कांग्रेस ने 31 अक्टूबर को राजस्थान चुनावों (Rajasthan Assembly Elections) के लिए उम्मीदवारों की अपनी चौथी और पांचवीं सूची जारी कर दी. इन सूचियों में हर किस्म के उम्मीदवारों के नाम हैं, अनुभवी भी और युवा भी. सभी पर अशोक गहलोत के खेमे का ठप्पा है.
इन सूचियों के बाद आगामी चुनावों के लिए कांग्रेस उम्मीदवारों की कुल संख्या 151 हो गई है. बीजेपी ने अब तक 182 उम्मीदवारों की घोषणा की है. यानी कांग्रेस चाहती है कि 25 नवंबर के विधानसभा चुनावों में राज्य में सत्ता विरोधी लहर को धता बता दिया जाए.
अब तक घोषित नामों पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की छाप साफ है, जिन्होंने अपने अधिकांश समर्थकों के लिए टिकट सुनिश्चित कर दिए हैं. तीन बार के मुख्यमंत्री के रूप में उनके कद को देखते हुए, राजस्थान के लिए पूरी कांग्रेस सूची की यह खासियत है. इसके बावजूद कि उनके धुर विरोधी सचिन पायलट और पार्टी आलाकमान में कई दूसरे लोगों ने इस पर ऐतराज जताया था.
आलोचकों को रास्ता दिखाया, वफादारों की पीठ थपथपाई
चुनाव रणनीतिकार सुनील कानूगोलू के सर्वेक्षणों में जिन 50 मौजूदा विधायकों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर थी, पहले उन सभी को बाहर का रास्ता दिखाए जाने की चर्चा थी. अब उम्मीदवारों की सूचियों से पता चलता है कि विधायकों के लिए गहलोत के 'सिटिंग-गेटिंग' फॉर्मूले को प्राथमिकता मिल रही है.
अपने वफादारों को टिकट देने के अलावा, गहलोत ने अपने दो मुखर आचोलकों को भी पटखनी दे दी. ये दोनों मौजूदा विधायक थे, लेकिन उन्हें टिकट नहीं दिया और इस तरह अपना दबदबा कायम रखा. मौजूदा सूची में जिन छह विधायकों के नाम नहीं हैं, उनमें से दो हाल के वर्षों में गहलोत के बड़े कटु आलोचक रहे हैं. पहले भरत सिंह, जिन्होंने कई बार गहलोत को चुभती हुई चिट्ठियां लिखीं. खास तौर से पिछले पांच वर्षों के भ्रष्टाचार की शिकायत करते हुए. उनकी जगह इस बार सांगोद सीट से भानु प्रताप सिंह को टिकट दिया गया है.
गहलोत के मंत्रिमंडल में पूर्व कैबिनेट मंत्री भानु प्रताप सिंह को रीति-नीति वाला नेता माना जाता है. अपने काम से काम रखने वाले. इसके अलावा, खिलाड़ी लाल बैरवा, जो शायद पायलट खेमे के विधायकों में सबसे मुखर हैं, को बसेड़ी निर्वाचन क्षेत्र से हटा दिया गया है. हालांकि वह राज्य एससी आयोग के अध्यक्ष थे. बैरवा ने तुरंत इस कदम की निंदा करते हुए कहा, कि यह "सरकार बचाने का अजीब पुरस्कार" है.
जिन लोगों के नाम उम्मीदवार सूची से हटाए गए हैं, उनमें से ज्यादातर सचिन पायलट खेमे वाले हैं लेकिन उनके कई समर्थक टिकट पाने में कामयाब रहे हैं. इनमें सबसे प्रमुख नाम पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और मौजूदा विधायक दीपेंद्र सिंह शेखावत का है, जिन्हें श्रीमाधोपुर सीट पर बहाल रखा गया है.
क्या बुजुर्ग नेता, नौजवान वोटर्स पर असर डाल सकते हैं?
शेखावत उन विधायकों में शुमार थे जो 2020 में पायलट की अगुवाई वाली बगावत के समय मानेसर गए थे. अपनी सेहत का हवाला देते हुए शेखावत ने पेशकश की थी कि उनके बेटे को टिकट दिया जाए लेकिन कांग्रेस ने उन्हीं पर भरोसा जताया. उनकी उम्र 72 साल है.
शेखावत की उम्मीदवारी के साथ, यह बात साफ हो जाती है कि कांग्रेस आगामी चुनावों के लिए 70 से ज्यादा उम्र वाले नेताओं को मैदान में उतार रही है. पार्टी ने अपनी पिछली सूची में एक दर्जन से अधिक बुजुर्ग नेताओं को पहले ही नामांकित किया था. नई सूची में 84 वर्षीय अमीन खान, 82 वर्षीय दीपचंद खैरिया और 80 वर्षीय महादेव सिंह खंडेला जैसे 10 बुजुर्ग नेता शामिल हैं.
इनमें से ज्यादातर उम्रदराज नेता गहलोत की पीढ़ी के हैं और सीएम के करीबी माने जाते हैं. राजस्थान में लगभग 49 लाख नए वोटर्स हैं, और ये लोग उन्हें कितना प्रभावित कर पाएंगे, यह देखना बाकी है. गौरतलब है कि राजस्थान में नौजवान वोट कांग्रेस और बीजेपी की किस्मत का फैसला कर सकते हैं.
खुशकिस्मती से, कांग्रेस ने नई सूचियों में दो दर्जन से ज्यादा नए चेहरों को मैदान में उतारा है. इनमें सबसे ज्यादा चर्चा पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ की है, जिन्हें इस साल उदयपुर से मैदान में उतारा गया है. यह सीट बीजेपी का गढ़ रही है जहां आरएसएस के कद्दावर नेता गुलाब चंद कटारिया चुनाव लड़ते रहे हैं. लेकिन उन्हें असम का राज्यपाल बना दिया गया और अब कांग्रेस यहां फतह की तैयारी में है.
गौरव वल्लभ मशहूर अर्थशास्त्री हैं. वह कांग्रेस के आर्थिक एजेंडा पर काम करते रहे हैं और पार्टी प्रमुख मल्लिकार्जुन खरगे के करीबी माने जाते हैं. उन्होंने पीसीसी की तजुर्बेकार चीफ गिरिजा व्यास की जगह ली है, जो 2018 के चुनाव में यह सीट हार गईं थीं.
एक और नया चेहरा, 36 वर्षीय विकास चौधरी हैं जिन्हें किशनगढ़ से मैदान में उतारा गया है. वह 2018 के चुनावों में इस सीट से बीजेपी के उम्मीदवार थे, लेकिन इस बार उनकी जगह अजमेर से बीजेपी सांसद भागीरथ चौधरी को चुन लिया गया. विकास चौधरी वसुंधरा राजे के वफादार हुआ करते थे. टिकट न मिलने के बाद विकास ने बगावत कर दी, और पिछले हफ्ते झुंझुनू जिले में प्रियंका गांधी की रैली में कांग्रेस में शामिल हो गए. उम्मीदवारों की सूची में एआईसीसी के राष्ट्रीय सचिव धीरज गुर्जर का नाम शामिल है, जो 2018 में जहाजपुर से मौजूदा विधायक के रूप में हार गए थे, लेकिन उन्हें फिर से मैदान में उतारा गया है.
दिलचस्प यह है कि बीजेपी के दिवंगत दिग्गज नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह को बाड़मेर की सिवाना सीट से मैदान में उतारा गया है, हालांकि वह जैसलमेर सीट से टिकट मांग रहे थे.
वह 2018 में सबसे चर्चित उम्मीदवारों में से एक थे जब उन्होंने बीजेपी छोड़ी थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ खड़े हुए थे. कांग्रेस ने मौजूदा सूची में सात महिला उम्मीदवारों को भी मैदान में उतारा है, लेकिन उनमें से छह नए चेहरे हैं.
कांग्रेस के लिए सीमित विकल्प?
कांग्रेस ने अब 12 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है और नई सूची में तीन नाम और जोड़े गए हैं. पार्टी ने अलवर जिले की तिजारा सीट पर बीजेपी सांसद बाबा बालक नाथ को चुनौती देने के लिए इमरान खान को अपना उम्मीदवार घोषित किया है.
कुछ हफ्ते पहले, खान के नाम का ऐलान तिजारा से बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के उम्मीदवार के तौर पर किया गया था, लेकिन अब वह मौजूदा विधायक संदीप कुमार की जगह चुन लिए गए हैं.
तिजारा से बीजेपी नेता बालक नाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के करीबी माने जाते हैं. वह कट्टर हिंदूवादी नेता हैं. इमरान खान से उनकी चुनावी टक्कर इस सीट पर जबरदस्त ध्रुवीकरण पैदा कर सकती है.
गौरतलब है कि कांग्रेस भी अपने एक दर्जन से ज्यादा परास्त उम्मीदवारों को दोहरा रही है. इनमें भीमराज भाटी शामिल हैं जो पाली से पांच चुनाव हार चुके हैं, और रफीक मंडेलिया हैं जो 2013 और 2018 में दो विधानसभा चुनाव और 2014 और 2019 में दो लोकसभा चुनाव हार चुके हैं.
जब कांग्रेस दो-तीन चुनाव हार चुके लोगों को उम्मीदवार बना रही है तो सवाल उठना लाजमी है कि क्या कांग्रेस के पास कोई नया विकल्प नहीं है. जब राहुल गांधी लगातार नौजवान, नए नेताओं को तवज्जो देने की बात कर रहे हों, ऐसे में शुबहा पैदा होता है कि क्या पार्टी युवा तुर्कों के साथ सही बर्ताव कर रही है.
क्या राजस्थान में कांग्रेस है 'गहलोत कांग्रेस'
पांच सूचियों के बावजूद, कांग्रेस ने अभी तक झालरापाटन से दो बार की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है. यह सीट वह 2003 से लगातार जीत रही हैं. 2003 में सचिन पायलट की मां रमा पायलट राजे से हार गई थीं और आखिरी में चुनाव में राजे ने मानवेंद्र सिंह को हराया था. पिछले कुछ वर्षों से चर्चा है कि इस सीट पर राजे-गहलोत के बीच गुपचुप समझौता है. लेकिन अब उनका मुकाबला कौन करेगा, यह देखना दिलचस्प होगा.
मुख्यमंत्री गहलोत के तीन करीबी मंत्रियों शांति धारीवाल, महेश जोशी और आरटीडीसी चेयरमैन धर्मेंद्र राठौड़ की किस्मत पर अभी भी रहस्य बरकरार है. माना जाता है कि इन तीनों ने पिछले साल 25 सितंबर को बगावत की साजिश रची थी, जब 80 से अधिक कांग्रेस विधायक जयपुर में एक आधिकारिक विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं हुए थे. इस बैठक में एक प्रस्ताव पारित होने की उम्मीद थी, जिसके तहत तत्कालीन कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को गहलोत का उत्तराधिकारी नियुक्त करने के लिए अधिकृत किया जाना था. इसके बजाय इन विधायकों ने धारीवाल के घर पर ऐसी ही एक बैठक की.
वफादारों को टिकट बांटने के बावजूद अगर धारीवाल, जोशी और राठौड़ को टिकट नहीं दिया जाता है, तो यह गहलोत की इज्जत पर बट्टा लगाएगा. उनकी किस्मत को लेकर खींचतान ने टिकट बंटवारे के मुश्किल काम को कांग्रेस के लिए एसिड टेस्ट में बदल दिया है.
आखिरकार, राजस्थान के लिए कांग्रेस के उम्मीदवारों की सूची में मुख्यमंत्री गहलोत की गहरी छाप नजर आती है. राजनीतिक गलियारों में अफवाहें हैं कि कांग्रेस राजस्थान में 'गहलोत कांग्रेस' बन गई है.
चूंकि ज्यादातर उम्मीदवार गहलोत की पसंद के हैं. उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को कांग्रेस के लिए जीत का मंत्र माना जाता है, इसलिए राजस्थान में पार्टी की धुरी गहलोत हैं.
3 दिसंबर के नतीजों से पता चलेगा कि गहलोत की चुनावी रणनीति कितनी कामयाब होती है. फिलहाल राजस्थान में कांग्रेस के लिए गहलोत ही जादूगर हैं. लेकिन जिस चुनावी जंग में गहलोत की इज्जत और किस्मत दांव पर लगी हों, उसके लिए क्या उम्मीदवारों की बेहतरीन फौज तैयार की गई है, यह एक अलग ही सवाल है!
(लेखक एक अनुभवी पत्रकार और राजस्थान की राजनीति के विशेषज्ञ हैं. एनडीटीवी में रेजिडेंट एडिटर के रूप में काम करने के अलावा वह जयपुर में राजस्थान विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर रहे हैं. वह @rajanmahan पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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