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नागपुर में जो नहीं हुआ: लेकिन काश, ऐसा हुआ होता!

व्यंग्य: वैकल्पिक ब्रह्मांड में, पूर्व राष्ट्रपति ने नागपुर के आरएसएस हेडक्वार्टर में एक बहुत अलग भाषण दिया था

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डिस्क्लेमर:

अभी आप जो पढ़ने जा रहे हैं वो मुख्य तौर पर एक काल्पनिक लेख है. ये लेख नागपुर की उस वास्तविक घटना से प्रेरित है, जिसमें आरएसएस कार्यकर्ताओं की पासिंग आउट परेड के दौरान भारत के एक पूर्व राष्ट्रपति, आरएसएस सरसंघचालक के साथ एक मंच पर मौजूद थे. कुछ सच्ची और वास्तविक विवरणों के अलावा, जिन्हें ईमानदारी बरतते हुए बोल्डअक्षरों में दिया गया है, बाकी तमाम बातें इस लेखक की व्यंग्य रचना हैं. अगर आपको ये प्रयास अरुचि पैदा करने वाला लगता है या मजेदार नहीं लगता, तो ये लेखक आपसे माफी चाहता है. आप उसे ट्रोल करने में हिचकिचाएं नहीं.

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मॉनसून के तूफान के जल्द दस्तक देने की चेतावनी के बावजूद 7 जून 2018 काफी शांत रहा, आसमान में बहुत कम बादल दिखाई दे रहे थे. कद में छोटे, लेकिन राजनीतिक समझ के लिहाज से बेहद भारी-भरकम शख्सियत के धनी पीडी पहली बार उस "संगठन" के परम पावन गर्भगृह की तीर्थयात्रा पर निकले थे, जिसकी विचारधारा को उन्होंने अपनी सजग जीवनयात्रा के दौरान हमेशा ही बड़े तीखे शब्दों में खारिज किया था (शायद अपने बुरे से बुरे सपने में भी उन्होंने यही किया होगा). फिर भी, अनब्याहे मर्दों के उस संगठन के घनी मूंछों और दबंग व्यक्तित्व वाले चीफ एसएस ने उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, उन्हें करीब-करीब गले ही लगा लिया.

पीडी को फौरन ही बड़े सम्मान के साथ उस जगह पर ले जाया गया, जहां "संगठन" के संस्थापक का जन्म हुआ था (इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए बता दूं कि ये कहानी सन 1925 में शुरू हुई थी). पीडी को विजिटर रजिस्टर में बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ करने वाली ये टिप्पणी लिखने के लिए भी मना लिया गया था कि: आज मैं यहां भारत मां के एक महान सपूत के प्रति सम्मान व्यक्त करने और श्रद्धांजलि देने आया हूं.

लेकिन तभी पीडी अपना बहुमूल्य फाउंटेन पेन रखने से पहले थोड़ा ठिठके. उसके बाद उन्होंने अपने मन को तैयार किया और अपनी टिप्पणी में ये लाइनें भी जोड़ दीं: लेकिन मुझे लगता है कि काश आपने मुसलमानों को "यवन (यानी विदेशी) सांप" नहीं कहा होता, या उनकी देशभक्ति पर सवाल न उठाए होते, जैसा कि आपकी जीवनी लिखने वाले सीपी भिषिकर ने बताया है.

पीडी की "सीमा लांघने" वाली इस टिप्पणी से एसएस आग बबूला हो उठे. आखिर पीडी ने "संगठन" के दागदार अतीत को धो-पोंछकर चमकाने की सारी कोशिशों का एक ही झटके में काम तमाम कर दिया था. लेकिन एसएस अब कुछ नहीं कर सकते थे. इस मौके पर उनकी मामूली सी बड़बड़ाहट भी पब्लिक रिलेशन के लिहाज से बड़े हंगामे में तब्दील हो सकती थी, लिहाजा, वो दांत पीसते हुए भी खामोश बने रहने को मजबूर थे.

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और कसरत शुरू हो गई

जल्द ही वो दोनों एक बड़े से मंच पर जा बैठे, जहां गंभीर चेहरे वाले कुछ और वर्दीधारी पुरुष भी मौजूद थें.

"संगठन" का तिकोने आकार वाला भगवा झंडा फहराया गया और उसका झंडा गीत गाया गया.

इसके बाद लोगों ने अपनी-अपनी जगहों पर बैठना शुरू ही किया था कि एक गहरी और अलग उच्चारण वाली अकेली आवाज बिना किसी संगीत के हवा में गूंज उठी, "जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता...” पीडी ने एक छोटा सा भारतीय तिरंगा भी जेब से निकालकर अपनी कोट के कॉलर पर लगा लिया और टीवी कैमरामैन को इशारा किया कि राष्ट्रगान के दौरान उस तिरंगे को ही जूम करके दिखाया जाए.

राष्ट्रगान खत्म होने पर पीडी तबतक गुस्से से लाल हो चुके एसएस की तरफ मुड़े और बड़े शांत अंदाज में कहा: "मुझे खेद है कि आपको मेरी कर्कश आवाज में राष्ट्रगान सुनना पड़ा, लेकिन मैं अपने प्रोटोकॉल से कोई समझौता नहीं कर सकता. मैं सिर्फ भारतीय राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान को ही सलामी दे सकता हूं. मुझे उम्मीद है कि आप ये बात समझते होंगे."

एसएस का गुस्सा अब तक काबू से बाहर होने लगा था, लेकिन उन्होंने एक फीकी सी मुस्कान बिखेरी और अपने गुस्से को किसी तरह पी गए. उनके उम्रभर के संयम और बर्दाश्त करने की क्षमता की आज परीक्षा हो रही थी.

और तभी संगठन के कार्यकर्ताओं ने अपने करतब दिखाने शुरू कर दिए. वो कभी लाठियां भांजते, तो कभी निहत्थे ही आमने-सामने की लड़ाई का हुनर दिखाते. इसके बाद एसएस का भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने हमेशा की तरह हिंदू राष्ट्रवाद की महानता का बखान किया: सारी विविधता के बावजूद हमें मालूम होना चाहिए कि हमारे पुरखे एक थे. हिंदू सिर्फ बहुसंख्यक नहीं हैं. वो देश के भविष्य के लिए उत्तरदायी हैं."

अब गुस्से से उबलने की बारी पीडी की थी. वो पूरी जिंदगी ऐसी विभाजनकारी बकवास का विरोध करते रहे थे. लेकिन उनकी जबरदस्त सहनशीलता की भी आज परीक्षा थी. वो चेहरे पर कोई भाव लाए बिना इस हिंदुत्ववादी प्रलाप को खामोशी से सुनते रहे.

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आखिर जवाब देने का वक्त आ ही गया!

आखिरकार, वो वक्त आ ही गया जिसका सबको इंतजार था, यानी पीडी का भाषण! वक्त जैसे थम सा गया. टीवी पर बदलती तस्वीरों की रफ्तार भी मानो मंद पड़ गई. माहौल में ऐसा सन्नाटा छा गया कि एक सुई के गिरने की आवाज भी सुनी जा सकती थी. पीडी ने अपना गला साफ किया और अपने पहले से लिखे हुए भाषण के पन्ने खोलते हुए बोले :

आदरणीय एसएस जी और सम्मानित सज्जनों (पीडी ने "सज्जनों" पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया), मुझे पता है कि आपके दिल में हिंदी का विशेष स्थान है और अगर मैं हिंदी में बोलता तो आपको अच्छा लगता, लेकिन मेरी मातृभाषा बांग्ला है और मैं सोचता अंग्रेजी में हूं. इसलिए आपकी इजाजत से मैं अपना भाषण इस "विदेशी" भाषा में ही दूंगा.

मुझे यकीन है, आप जानते होंगे कि 2010 में दिल्ली के बुराड़ी में आयोजित ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (AICC) के 83वें अधिवेशन के दौरान एक राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए मैंने क्या कहा था. मैंने उस प्रस्ताव में अपनी यूपीए सरकार से कहा था, "इस संगठन और इसके उन सहयोगियों के आतंकवादियों से रिश्तों की जांच कराई जाए, जिनका हाल के कुछ मामलों में खुलासा हुआ है." मुझे बेहद हैरानी है कि आपने ये जानते हुए भी मुझे निमंत्रण दिया कि मैं आपको एक तरह से आतंकवादी कह चुका हूं; धन्यवाद!

आपके लाठी भांजने वाले कार्यकर्ताओं की चुस्ती-फुर्ती उल्लेखनीय है. मुझे उम्मीद है कि इनका इस्तेमाल, दूसरों पर अपनी मर्जी और सोच थोपने के लिए गुंडागर्दी करने वाले उन गिरोहों के खिलाफ किया जाएगा, जो आपके सहयोगियों की सरकार वाले राज्यों में एक नई और खौफनाक हकीकत बन गए हैं. मिसाल के तौर पर युद्धकला में उनकी ये महारत राजस्थान में किसी पहलू खान और उत्तर प्रदेश में किसी अखलाक की दंगाई भीड़ से रक्षा करेगी, गुजरात में उन बेबस दलित लड़कों को बचाएगी जिनकी चमड़ी जिंदा ही उधेड़ दी गई थी. चूंकि आप प्रशिक्षित और अनुशासित हैं, इसलिए आपको सार्वजनिक जीवन से हर तरह की शारीरिक और शाब्दिक हिंसा को मिटाने का काम करना चाहिए.

आदरणीय एसएस जी, अगर आप इजाजत दें तो मैं आपके आज के भाषण की सबसे बड़ी कमी की ओर ध्यान खींचना चाहूंगा. (एसएस को मजबूरी में सिर हिलाकर इजाजत देनी पड़ी). ...तो मैं बताता हूं, मुझे ये बात समझ नहीं आई कि आप राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अपार योगदान की चर्चा किए बिना भारतीय जीवन मूल्यों और इतिहास का बखान कैसे कर सकते हैं? आपको ये भी याद होना चाहिए कि दुर्भाग्य से कट्टर हिंदू उन्मादियों के हाथों उनकी कायराना हत्या में शामिल होने का आरोप आपके "संगठन" पर भी लगा था, जिसके चलते 1948 में इस पर पाबंदी भी लगा दी गई थी. बड़ी राहत की बात है कि "संगठन" को उस केस में अपराधी घोषित नहीं किया गया. लेकिन क्या मैं एक बिन मांगी सलाह दे सकता हूं? अगर आप एक बार सांप्रदायिकता के जहर से भरे उस हिंसक माहौल की कड़े शब्दों में निंदा कर दें, जिसके उन्माद ने आखिरकार हमारे सबसे प्रिय महात्मा को हमसे छीन लिया, तो देश की नजरों में आपका सम्मान बहुत बढ़ जाएगा. जैसा कि गांधी जी ने बताया था, भारतीय राष्ट्रवाद दूसरों के बहिष्कार पर नहीं टिका है और न ही ये आक्रामक और विनाशकारी है.

मुझे इस बात का भी उतना ही दुख है कि आपने आधुनिक भारत के निर्माण में पंडित नेहरू के योगदान का भी कोई जिक्र नहीं किया. हालांकि आपने इस विकास यात्रा के कई अहम पड़ावों की जमकर तारीफ की, जो सही भी है. आगे बढ़ने से पहले मैं ईमानदारी से बताना चाहता हूं कि मैं नेहरू के समाजवाद से बेहद प्रभावित रहा हूं, और हां, आप मुझे नेहरू भक्त भी कह सकते हैं!

पंडित नेहरू ने भारतीय राष्ट्रवाद को अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया (भारत एक खोज) में बड़ी खूबसूरती से समझाया है, जिसे मैं यहां उन्हीं के शब्दों में बताना चाहता हूं: "मुझे यकीन है कि भारत में राष्ट्रवाद हिंदू, मुस्लिम, सिख और भारत के अन्य समुदायों के वैचारिक मेलजोल से ही मजबूत हो सकता है. इसका मतलब किसी समूह की मूल संस्कृति का खत्म होना नहीं है. इसका मतलब है, एक साझा दृष्टिकोण, जिसका स्थान बाकी सभी बातों से ऊपर है."

इसलिए आपके भाषण में बार-बार हिंदू समाज का जिक्र सुनकर मैं हैरान था. भारत में विविधता का क्या यही मतलब रह गया है कि सभी समुदायों को जबरदस्ती एक संगठित हिंदू समाज के नाम से पहचाना जाए? आपके हिंदू समाज के ढांचे में मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, पारसियों का कहीं कोई जिक्र नहीं है? हम अपने सैकड़ों साल के इतिहास को इतनी आसानी से कैसे नकार सकते हैं? हां, मैं मानता हूं कि अशोक, मौर्य वंश, गुप्त वंश और दूसरे कई राजाओं ने भारत की नींव रखी, जब तक कि मुस्लिम आक्रमणकारी....(यहां पीडी रुक जाते हैं- एक लंबा, पीड़ादायक, अधर में लटका हुआ ठहराव....मानो तय नहीं कर पा रहे हों कि आगे क्या कहें)....

नहीं...नहीं...मैं जानता हूं कि आपने मुझे अपने लिखित भाषण में मुस्लिम आक्रमणकारी जैसे शब्द का इस्तेमाल करने के लिए तैयार कर लिया था...लेकिन मुझे इसे बदलने की इजाजत दें. मैं मुस्लिम शब्द को यहां से हटाना चाहूंगा. एक हजार साल पहले हमला करने वाले किसी आक्रमणकारी से एक धर्म को जोड़ना उतना ही मूर्खतापूर्ण और खतरनाक है, जितना आज के दौर में किसी आतंकवादी से उसे जोड़ना. ऐसा करना तब तो और भी विनाशकारी हो जाता है, जब ऐसे गलत ढंग से पेश किए गए इतिहास का इस्तेमाल 1992 में बाबरी मस्जिद की इमारत को ढहाने जैसी घटनाओं में किया जा चुका है. उस घटना के वक्त उत्तर प्रदेश में आपसे जुड़े लोगों का ही राज था.

इसलिए प्लीज, मेरे इस भाषण की छपी हुई प्रतियां मीडिया को देने से पहले मुस्लिम शब्द इस लाइन से हटा दीजिएगा.

और आखिरकार, अपनी बात खत्म करने से पहले मैं कहना चाहता हूं कि काश, इस जमावड़े में महिलाएं भी बराबरी से शामिल होतीं. मुझे पता है कि ये अविवाहित लोगों का "संगठन" है, लेकिन सिर्फ इसी वजह से हमें भारतीय महिलाओं के असाधारण योगदान को स्वीकार करने और उसका जश्न मनाने से पीछे नहीं हटना चाहिए.

जय हिंद!

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