भारतीय लोग हमेशा सपने देखना पसंद करते हैं. कभी भी, कहीं भी. किसी भी सूरत, ऊंचाइयों के लिए बेचैन रहते हैं. मिसाल के तौर पर, अगर कमला हैरिस अमेरिका पर शासन करने वाली पहली ‘भारतीय’ महिला बन जाएं तो उस जीत के जश्न की कल्पना कीजिए- फतह के ऐलान से पहले ही लोग बालकनियों-छज्जों में थालियां बजाते, धुत होकर सड़कों में झूमते दिखाई देंगे. कोई ट्विटर पर विजय गान गा रहा होगा, और कोई इंस्टाग्राम पर मीम्स पोस्ट कर रहा होगा.
लेकिन इस हफ्ते हमने जो ‘जीत’ हासिल की है, वह ‘असली’ है. हमने साबित किया है कि हम दुनिया के सबसे संवेदनशील लोग हैं- जिसे आप ‘थिन स्किन्ड’ यानी पतली खाल वाले लोग भी कह सकते हैं (यह बात और है कि हम सबसे मुटियाये लोग भी हैं). तो चलिए, भाइयों और बहनों, अपने नगाड़े निकाल लीजिए और अपनी इस नई कामयाबी पर जलसा कीजिए.
ट्रोल्स इतने ताकतवर हैं कि टाटा तक को झुका सकते हैं
इसकी शुरुआत आलीशान ज्वैलरी ब्रांड तनिष्क के एक निर्दोष विज्ञापन से हुई थी. तनिष्क एक नए प्रॉडक्ट लाइन ‘एकात्मव’ को लॉन्च कर रहा था. इसके लिए उसने एक एड फिल्म बनाई जिसमें एक मुसलमान सास अपनी हिंदू बहू की गोदभराई कर रही है. जब बहू पूछती है कि ‘परिवार अपनी परंपरा से बाहर जाकर यह आयोजन क्यों कर रहा है’ तो सास जवाब देती है कि ‘कौन सी परंपरा या धर्म बेटी की खुशियों के खिलाफ है.‘ यह सब काफी साफ और खूबसूरत था, है ना. एड फिल्म बनाने वाले ने काफी खुश होकर यूट्यूब पर इसे जारी करते हुए अपलोड का बटन दबाया होगा. लेकिन इस फिल्म पर जो प्रतिक्रियाएं हुईं, वे काफी क्रूर और तीखी थीं. दक्षिणपंथी ट्रोल्स ने काफी असभ्य तरीके से, गंदी भाषा में तनिष्क पर जहर उगला और कहा कि वह ‘लव जिहाद’ की बड़ाई कर रहा है. ‘लव जिहाद’ को हिंदू लड़कियों पर डोरे डालने वाले मुसलमान लड़कों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है. मानो हिंदू लड़कियां उनकी मर्दानगी पर रीझकर उनकी ‘युद्ध बंदी’ बन जाती हैं.
अब अगर हमारे पाठकों में से किसी ने ट्रोल्स को झेला हो (यहां मैं झुककर उसका अभिवादन करता हूं) तो वह महसूस कर सकता है कि वे कितने घनघोर और बुरे होते हैं. किस तरह कड़वाहट का जहर फैलाया जाता है. कई बार तो इस जहर को उढेलने वाले इनसान भी नहीं होते, प्रोग्राम्ड रोबोट्स से यह काम कराया जाता है. आपके सोशल मीडिया हैंडिल पर घातक हमला किया जाता है. ट्रोल मास्टर्स बेहरमी से इसकी रूपरेखा तैयार करते हैं. इनमें इस्तेमाल होने वाली भाषा को दोहराया नहीं जा सकता. किसी को बख्शा नहीं जाता. अस्सी साल के बूढ़े माता-पिता से लेकर नन्हें बच्चों तक को शिकार बनाया जाता है. कीचड़ जिस तरह उड़ाया जाता है, उससे किसी संत का दिल भी दहल सकता है. भीतर से आप कमजोर और बेबस महसूस करते हैं, डर और गुस्से से भर जाते हैं, गाली का जवाब गाली से देना चाहते हैं, बदले की आग में जलते हैं और हारे हुए सिपाही की तरह निढाल हो जाते हैं. ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए किसी भी हद तक जाने की इच्छा होती है. इसे कैसे रोका जा सकता है...
जब ताकतवर ही घुटने टेक दे
पर ट्रोल का शिकार होने वाला हर शख्स जानता है कि यह कुछ घंटों या दिनों की बात होती है. ऐसा नहीं है कि शैतान शांत हो जाता है या अपनी गलती पर पछताता है. दरअसल कुछ समय बाद उसे कोई और शिकार मिल जाता है. अगले निशाने पर वार करने के लिए अपने सींग पैने करता है. इधर आप लहूलुहान छटपटाते हैं, उधर वह कहीं और निशाना बांधना शुरू कर देता है. धीरे धीरे आपका दर्द कम हो जाता है और आप फिर सांस लेने लगते हैं. ट्रोल के शिकार आपको अपनी दर्द भरी दास्ता सुनाएंगे तो आपको एक सी कहानी सुनने को मिलेगी.
टाटा यह बात अच्छी तरह जानते होंगे. अपने 154 साल के इतिहास में उन्होंने तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं. उनके साथ दसियों लाख लोग काम करते हैं. वे देश का नमक हैं. उनकी कंपनियां हर साल करीब 125 मिलियन USD कमाती हैं. सिर्फ एक क्राउन ज्वेल टीसीएस की कीमत दस ट्रिलियन रुपए है. वह मानवीय मूल्यों और सशक्तीकरण का प्रतीक है. कॉरपोरेट एथिक्स की मिसाल है. उसके संस्थापक भारत के सबसे छोटे जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से आते थे. हम उनसे यही उम्मीद करते हैं कि कम से कम वे तो जरूर इन ट्रोल्स के खिलाफ खड़े हो सकते थे. वे इस शैतान से लड़ने के लिए वकीलों की फौज खड़ी कर सकते थे. सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह इन खलनायकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे. अपने स्टोर्स की सुरक्षा के लिए सिक्योरिडी गार्ड्स तैनात कर सकते थे. पर उन्होंने घुटने टेक दिए- हमलावरों के आगे सिर झुका दिया.
हम बांग्लादेश से पिछड़ गए और पूरी कहानी की दिशा मोड़ दी
सिर्फ गहनों का एक ब्रांड ही नहीं, कोई देश भी हमें इतना नागवार गुजर सकता है. कौन सा देश... बांग्लादेश? याद कीजिए 1971 में भारत ने ही भुखमरी के शिकार एक छोटे से भूखंड को पाकिस्तान के चंगुल से निकाला था. यह बांग्लादेश ही तो था. फिर इस अहसानफरामोश ने अपने मुफलिस और भूखे-नंगे लोगों को सरहद पार खदेड़ दिया. इन घुसपैठियों ने भारत की समृद्धि में सेंध लगाई. अब पैरासाइट यानी परजीवी की तरह हमारा खून चूस रहे हैं. तो, जब खबर आई कि एक औसत बांग्लादेशी, एक औसत भारतीय से 11 अमेरिकी डॉलर अधिक खर्च करता है तो हम हिल गए.
बिल्कुल! आईएमएफ ने अनुमान लगाया है कि इस साल बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय, 1888 USD होगी- इसके मुकाबले भारत की प्रति व्यक्ति आय 1877 USD है. यह अपमान और तीखा हो गया, जब आपको लगता हो कि 2014 में आप ‘अपराजेय’ बन गए थे (आपको लगता था कि आपको कोई हरा नहीं सकता, हालांकि दूसरों को इस बात का भरोसा नहीं था), और तब बांग्लादेश और हममें 42 प्रतिशत का फर्क था. उसकी प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 1118 USD थी और हमारी बहुत विशालकाय, मतलब 1610 USD थी. उफ! उस परम शिखर से हम लुढ़क गए. हम- जिसे देव-देवताओं ने 21वीं शताब्दी विरासत के तौर पर सौंपी है. और हमें उस चोटी से घसीटने वाले और कोई नहीं, वे अधम बांग्लादेशी हैं. घोर अपमान- अधर्म हो गया है. सब बकवास है.
बस, पक्ष समर्थकों को एक इशारा भर काफी था. उन्होंने एक मुश्किल सवाल के जवाब में दूसरा मुश्किल सवाल खड़ा कर दिया. भारत सरकार ने आंकड़ों का पुलिंदा निकाला और ‘बांग्लादेश के मिथ’ को तोड़ने की कोशिश की. सरकारी प्रवक्ता ने बताया, ‘पर्चेसिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) के लिहाज से हम उसके मुकाबले 11 गुना बड़े हैं लेकिन उनकी आबादी के मुकाबले सिर्फ 8 गुना बड़े हैं. इसलिए हमारी प्रति व्यक्ति आय 6284 USD है और उनकी 5139 USD.’ बेशक, किसी ने इस बात का जिक्र नहीं किया कि 2017 में हम 7200 USD पर थे, और वह 4200 USD पर. तो हमने करीब एक हजार डॉलर गंवा दिए और बांग्लादेश ने पीपीपी के लिहाज से प्रति व्यक्ति आय में बराबरी हासिल कर ली.
हम सच्चाई से आंखें फेर लेना पसंद करते हैं
हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि बांग्लादेश टेक्सटाइल निर्यात का हब बन चुका है. चूंकि हम सच्चाई से आंख फेर लेना पसंद करते हैं. यह हम कैसे मंजूर कर लें कि कभी बांग्लादेश हमारी दया का पात्र था, और आज अपने पैरों पर खड़ा हो चुका है. बांग्लादेश के शहर ज्यादा फल फूल रहे हैं, लोग ज्यादा लंबा जीवन जीते हैं, कम बच्चे मरते हैं, हमारे मुकाबले वहां अधिक औरतें नौकरीपेशा हैं.
बेशक, अगर बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय वाली जीत बेबुनियाद हो तो भी हमें उसके मानवीय और सामाजिक मानदंडों की तारीफ करनी चाहिए. उससे कुछ सीखना भी चाहिए. पर क्या हमारी तुनकमिजाजी इस बात की इजाजत देती है कि हम किसी की तारीफ करें. इस मामले में हम अति भावुक, अति संवेदनशील हैं. हम ऐसी हर जीत को नकारना पसंद करते हैं. एक कठिन सवाल के जवाब में दूसरा कुटिल सवाल खड़ा करते हैं. सच्चाई से आंख फेरकर अपने बड़प्पन पर गाल बजाते हैं.
ओह, किस गर्त में गिरे हो, मेरे हमवतन
हम कितने उदारमना और सहिष्णु हुआ करते थे कभी
लेकिन कितने तीखे, तुनकमिजाज हो गए हैं जिसे कोई भी क्षण भर में कुंठित कर सकता है
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