राहुल गांधी की दो दिक्कतें हैं. एक, राहुल गांधी गांधी परिवार से हैं. दो, राहुल गांधी कांग्रेस में हैं. अगर ये दो चीजें राहुल के साथ नहीं जुड़ी होतीं, तो राहुल की हर हार को जीत के तौर पर देखा जाता और हर जीत पर उन्हें महामानव बना दिया जाता.
कर्नाटक में चुनाव हुए. कांग्रेस बहुमत हासिल नहीं कर पायी. बीजेपी के पास भी बहुमत लायक आंकड़े नहीं थे. पर तमाम विशेषज्ञ हाथ धोकर राहुल के पीछे पड़ गए. और मोदी को देश का सबसे बड़ा तीरंदाज घोषित कर दिया गया.
मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है अगर कोई मोदी जी को बाजीगर कहता है, जो हर हार को जीत में बदल देते हैं. मैं खुद उन्हें बाजीगर कहता हूं और सबसे बड़ा तीरंदाज भी. इसमें कोई शक नहीं कि मोदी जी देश के सबसे शक्तिशाली नेता हैं. वो देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. सच स्वीकार करने में शर्म कैसी. लेकिन मुझे इस बारे में जरूर शर्म आती है, जब विशेषज्ञ ईमानदार विश्लेषण करने को तैयार नहीं होते. या नहीं करते.
मुझे ये बताने की कोई जरूरत नहीं है कि न राहुल गांधी से मुझे कोई मुहब्बत है, न ही किसी तरह का लगाव. वो देश की एक प्रमुख पार्टी के अध्यक्ष हैं और मैं एक पत्रकार, जिसका पेशा है सही तस्वीर लोगों के समाने रखना. बाकी फैसला जनता जनार्दन करे. लेकिन हर बार जब अकारण सही तस्वीर देखने की कोशिश न की जाये, तो ये सत्य के साथ आघात होता है.
आज के कर्नाटक की हकीकत ये है कि मोदी जी कर्नाटक नहीं जीत पाए. अमित शाह का दावा धरा का धरा रह गया कि बीजेपी को 130 सीटें मिलेंगी. मोदी जी को शुरू में लगा था कि वो आसानी से जीत सकते हैं. शायद इसलिये वहां प्रचार देर से शुरू किया. शुरू में सिर्फ पंद्रह सभा ही प्लान की. बाद में लगा कि मामला बिगड़ सकता है, तो छह बढ़ाकर 21 कर दी.
रैली में उनके तेवर से साफ लगा कि वो खीज रहे हैं, मन में बेचैनी है. घबराहट चेहरे पर दिखने लगी. कोई नेता जब बौखलाहट में होता है, तब वो धमकी देता है. ये कहना मामूली बात नहीं है कि कांग्रेस के लोग ये समझ लें कि मैं मोदी हूं, लेने के देने पड़ जाएंगे. वो देश के प्रधानमंत्री हैं. उनके पास अकूत ताकत है. प्रधानमंत्री को धमकी देने की जरूरत नहीं होती. उनका इशारा होता है और लोगों की किस्मत बदल जाती है. धमकी कमजोरी की निशानी है.
मोदी जी अब पहले वाले नहीं रहे
मोदी जी के समर्थकों को ये समझना होगा कि उनका देवता अब पहले वाला नहीं रहा. उनकी जादुई ताकत कम हो रही है. चमत्कारी व्यक्तित्व की दिव्यता क्षीण हो रही है. विकास करने के दावे, नया भारत रचने का सपना टूटता जा रहा है. और एक नया चेहरा सामने आ रहा है. वो चेहरा जो विकास को भूल गया है, जो हिंदू-मुसलमान के रास्ते पर देश को ले जा रहा है, जहां न कानून का सम्मान है और न ही संविधान की शपथ का जज्बा. वहां सिर्फ है शक्ति की उपासना.
ऐसे में जीत का 2014 का मंत्र कहीं गुम हो गया है. वो मंत्र, जिसने लोगों को भरोसा दिया था कि वो कांग्रेस से अलग हैं, बीजेपी के दूसरे नेताओं से अलग हैं. जो जीत का असली कारण था. पर जब वो देश को उस रास्ते पर नहीं ले जा पाए, तो सवाल तो उठेंगे. जब सवाल उठेंगे तो खीझ तो आएगी.
ईमानदारी की बात ये है कि जिस राहुल को मोदी जी ने 'पप्पू' साबित कर दिया, उसी पप्पू ने उन्हें गुजरात में नाकों चने चबवा दिए. मोदी जी की पार्टी जीती जरूर, पर वो खुद हार गए. पूरी ताकत झोंक दी, तब बड़ी मुश्किल से बहुमत का आंकड़ा पूरा हुआ. हारते-हारते जीते हैं. चमत्कारी व्यक्ति के लिए ये झटका कम नहीं होता.
गुजरात चुनावों में कांग्रेस ने तीन फीसदी वोटों का इजाफा किया और 16 सीटें बढ़ाई. ये तब हुआ जब देश का प्रधानमंत्री गुजरात से, पार्टी का अध्यक्ष गुजरात से. पिछले तीन दशकों में देश के दो सबसे शक्तिशाली नेता गुजरात से और जीत के लिये लाले पड़ जाएं, तो ये कम बड़ी बात नहीं है. और इसका क्रेडिट राहुल को न दिया जाए ये बात ठीक नहीं है.
ये सही है कि कर्नाटक में कांग्रेस को सिर्फ 78 सीटें मिलीं और बीजेपी को 104! इस आधार पर फतवा दे दिया गया कि राहुल ने पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया. अगर ये सच है तो इस बात का जवाब कौन देगा कि इसी कर्नाटक में, इसी चुनाव में कांग्रेस को बीजेपी से ज्यादा वोट पड़ें.
कांग्रेस को मिले 38% और बीजेपी को मिले 37%. इसका ये अर्थ भी तो निकाला जा सकता है कि राज्य की जनता तो कांग्रेस के साथ है. वो बीजेपी से अधिक कांग्रेस को भाव देती है. पांच साल सरकार चलने के बाद भी उसका विश्वास कांग्रेस की सरकार में है.
अब ये समस्या तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की है, जो बीजेपी को 26 सीटें ज्यादा दे देती है. जब ज्यादा लोग कांग्रेस के साथ हैं, तो ये निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि पार्टी ने लोगों का जनादेश खो दिया? उत्साह में हम अकसर ये भूल जाते है कि मोदी जी की दिव्यता अगर चरम पर थी, तो चुनाव जीतने के लिए कर्नाटक के दागी नेताओं रेड्डी भाइयों को साथ लाने की जरूरत क्यों पड़ी?
भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की वजह से पार्टी से निकाले गए येदियुरप्पा को पार्टी में लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? कांग्रेस भी तो रेड्डी भाइयों को अपनी तरफ खींचने का खेल खेल सकती थी, चुनाव जीतने के लिए. पर उसने नहीं किया. बीजेपी ने किया. इसका अर्थ साफ है कि बीजेपी को मोदी जी के करिश्मे पर यकीन नहीं था, उन्हें रेड्डी भाइयों के दाग और येदियुरप्पा के जातिगत समीकरण पर भरोसा ज्यादा था.
मोदी जी अगर इतने ही चमत्कारी थे, तो बिना रेड्डी भाइयों और येदुरप्पा को साथ लाए चुनाव लड़ कर दिखाते? दोनों को साथ लाने के बाद भी वो कांग्रेस से अधिक वोट नहीं ला पाये, बहुमत लायक 112 सीटें नहीं जीत पाए? ये कमजोरी किसकी है, ये फैसला मैं आप पर छोड़ता हूं.
गोवा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन गाज गिरी राहुल पर
गोवा में मनोहर पार्रिकर और मोदी जी की लोकप्रियता के बाद भी बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं उभरी. वहां कांग्रेस को 18 सीटें और बीजेपी को 13 सीटें मिलीं. पर गाज गिरी राहुल पर. किसी ने मोदी के बारे में बात नहीं की.
पंजाब में कांग्रेस ने बंपर बहुमत हासिल किया. पंजाब में मोदी जी की लोकप्रियता के बाद अकाली बीजेपी गठबंधन तीसरे नंबर पर आया. पर ये कहा गया कि वो जीत तो अमरिंदर सिंह की है. यानी कांग्रेस जीते तो जीत स्थानीय नेता की और हार राहुल की. मजेदार बात तो ये है कि यूपी जहां कांग्रेस का कोई अस्तित्व ही नहीं है, वहां भी हार का ठीकरा राहुल के माथे मढ़ दिया गया.
दरअसल भारत का बुद्धिजीवी वर्ग कांग्रेस विरोध के विमर्श में सांस लेता आया है. भारत के बौद्विक विमर्श पर वामपंथ और समाजवादी सोच की प्रभुसत्ता हावी रही है. वो अपनी सोच में कांग्रेस विरोधी है. पर पिछले चार सालों में देश के विमर्श में बदलाव आया है.
दक्षिणपंथी सोच ने पिछले दिनों पुराने विमर्श को तोड़कर अपनी पैठ बनाने का काम किया है. वो नया तर्क लेकर आया है. राष्ट्रवाद, देशभक्ति और हिंदुत्व इसके मूल तत्व हैं, जो सर्वहारा, सेकुलरवाद और उदारवाद से इतर है.
परंपरागत बौद्धिक वर्ग पुराने तर्क की काल-कोठरी से अभी तक नहीं निकल पाया है. वो हिंदुत्व के बरक्स नया तर्क नहीं गढ़ पाया है. ये वर्ग नेहरू गांधी परिवार का विरोध करना फैशनेबल समझता है. रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकार भी इस जड़ता से प्रभावित है.
राहुल गांधी का नेहरू गांधी परिवार से आना उनके निष्पक्ष आकलन के आड़े आता है. लोकतंत्र में परिवारवाद और वंशवाद के लिए जगह नहीं होनी चाहिए. लोकतंत्र में परिवार गौण होने चाहिए. व्यक्ति बुनियादी इकाई होना चाहिए. पश्चिम के देश इस चक्रव्यूह से निकल आए है. वहां लगभग दो सौ सालों के लोकतांत्रिक संघर्ष ने, औद्योगीकरण के विस्तार ने, शहरीकरण के प्रसार ने सामंती संस्कारों की जड़ता से समाज को निजात दिला दी है. इसलिए इन देशों में परिवार नहीं, व्यक्ति महत्वपूर्ण होते हैं, पर हमारे देश में सामंतवाद आज भी कायम है.
यही कारण है कि देश में एक भी ऐसी पार्टी नहीं है, आप को छोड़कर, जो इससे अभिशप्त नहीं है. भारत में सारी पार्टियां काफी हद तक प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई है. ये भारत की कमजोरी है.
ये सामंती सोच है, जो व्यक्ति को देवता बना देती है. लोग अपने नेता में दिव्यता खोजते हैं. ताकि उनके समक्ष खुद को पूरी तरह से समर्पित कर आजाद हो ले.
2014 के चुनाव के समय मोदी जी की आरएसएस नामक फैक्ट्री ने मोदी जी में दिव्यता का आविष्कार कर लिया. उसकी पैकेजिंग खूबसूरत तरीके से की. लोगों के मन में ये बिठाने का काम किया कि मोदी जी नहीं हार सकते. वो जीतने के लिए ही पैदा हुए हैं. इसलिए मोदी जी के समर्थक कम और भक्त ज्यादा हैं. राहुल के पास ऐसी कोई फैक्ट्री नहीं है. उन्हें कोई दिव्य नहीं मानता. और जब-जब देवता और इंसान में तुलना होगी, तो मनुष्य तो हारेगा ही. भले ही देवता हार रहा हो.
भारत का बौद्धिक वर्ग अफसोस के साथ कहना पड़ता है, वो अपनी सोच में आधुनिक नहीं है, वो बात तो उदारवाद की करता है, पर अपने आचरण में सामंती होता है. उस पर वामपंथ और समाजवाद का लबादा ओढ़े रहता है. ये विचित्र बात है. ये सोच बदलनी चाहिए.
बीजेपी और आरएसएस इसलिये कामयाब है कि सतत संघर्ष के बाद वो नया विमर्श गढ़ पाए. यहां सवाल राहुल के सही या गलत होने के आंकलन का नहीं है. यहां सवाल आरएसएस के समक्ष पुरानी जड़ता से बाहर निकल कर नए विमर्श के गठन का है. पर क्या हिंदुस्तान का बौद्धिक वर्ग इसके लिये तैयार है? फिलहाल तो अंधेरा है. आओ मिलकर उजाले का इंतजार करें.
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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