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छोटे कारोबारी को बचाइए, वित्त वर्ष 2020-21 को जीरो ईयर घोषित कीजिए

ट्रैवल, रिटेल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में छोटे संगठनों की स्थिति बहुत खराब है

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NPAs की दूसरी लहर से लेकर विदेश जाने वालों के लिए कोविड वैक्सीन जैसे मुद्दों पर, द क्विंट के एडिटर इन चीफ राघव बहल की राय.

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FY 20-21 को जीरो ईयर घोषित करने की जरूरत

किसी भी मामले में देखिए, सामान्य समय में भी हर कोई, चाहे कोई कॉरपोरेशन हो या सामान्य आदमी आंकड़ों का इस्तेमाल चुनिंदा तरीके से नैरेटिव को तोड़ मरोड़कर पेश करने के लिए करता है. लेकिन जब कभी किसी सदी में कोविड-19 महामारी जैसी कोई रुकावट आती है तो ऐसे मौके चालाक सरकारों को गजब की हेराफेरी करने की इजाजत दे देते हैं. जरा देखिए कि आजकल कैसे ‘क्रिएटिव झूठ’ फैलाए जा रहे हैं.

पिछले साल जीडीपी के गर्त में जाने के बाद, हम इस बात का दावा कर रहे हैं कि-“इस साल सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, डबल डिजिट ग्रोथ देने वाली एकमात्र अर्थव्यवस्था”. या जब मार्च/अप्रैल 2020 में निर्यात में गिरावट आई, तो इस साल उसकी रिकवरी के लिए हम बहुत ही गर्व से कह रहे हैं “निर्यात में 50% से अधिक का उछाल आया है, जो कि आजादी के बाद के 70 सालों में सबसे ऊंची दर है.”

वहीं जब इन्फ्लेशन 12% तक बढ़ जाता है तो सरकार झट से ‘सफाई’ में कहती है कि ये तो ‘बेस इफेक्ट’ की वजह से है. लेकिन डियर केंद्र सरकार, आप GDP और निर्यात पर तारीफें बटोरते समय ‘बेस इफेक्ट’ क्यों भूल जाते हैं. क्यों ‘बेस इफेक्ट’ का इस्तेमाल हमेशा बुरी खबरों के लिए किया जाता है लेकिन अच्छी खबर बताने के वक्त इसे छिपा लिया जाता है.

ये पूरी तरह से बौद्धिक बेईमानी है. यही वजह है कि जब भी इतना बड़ा संकट आता है तो हमें बेस ईयर बदलने की जरूरत पड़ती है, यानी FY 20-21 को 'जीरो ईयर' घोषित करने की जरूरत है मतलब ट्रेंड रेट पता लगाने में इसका इस्तेमाल नहीं करना. इसकी बजाय हर अहम मीट्रिक के लिए FY 19-20 को बेस ईयर माना जाना चाहिए, तब जाकर मौजूदा साल का डेटा ज्यादा साइंटिफिक होगा.

छोटे कारोबारियों को बचाइए

भारत का फाइनेंशियल सेक्टर भी नॉन परफॉर्मिंग एसेट की भयावह दूसरी लहर की तरफ फिसलता दिख रहा है. नए अनुमान के मुताबिक, 100 लाख करोड़ रुपये से अधिक के कुल बैंक क्रेडिट का 15% से ज्यादा बर्बाद हो सकता है. ट्रैवल, रिटेल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में छोटे संगठनों की स्थिति बहुत खराब है. उनमें से बहुत से लोग साफ तौर पर दिवालिया हो गए हैं, क्योंकि अब करीब एक साल के लिए रेवेन्यू लगभग-शून्य या सामान्य समय के मुकाबले बहुत ही कम हो गया है.

ये “अदृश्य दिवालियापन” है जो बैंकों द्वारा देनदारियों को “कॉल इन या फोरक्लोज्ड” करने के बाद बड़े पैमाने पर बंद हो जाएगा. पूंजी की बर्बादी के वो हालात घातक होंगे. किसी भी संवेदनशील और बुद्धिमान सरकार को समझना चाहिए कि ये एक कृत्रिम कब्रगाह है.

स्थिति सामान्य होने के बाद व्यवसाय जो अच्छे हालात में वापस आ सकते हैं, वो फिलहाल केवल इसलिए बीमार हैं क्योंकि उनके पास नकदी की कमी है. ये थोड़े समय की बीमारी है जिसका इलाज किया जा सकता है. तो अब क्या किया जाना चाहिए? टुकड़ों में काम करने के बजाय, जैसा कि सरकार कर रही है, उसे वित्त वर्ष 20-21 और 21-22 को “वित्तीय शून्य वर्ष” घोषित करके इस समस्या को खत्म करना चाहिए, यानी पूरे बकाया ऋण और ब्याज के लिए इन 24 महीनों को रिस्ट्रक्चर्ड लोन में “आगे बढ़ाया जाना चाहिए”.

मैं सिर्फ सिद्धांत बता रहा हूं कि क्या किया जाना चाहिए. बारीकियां विशेषज्ञ तैयार कर सकते हैं. ऐसे कई मॉडल/विकल्प बनाए जा सकते हैं जो ये सुनिश्चित करें कि छोटे व्यवसाय इन 24 महीनों के दौरान नकदी/कर्ज के अभाव में बंद न हों. मैं समझता हूं कि “नैतिक खतरे” की वकालत करने के लिए आलोचक मुझ पर हमला करेंगे. लेकिन मैं ब्याज माफी या कर्ज माफी की मांग नहीं कर रहा हूं. मैं देनदारियों के एक समझदार, व्यावहारिक, दीर्घकालिक पुनर्गठन (Long-term restructuring) पर जोर दे रहा हूं ताकि अस्थायी, 24 महीने की नकदी/कर्ज की कमी दूसरे स्वस्थ व्यवसायों के बड़े पैमाने पर बंद होने का कारण न बने. तो भारत सरकार, कृपया अब कदम उठाइए.

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विदेश जाने वालों को पहले टीका सही कदम

आखिर में, अगर आप मानते हैं कि "सरकारें मेरी प्लेबुक में से कुछ भी सही नहीं कर सकती हैं", तो यहां एक पहल है जिसकी मैं बिना शर्त सराहना करूंगा, जिन लोगों को विदेश जाने की जरूरत है, चाहे वो छात्र हों या कर्मचारी या टोक्यो ओलंपिक के लिए खिलाड़ी, उन्हें ‘नियम से हटकर’ प्राथमिकता पर वैक्सीन दी जा रही है. ये एक सराहनीय कदम है.

अन्यायपूर्ण नीति होने के लिए इसकी आलोचना की जा रही है, खासकर उन छात्रों के खिलाफ जो भारत में रहने की योजना बना रहे हैं. मैं सहमत हूं, एक आदर्श दुनिया में, अगर वैक्सीन सभी के लिए तुरंत उपलब्ध होती, तो ऐसी योजना शुरू करना अनुचित होता. लेकिन जब भारी कमी होती है, और आपको कम बुरा चुनना होता है, तो बेहतर है कि “समानता” के सिद्धांतों पर टिके रहकर, कुछ साहसी सपनों और आकांक्षाओं का कत्ल न करें.

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