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फादर स्टेन स्वामी की मौत-क्रूर आपराधिक न्याय प्रणाली के अंधेरे की सुबह कब?

रात का अंधेरा चरम पर है, दुआ कीजिए ग़ालिब ने ठीक कहा है-"दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना"

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फादर स्टेन स्वामी की जमानत मांगते-मांगते मौत, सोशल मीडियो पोस्ट के लिए गिरफ्तारियां, सरकारी कंपनियों में सत्ताधारी दल के हारे हुए नेताओं को ओहदा देना और भारत के गूगल टैक्स पर दुनिया की मुहर, इन तमाम मुद्दों पर द क्विटं के एडिटर इन चीफ राघव बहल की राय.

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भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली खुद कटघरे में खड़ी है. इस पर सबसे ताजा और सबसे गंभीर आरोप है कि इसकी देखभाल में फादर स्टेन स्वामी (Fr Stan Swamy) की कितनी बेरहमी से मौत हो गई. तथ्य दहलाने वाले हैं. भारत का शक्तिशाली राज्य एक बीमार ,84 वर्षीय पादरी और आदिवासी अधिकारों के एक्टविस्ट से इतना डर गया कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने उनको कैद में रखने के लिए हर हथकंडा अपनाया. उसने उनको पार्किंसन बीमारी के बावजूद स्ट्रॉ और सिपर देने से इनकार कर दिया, जैसे बदला ले रही हो.

एजेंसी ने उनसे पूछताछ पूरी कर ली थी.उनका मुकदमा अभी शुरू नहीं हुआ था. इस बीच एक अत्यंत संक्रामक महामारी सैकड़ों की संख्या में बुजुर्ग लोगों को अपना शिकार बना रही थी . एक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ने इस बात का तार्किक संदेह व्यक्त किया था कि उनके कंप्यूटर में हैकर्स ने तथाकथित 'पुख्ता' सबूत प्लांट किया था.

एक ईमानदार अपराधिक न्याय प्रणाली कम से कम इसका संज्ञान लेती और इन आरोपों की सच्चाई की जांच करती.

इस बीच एक सभ्य समाज ने उस कमजोर उम्रदराज इंसान को सुरक्षित और निगरानी में रखते हुए कठिन जमानत की शर्तों पर रिहा कर दिया होता. दुर्भाग्य से बहरे कानों ने उनकी दलीलें नहीं सुनीं और उनकी मृत्यु हो गई. इसी तरह वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, हनी बाबू, गौतम नवलखा जैसे अन्य आरोपी और कमजोर नागरिक ऐसे ही खतरे का सामना कर रहे हैं. स्टेन स्वामी की मृत्यु से इस आपराधिक न्याय प्रणाली के अंतरात्मा को एक झटका लगना चाहिए ताकि वह सुधारात्मक कार्यवाही करे. यह फादर स्टेन स्वामी के प्रति एक असीम रूप से छोटा पश्चाताप होगा.

क्रूर आपराधिक न्याय प्रणाली के अंधेरे की सुबह कब?

फादर स्टेन स्वामी की दुखद मौत हमारी क्रूर आपराधिक न्याय प्रणाली की कमर को तोड़ने के लिए आखरी आहुति होनी चाहिए. क्योंकि पिछले कुछ हफ्तों में इसके बहुत सारे अत्याचारों की निंदा की गई है और इस पर आरोप लगाया गया.पिंजरा तोड़ आंदोलन के तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा "असहमतियों को दबाने की अपनी कोशिश में राज्य ने विरोध करने के अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच के अंतर की रेखा को धुंधला कर दिया है" यदि इस तरह की मानसिकता को बल मिलता है तो यह "लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन" होगा.

एक अन्य आदेश में अदालत "गंभीर रूप से चिंतित" थी कि कैसे सरकारों ने अदालत में झूठ बोलना शुरु कर दिया है."ऐसा प्रतीत होता है कि ये झूठे दावे इसलिए किए जाते हैं क्योंकि ऐसा करने पर किसी सरकारी अधिकारी की कोई जवाबदेही नहीं है... अदालतें शायद ही कभी किसी अफसर के खिलाफ कोई कार्यवाही करती हैं".
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वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह "भयानक और चिंताजनक है" कि पुलिस धारा 66A का प्रयोग कर सोशल मीडिया पोस्ट के लिए लोगों को गिरफ्तार कर रही है , बावजूद इसके कि इसे 2015 में निरस्त कर दिया गया था."इसके लिए शॉकिंग सही शब्द है, जो हो रहा है वह चिंताजनक है".

अंत में, सिस्टम की ज्यादती न्यायिक आक्रोश को ट्रिगर करती प्रतीत होती है. रात का अंधेरा अपने चरम पर है और या तो अंधेरे ने सभी अच्छाइयों को निगल लिया है, या जैसा कि कहा जाता है भोर नजदीक ही है.दरअसल गाल़िब से शब्द उधार लें तो कह सकते हैं "दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना". हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि गाल़िब की भविष्यवाणी भारत की टूटी-फूटी आपराधिक न्याय व्यवस्था के मामले में सच साबित हो जाए.

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PSU बोर्ड: नेताओं-सिविल सेवकों का रिटायरमेंट प्लान

आपराधिक न्याय प्रणाली के अलावा राज्य का दूसरा कौन सा पक्ष है जो पूरी तरह से खस्ताहाल है? भारत की विशाल और गैर-जवाबदेह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां. 21वीं सदी के अभी-अभी समाप्त हुए दूसरे दशक में भारत के सार्वजनिक उपक्रमों(PSUs) ने करदाताओं के 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान किया है- यानी आपका और मेरा पैसा. उनका बाजार मूल्य आधा हो गया है जबकि दूसरी तरफ निजी कंपनियों का स्टॉक का बाजार मूल्य दोगुना.

शायद इस दयनीय प्रदर्शन का मुख्य कारण है सरकार का दबदबा.PSU बोर्ड के सभी स्वतंत्र निदेशकों में से एक-तिहाई से अधिक सत्ताधारी दल के राजनीतिक नेता हैं. हाल के चुनाव में अधिकांश पराजित हुए हैं इसलिए उन्हें यह कार्यभार रहित पोजीशन पकड़ा दिया गया है. उनमें कोई विशेषज्ञता या विज़न नहीं है लेकिन वो कॉन्ट्रैक्ट और टेंडर को प्रभावित करते हैं. जबकि दूसरी तरफ वो उद्यम के संसाधनों का भरपूर प्रयोग करते हैं, चाहे वह कार हो ,गेस्ट हाउस हो ,या यात्रा भत्ता हो.

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लेकिन इससे पहले कि आप बीजेपी को धिक्कारें, याद रखें कि उन्होंने इस बीमारी की कहां से नकल की है. हां, कांग्रेस ने भी PSUs के बोर्डों को हारे हुए नेताओं से भरने की कला में महारत पायी थी.

अब अंदाजा लगाइए कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बोर्ड सीटों को हथियाने के मामले में कौन सा ग्रुप राजनेताओं को पीछे छोड़ देता है? आपने सही अनुमान लगाया- IAS के नेतृत्व में भारत के पवित्र सिविल सेवक. असल में कृपा प्राप्त रिटायर होकर प्रमुख रेगुलेटरी बॉडी के चीफ बन जाते हैं. फिर से रिटायर होने के बाद वो उन्हीं कंपनियों के बोर्ड में जगह पाते हैं जिन्हें उन्होंने कभी रेगुलेट किया था. अधिक मांग ऐसे अधिकारियों की है जिन्होंने आर्थिक मंत्रालयों में सेवा दी और उसके बाद नंबर आता है SEBI ( सिक्योरिटीज बोर्ड), RBI (केंद्रीय बैंक), CCI (कंपटीशन पर्यवेक्षक), IRDAI (इंश्योरेंस अथॉरिटी) जैसे रेगुलेटरी बॉडी में काम कर चुके बाबुओं की.

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भारत का 'गूगल टैक्स' ट्रेंडसेटर बना

नई-नई बहारों की तरह भारत के नीति निर्माता ग्लोबल प्रैक्टिस को फॉलो करने के बजाए नेतृत्व कर रहे हैं. हम उन्हें आधुनिक इकनॉमिक ट्रेंड को समझने और उनका उपयोग करने में शुतुरमुर्ग होने के लिए इतनी बार आलोचना करते रहें हैं कि अब जब वो वास्तव में ट्रेंडसेटर हैं तो हमें इसका जश्न मनाना चाहिए. मैं नवीनतम ग्लोबल रेगुलेशन के बारे में बात कर रहा हूं, यानी 15% का न्यूनतम कॉरपोरेट टैक्स रेट. घरेलू कंपनियों के लिए दोनों को अनिवार्य करने के मामले में भारत पहले था.

इससे भी बेहतर बात यह है कि भारत तब अलग-थलग पड़ गया था जब इसने सीमा पार डिजिटल सेल पर 'इक्वलाइजेशन लेवी' लगाया था, इसे असहमत पश्चिमी देशों द्वारा 'गूगल टैक्स' का नाम दिया गया था.लेकिन आज भारत की जीत हुई है. अब दुनिया की हर बड़ी अर्थव्यवस्था उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर टैक्स लगाएगी जो स्थानीय स्तर पर एक मिलियन यूरो से अधिक मूल्य की वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री करती है. इसके साथ भारत के 'गूगल टैक्स' को यूनिवर्सल फुटप्रिंट मिल गया. बहुत बढ़िया.

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