तीनों स्टूडेंट एक्टिविस्टों को दिल्ली हाईकोर्ट से जमानत का सबने एक आवाज में स्वागत किया. समान मत यही है कि "भारत का लोकतंत्र बच गया". लेकिन, मैं यहां विपरीत होना चाहूंगा और उसके लिए मुझे अन्यथा न लें. बेशक मुझे खुशी है कि 3 मेधावी युवा स्टूडेंट के खिलाफ बदले की कार्रवाई पर अस्थाई रूप से रोक लगा दी गई है .मुझे खुशी है कि राज्य के षड्यंत्र को “खतरनाक और जरूरत से ज्यादा कार्रवाई” बताकर सामने लाया गया. संवैधानिक विरोध को दबाने के लिए कठोर आतंकवादी कानूनों का उपयोग करने के लिए राज्य को सही तरीके से फटकार लगाई गई है. अदालत ने अपने फैसले में कठोर, तुच्छ, गंभीर और संगीन जैसे शब्दों का प्रयोग किया है.
अदालत ने उस खतरनाक तर्क को सही ढंग से नकार दिया है जिसमें सरकार ‘आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के इरादे’ जैसे स्थापित सिद्धांतों के विपरीत ‘आतंकवादी कार्यवाही में शामिल होने की संभावना’ के आधार पर आरोप लगाना चाहता है. अगर सरकार के इस तर्क को स्वीकार किया जाए, तो इस जैसे कॉलम के लेखकों सहित किसी को भी एक काल्पनिक “संभावना” के आधार पर हिरासत में लिया जा सकता है.
फैसले का सबसे प्रशंसनीय भाग वह है जो तीनों स्टूडेंट को पूरी तरह से क्लीनचिट देता है- “हमारे सामने कोई भी ऐसा विशेष आरोप या सबूत नहीं आया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि याचिकाकर्ताओं ने हिंसा के लिए उकसाया हो, आतंकवादी घटना को अंजाम दिया हो या फिर उसकी साजिश रची हो, जिससे कि UAPA लगे.”
दूसरे शब्दों में अदालत स्पष्ट रूप से कह रही है कि आरोपपत्र झूठा है. फिर इसे खारिज क्यों नहीं किया गया? फर्जी आरोप के आधार पर तीन निर्दोष स्टूडेंट को आगे भी परेशान किए जाने का रास्ता क्यों छोड़ दिया गया? उन तीनों को 50-50 हजार रुपये का बांड भरने के लिए क्यों कहा गया है? उनके साथ भगोड़ों जैसा व्यवहार क्यों किया जा रहा है, जो देश नहीं छोड़ सकते? क्या होगा अगर वह किसी फॉरेन यूनिवर्सिटी के सेमिनार में शामिल होना चाहे या वहां पढ़ाई करना चाहें? उन्हें ऐसा करने से क्यों रोका जा रहा है?
यहीं पर मैं जश्न के कोरस से अलग हो जाता हूं. क्यों हमारे सम्मानित जज सही निर्णय तो ले रहे हैं,कड़ी निंदा भी कर रहे हैं लेकिन आवश्यक कार्यवाही से दूर रह जा रहे हैं. पुलिस और विशेष अदालतों पर तीखी प्रतिक्रिया दी गई है लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं. जबकि 3 निर्दोष स्टूडेंट को 1 साल से भी अधिक समय जेल में बिताना पड़ा, अब वे विदेश यात्रा नहीं कर सकते और आगे उन्हें कई महीनों या वर्षों तक अपने केस को क्रिमिनल कोर्टों के विभिन्न स्तरों पर लड़ना होगा. भले ही उन्होंने कुछ भी गलत ना किया.
क्या यह ‘गैर-न्यायिक दंड’ का असहनीय रूप नहीं है? यदि हमारे सम्मानित जज इतने नाराज ही हैं तो वे ऐसा नियम क्यों नहीं बनाते हैं जो इस तरह के गैर-न्यायिक दंड को अवैध घोषित करे ताकि कोई भी इस ‘लक्ष्मण-रेखा’ को तोड़ने की हिम्मत न करे.
अन्यथा राज्य और पुलिस हमारी नपुंसकता पर हंस रही होगी क्योंकि उन्होंने वह हासिल कर लिया होगा जो वे चाहते थे. यानी उस अपराध के लिए सजा देना जो किया ही नहीं गया था. वह हमेशा से जानते थे कि यह एक झूठा आरोप था. उन्हें पता था कि इसमें सजा नहीं मिलेगी. यही कारण है कि वह केवल ‘गैर-न्यायिक दंड’ देना चाहते थे और उसमें वह शानदार तरीके से सफल भी रहे.
ऐसा ही कई बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के खिलाफ किया गया है. मैं विनोद दुआ, गौतम नवलखा, स्टेन स्वामी, सुधा भारद्वाज और उमर खालिद के नाम का प्रयोग केवल उदाहरण के रूप में करता हूं क्योंकि सैकड़ों, या शायद हजारों और भी हो सकते हैं जो इस अभिशाप का सामना कर रहे हैं. जब तक यह रोग ठीक नहीं हो जाता मैं जश्न के कोरस में शामिल नहीं हो सकता. हमें ‘गैर-न्यायिक दंड’ को रोकना ही होगा.
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