विमान की मरम्मत और रखरखाव से उसे इतनी आमदनी होगी.
एयरक्राफ्ट मैन्युफैक्चरिंग और मेंटेनेंस में सालों का अनुभव रखने वाली सरकारी कंपनी एचएएल को क्यों रिप्लेस किया गया? इसके जवाब में निर्मला सीतारमण ने एक और चौंकाने वाला बयान दिया. उन्होंने कहा कि एचएएल के पास राफेल को बनाने की क्षमता नहीं है, लेकिन इस झूठ की पोल एचएएल के पूर्व बॉस सुवर्ण राजू ने खोल दी.
अनिल अंबानी के साथ मोदी की फ्रांस की यात्रा से 15 दिन पहले 25 मार्च 2015 को दैसॉ एविएशन के सीईओ एरिक ट्रैपिए ने कहा था कि उनकी कंपनी और एचएएल ने वॉरंटी के मामले को सुलझा लिया है और दोनों के बीच 95 पर्सेंट डील हो चुकी है. उन्होंने कहा था कि बाकी के 5 पर्सेंट मसलों पर भी जल्द ही सहमति बन जाएगी. फिर 15 दिनों में ऐसा क्या हुआ कि एचएएल ने डील में पार्टनर बनने की योग्यता गंवा दी?
मोदी सरकार की झूठी दिलेरी
मोदी सरकार के एक भी मंत्री ने इस मामले में कई अहम सवालों के जवाब नहीं दिए हैं और सच ओलांद के जवाब से सामने आया. दरअसल, सरकार इन सवालों से डरी हुई है और झूठी दिलेरी दिखा रही है. इन सवालों का जवाब देने के बजाय रक्षा मंत्री हैशटैग में बिजी हैं और वित्त मंत्री सच बताने के बजाय सवाल करने वालों पर निजी हमले कर रहे हैं.
राफेल सौदे पर प्रधानमंत्री बहुत कुछ छिपा रहे हैं. वह हमारी बहादुर सेना से आंखें नहीं मिला सकते. वह टैक्सपेयर्स का सामना नहीं कर सकते, जो जानना चाहते हैं कि हम क्यों राफेल के लिए 300 पर्सेंट अधिक कीमत चुका रहे हैं. जब वायुसेना को 126 लड़ाकू विमानों की जरूरत है, तब 36 विमान ही क्यों खरीदे जा रहे हैं? प्रधानमंत्री को इन सवालों के जवाब देने चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके लिए गर्मियों का मौसम खत्म होते ही पतझड़ शुरू हो गया है.
(पवन खेड़ा कांग्रेस पार्टी से जुड़े हैं और यह लेख अरुण जेटली के ब्लॉग के जवाब में लिखा गया है)
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