सरकार को सैल्यूट के साथ शुरुआत करने के मौके मुझे कम ही मिले हैं लेकिन “कोई नया टैक्स नहीं” असाधारण रूप से ताजगी देने वाला है. बेशक, मैं खपत की मांग को शुरू करने के लिए टैक्स कम करने की विधर्मी नीति पर जोर दे रहा था लेकिन मुझे पता था कि ऐसा करना असंभव था. नए कर लगेंगे इस डर को मिटाने और टैक्स-और-खर्च वाले बजट से बचने की ज्यादा कोशिश थी.
लेकिन गौर करने वाली बात है कि कोई कोविड 19 सेस नहीं, कोई वेल्थ टैक्स नहीं, सुपर रिच पर कोई नया सरचार्ज नहीं, इक्विटी पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स में कोई बढ़ोतरी नहीं, कुछ भी नहीं बढ़ाया गया! बेशक, उधार-और-खर्च (बॉरो-एंड-स्पेंड) बजट के साथ बॉन्ड मार्केट ने प्रतिकूल स्थिति में भी हौसला दिखाया है लेकिन कुल मिलाकर, मैडम वित्त मंत्री को विशेष तौर पर शाबाशी. धन्यवाद.
“ड्रीम बजट” कैसे बनाया गया?
जब विशेषज्ञ इस “ड्रीम बजट” की बारीकियों की तारीफ कर रहे हैं, मैं सोच रहा हूं कि इस तरह के अनपेक्षित दस्तावेज को कैसे तैयार किया गया होगा. याद रखिए, ये प्रधानमंत्री के वित्त मंत्री को बुलाने और क्या करना है और क्या नहीं करना है ये बताने से शुरू हुआ होगा. मुझे लगता है कि बातचीत कुछ इस तरह से हुई होगी (डिस्क्लेमर: ये बातचीत काल्पनिक है).
पीएम: जहां तक मैं समझता हूं जनता इस बजट में नए टैक्स की आशंका से डरी हुई है. मुझे बताया गया है कि ये एक गलती निराशा भरे माहौल को और बढ़ा सकती है और अर्थव्यवस्था की हालत और खराब कर सकती है. लेकिन सामान्य जनता को खुश करना, बाजार में तेजी लाना और फील गुड सोच बनाना जरूरी है. इसलिए इस बार कोई भी नया टैक्स नहीं.
वित्त मंत्री (हल्के विरोध में) : लेकिन सर, मैं राजस्व कैसे जुटाउंगी.. (लेकिन पीएम ने उन्हें उनका वाक्य पूरा करने से पहले ही तेजी से रोक दिया होगा).
पीएम: कृपया, जाइए और सभी क्षेत्र के लोगों से बात कीजिए. उनसे पूछिए कि वो क्या चाहते हैं, क्या करने से वो खुश और आशावादी होंगे. उस सूची के साथ आकर मुझसे मिलिए.
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सरकार 5 साल में एयर इंडिया नहीं बेच पाई, वो इतने बड़े सपनों को जमीन पर कैसे उतारेंगे?
इसलिए, वित्त मंत्री ने कुछ बैठक कीं-उद्योग जगत की बड़ी हस्तियों, बैंकर्स, अर्थशास्त्रियों, छोटे व्यवसायियों, स्टॉक मार्केट में निवेश करने वालों, स्टार्ट अप चलाने वालों, लेबर यूनियन के सदस्यों और भी कई क्षेत्र के लोगों के साथ. उनके अधिकारियों ने सभी सकारात्मक मांगों को गंभीरता से नोट किया और इससे उनके लिए एक बड़ी सूची तैयार की. उन्होंने इसे काफी घबराहट के साथ पढ़ा. इन सभी को कैसे लागू किया जा सकता है? इसलिए एक संतुलित दृष्टिकोण देने के लिए उन्होंने इटैलिक्स में नकारात्मक रुख रखने वाले विशेषज्ञों की राय भी शामिल की और पूरी सूची को पीएम भेज दिया.
कम से कम दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योंरेस कंपनी का निजीकरण किया जाए.
साथ ही आईडीबीआई बैंक को भी बेचा जाए.
निवेश ट्रस्टों के जरिए मौजूदा सड़कों, रेलवे और तेल/गैस पाइपलाइनों का मुद्रीकरण किया जाए, जिसे शून्य कूपन बॉन्ड जारी करने और एफपीआई नकद लेने की अनुमति दी जानी चाहिए. उन्हें टैक्स काटने और टैक्स दरों में राहत दें.
और जब हम ऐसा कर रहे हों तो हमें पुराने एयरपोर्ट और अतिरिक्त जमीन को एसपीवी के जरिए बेचना चाहिए.
लेकिन हम आधे दशक के बाद भी अब तक एअर इंडिया को नहीं बेच सके हैं. यहां तक कि मुनाफे में चल रही बीपीसीएल की बिक्री भी रुकी हुई है. इसके अलावा कॉनकोर, पवन हंस भी है और पिछले साल से एलआईसी से आईपीओ लाने पर भी फैसला नहीं हो सका है. ऐसे में हम इतने महत्वाकांक्षी एजेंडा को कैसे लागू कर पाएंगे.
बीमा क्षेत्र में एफडीआई को बढ़ाकर 74% किया जाना और विदेशी कंपनियों को इन संस्थाओं का नियंत्रण देना.
किसी ने भी इस पर आपत्ति नहीं जताई है
एक नए डेवलपमेंट फायनांस इंस्टीट्यूशन (डीएफआई) का गठन किया जाए और इसे 20,000 करोड़ रुपये दिए जाएं.
इससे साथ ही एआरसी/एएमसी (एसेट मैनेजमेंट कंपनी के साथ एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी) ढांचे में एक बैड बैंक बनाया जाए.
सरकारी बैंक अपने बैड लोन को इसमें डाल देंगे अपने बैलेंस सीट से गंदगी को साफ कर देंगे.
साथ ही इन बैंकों को ऋण चुकाने योग्य रखने के लिए कम से कम 20,000 करोड़ रुपये दिए जाएं जैसे ही उनके खाते खाली हो जाएं.
'खर्च करो, खर्च करो और सिर्फ खर्च करो'
लेकिन 70-80 के दशक से सरकार के प्रभाव वाले भारत में डीएफआई एक असफल विचार है. आपको याद है कैसे आईडीबीआई, आईएफसीआई और आईसीआईसीआई को खत्म कर दिया गया या फिर से उनका गठन किया गया. इस नादानी को क्यों दोहराया जाए? क्या ये बेहतर नहीं होगा कि एक बहुत लॉन्ग-टर्म कैपिटल के लिए मजबूत, लिक्विड बॉन्ड मार्केट बनाया जाए? एक मध्यस्थ की स्थापना की जाए जो बदनाम डीएफआई के बजाए दो तरफा भाव बताने वाले बाजार निर्माता की तरह कार्य कर सकता है. और वैसे भी, इसी उद्देश्य के साथ हमने कुछ साल पहले एक एनआईआईएफ का गठन किया था.
इसके परिणाम दिखने अभी मुश्किल से शुरू हुए हैं. क्यों नहीं ज्यादा ऊर्जा वहां केंद्रित की जाए, इसे मजबूत किया जाए इसके बदले कि एक नए संस्थान का गठन किया जाए जिसे काम करना शुरू करने में कई साल लग जाएं? याद रखें, हमें बैड बैंक भी बनाने होंगे जिसमें भी कई महीनों का समय लग सकता है. इसलिए, नए संस्थानों को बनाने के जाल में फंसने के बदले क्या हमें पहले से मौजूद संस्थानों से ज्यादा काम नहीं लेना चाहिए?
सार्वजनिक परियोजनाओं पर पूंजी व्यय (कैपिटल एक्सपेंडीचर) बढ़ाएं, अगर ये 5.54 लाख करोड़ तक चला जाता है तो जाने दें.
सड़क बनाने और रेलवे की संपत्ति बनाने में आक्रामक तरीके से एक लाख करोड़ से ज्यादा उदारतापूर्वक खर्च करें.
स्वास्थ्य सेवा के दोगुने से अधिक बजट में 2.24 लाख करोड़ दिए गए हैं, सिर्फ खर्च, खर्च और खर्च कीजिए.
अगर वित्तीय घाटा इस साल 9.5% और अगले साल 6.8% तक पहुंच जाता है तो चिंता न करें. और इतनी जल्दी मजबूती की जल्दबाजी नहीं करें. बाजार को बताएं कि आप केवल 2025-26 तक ही घटकर 4.5% तक आ सकते हैं.
लेकिन 2008 संकट के बाद जब फिस्कल घाटा बढ़ा तब क्या हुआ था, हमें ये नहीं भूलना चाहिए
ये सब करने के लिए हमें बाजार से बड़ी मात्रा में कर्ज लेना होगा. अगर हम अर्थव्यवस्था के लिए पिछले “सामान्य” वर्ष को बेंचमार्क लेते हैं तो इसका मतलब होगा कि 4 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 9 लाख करोड़ रुपये से अधिक की शुद्ध बाजार उधारी! मुनाफा बढ़ने और निजी ऋण बढ़ने से बॉन्ड मार्केट में घबराहट हो सकती है. हमें ये भी याद रखना चाहिए कि 2008 के संकट के बाद जब हमारा बजट घाटा दो अंकों के आंकड़े के करीब आ गया था तो क्या हुआ था. महंगाई काफी बढ़ गई थी और बैड लोन के मामले भी बढ़ गए थे. इसलिए, क्या इससे थोड़ी जल्दी में अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के कदम उठाना उचित होगा?
प्रत्यक्ष कर प्रशासन में सुधार करें.
पिछले टैक्स रिटर्न को फिर से खोलने को छह से तीन साल तक कम करें.
इनकम टैक्स अपील की प्रक्रिया को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर बिना पहचान वाला बनाएं.
छोटे कर दाताओं के लिए एक उदार विवाद समाधान मेकानिज्म की अनुमति दें.
किसी ने भी इस पर आपत्ति नहीं दर्ज कराई है.
प्रधानमंत्री ने जब अपना नोट पढ़ना खत्म किया तो उनेके चेहरे पर व्यापक मुस्कान थी. उन्होंने अपने वित्त मंत्री को सभी आइडिया को लागू करने के निर्देश दिए. उन्हें पता था कि इससे बाजार के जरिए खुशी का संचार होगा. उन्होंने ये भी समझा कि भारत में और जोखिम उठाने और अगले वित्तीय वर्ष में महत्वाकांक्षी प्रतिबद्धताओं के कुछ हिस्से को पूरा करके दिखाने की क्षमता नहीं है. ईमानदारी से बात की जाए तो सिर्फ आधा काम पूरा करने में कई साल लग सकते हैं. तब तक जनता को पहले की तरह भरोसा रखना होगा क्योंकि “मैं हूं ना”. आखिरकार सब कुछ मुमकिन है.
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