कुछ दिनों को इतिहास में काले दिनों के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए. 17 सितंबर 2021 को राजस्थान सरकार ने बाल विवाह को रजिस्टर करने के लिए एक कानून पास किया. हां, वही कानून जिसे भारतीय संविधान एक संज्ञेय अपराध के रूप में देखता है. ऐसा लगता है कि जब पूरी दुनिया बाल विवाह की सदियों पुरानी बुराई को खत्म करने की कोशिश कर रही है, वही राजस्थान सरकार खुद को बाल विवाह के अनुकूल राज्य के रूप में पेश करने के सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है.
बाल विवाह विवाद को समझने के लिए यहां एक सरल उदाहरण है: एक व्यक्ति एक संज्ञेय अपराध करता है और सरकार से कहता है कि उसे सजा नहीं दी, जाए बल्कि उसने जो अपराध किया है उसे रजिस्टर किया जाए.
संज्ञेय अपराधों की तो बात छोड़िए, एक सामान्य अपराध जैसे किसी की संपत्ति के फर्जी दस्तावेज बनाना, केवल अपराधी के नाम पर संपत्ति का पंजीकरण करके वैध नहीं किया जा सकता है. लेकिन राजस्थान विधानसभा में पारित कानून का ठीक यही आधार है.
राज्य सरकार के तीन तर्क
ऐसा लगता है कि अशोक गहलोत सरकार को इस बात की परवाह कम ही है कि जब एक बाल विवाह रजिस्टर होता है तो क्या होता है, कई अनुचित व्यवहार (शारीरिक, मानसिक और यौन) भी वैध हो जाते हैं.
मैं एक फील्ड एक्टिविस्ट हूं और मैंने जमीन पर काफी काम किया है. मैंने सीधे बाल विवाह के पीड़ितों के साथ काम किया है और पहला व्यक्ति हूं जिसने एक बाल विवाह को अमान्य करवाया था. इसके बाद 43 बाल विवाह अमान्य करार दिए गए जिसके लिए सारथी ट्रस्ट को सात अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सम्मान से मान्यता मिली है. मैंने 1500 से ज्यादा बाल विवाह रोके हैं बाल विवाह को अमान्य कराने के मेरे मिशन को सीबीएसई के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है.
इसलिए, अपने अनुभव के आधार पर ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राज्य सरकार ने पूरी तरह से अदूरदर्शिता दिखाई है. बाल विवाह अमान्य करने के मामले में राजस्थान देश में पहले स्थान पर पहुंच गया है लेकिन इस नए विधेयक से पिछले कई सालों की उपलब्धियां बेकार हो जाएंगी.
राज्य सरकार ने इस संशोधन को पेश करने के लिए तीन तर्क दिए हैं. पहला ये कि 14 फरवरी 2006 के ट्रांसफर रिट (सिविल) में श्रीमती सीमा बनाम अश्वनी कुमार के केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक हर शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है. लेकिन गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहीं भी बाल विवाह का जिक्र नहीं किया है.
ये अलग बात है कि समाज में बाल विवाह को एक वैध विवाह के तौर पर देखा जाता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि बाल विवाह को भी रजिस्ट्रेशन में शामिल किया जाना है. अगर राजस्थान सरकार इस बारे में किसी तरह के भ्रम में थी तो वो वह स्पष्टीकरण के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती थी. लेकिन इससे बिल्कुल अलग, संशोधन को आगे ले जाने के लिए सरकार अपने ही घटिया नजरिए पर आगे बढ़ गई.
एक सर्वसत्तावादी मानसिकता
भारत एक लोकतांत्रिक देश है. किसी भी कानून के लिए, वे लोग जिनके लिए कानून होता है, मुख्य स्टेकहोल्डर बन जाते हैं. संवेदनशील कानूनों के लिए, सरकारों को, आदर्श तौर पर, जनता, सिविल सोसाइटी ग्रुप और जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से राय लेनी चाहिए जिससे वो उन अनगिनत चुनौतियों को समझ सकें जिनका सामना लोगों को करना पड़ता है. लेकिन राजस्थान सरकार ने ये जरूरी नहीं समझा. जनता की राय लेना तो बहुत दूर की बात है सरकार के कदम एक तानाशाही, ‘भारतीय तालिबान की तरह की सोच’ को दर्शाती हैं जो पीड़ितों या पीड़ितों के लिए काम करने वालों और संघर्षों की वास्तविक प्रकृति को समझने वालों पर कोई ध्यान नहीं देती है.
राज्य सरकार ने ये भी कहा है कि संशोधन के पीछे का तर्क बाल विवाह को मान्यता देना नहीं है बल्कि सिर्फ इसे रजिस्टर करना है. लेकिन सामान्य तौर पर रजिस्ट्रेशन वैधता का प्रतीक है.
सरकार ने इस तरह के संशोधन के पीछे दिए गए अपने तर्क में द्वविवाह/ बहुविवाह की रोकथाम और भरण पोषण भत्ता, उत्तराधिकार जैसे कई फायदों के विस्तार की भी बात कही है. लेकिन ये सभी लाभ पीड़ितों को बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 और अन्य योजनाओं के तहत पहले से ही मिल रहे हैं.
राजस्थान सरकार की दूसरी दलील ये है कि इस बिल के जरिए बाल विवाह रद्द करने और गुजारा भत्ता जैसे प्रावधान सरल हो जाएंगे. लेकिन ये सारे प्रावधान पहले से ही बाल विवाह के पीड़ितों के लिए उपलब्ध हैं.
दरअसल इसके उलट इस तरह का रजिस्ट्रेशन बाल विवाह अमान्य करने को और मुश्किल बना देगा. उदाहरण के तौर पर जब एक बाल विवाह पीड़िता विवाह को अमान्य कराने कोर्ट जाएगी उनसे रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट मांगाजा सकता है. अब अगर पीड़िता के माता-पिता ने पहले बाल विवाह का रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है (सजा के डर या किसी भी और कारण से) पीड़िता विवाह रद्द करने के अधिकार से वंचित रह जाएगी क्योंकि रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की अनुपस्थिति में वो केस दर्ज नहीं करा सकेगी.
कार्यालयों के चक्कर
दूसरी ओर अगर माता-पिता ने रजिस्ट्रेशन करवा भी लिया है तो सर्टिफिकेट उनके पास रहेगा. ऐसी भी स्थिति, खासकर रूढ़िवादी समाज में, बन सकती है कि जहां माता-पिता बच्चे को विवाह रद्द कराने के लिए सर्टिफिकेट ही न दें. ये सोचना मूर्खता ही है कि जो परिवार अपने बच्चों का बाल विवाह कराते हैं वो अपने परिवार की लड़कियों से ये कहेंगे : जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी.
राजस्थान में ज्यादातर बाल विवाह एक पुरानी परंपरा ‘मौसर’ के दौरान होती है जहां परिवार में किसी की मौत होने पर ननिहाल और ददिहाल के सभी बच्चों का बाल विवाह कराया जाता है. इसके अलावा, नए संशोधन के तहत माता-पिता एक चार दिन की बच्ची की भी शादी करा कर इसे 30 दिन के अंदर रजिस्टर कर सकेंगे.
ऐसी स्थिति में पीड़िता के लिए शोषण को सहन करने के साथ ये पता लगाना भी काफी मुश्किल होगा कि उसकी शादी सालों पहले कहां हुई थी और किस जगह उसका पंजीकरण कराया गया था. एक कठोर, संकुचित समाज में सालों पहले किए गए रजिस्ट्रेशन की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह, एक सरकारी दफ्तर से दूसरे सरकारी दफ्तर में चक्कर लगाना महिला के लिए कितना मुश्किल होगा, इसकी कल्पना करना कठिन है.
सिर्फ इस बात की संभावना रह जाएगी कि पीड़िता विवाह रद्द करवाने के लिए केस दर्ज नहीं करा सकेगी और 20 साल की उम्र पार करने के साथ ही अन्याय के इस चक्र में फंसी रह जाएगी जो कि बाल विवाह को रद्द करने की आयु सीमा है.
‘रिसर्च’ का एक घटिया तरीका
राजस्थान सरकार ने ये भी तर्क दिया है कि इस संशोधन से बाल विवाह पर रिसर्च और सर्वे और अच्छी तरह से किए जा सकेंगे और ये पता लगाना आसान होगा कि किस इलाके में ये प्रथा ज्यादा प्रचलित है. लेकिन ये एक बेतुका तर्क है. रिसर्च करने के कई तरीके हैं-एक संज्ञेय अपराध को रजिस्टर करना इसमें से एक नहीं होना चाहिए. कोई भी सक्षम रिसर्च एजेंसी गुप्त स्टडी के लिए पर्याप्त उपकरण प्रदान कर सकती है अगर सरकार का असली इरादा सच में बाल विवाह की बेहतर समझ हासिल करना है.
लेकिन सच्चाई ये है कि ये विधेयक जाति पंचों (समाज के नेताओं), जो काफी लोकप्रिय हैं और जिनकी वोटों पर काफी पकड़ है, को खुश करने के सिर्फ राजनीतिक कदम है, एक बहुत ही अच्छा राजनीतिक कदम.
ज्यादातर मामलों में जब एक लड़का या लड़की अपनी शादी के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो जाति पंच उन्हें और उनके परिवार को समाज से बहिष्कृत कर देते हैं और उन पर आर्थकि जुर्माना भी लगाया जाता है. एक तरीके से इन्हीं जाति पंचों के कारण राजस्थान में बाल विवाह का अभिशाप जारी है.
राजस्थान सरकार के दोहरे मापदंड अब उजागर हो गए हैं. एक तरफ ये सुरक्षा, विकास और महिला सशक्तिकरण के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करती है लेकिन दूसरी तरफ ये न केवल बाल विवाह को तहत दुर्व्यवहार और शोषण को बढ़ावा देती है बल्कि वैध भी बनाती है.
‘बाल विवाह मुक्त’ राजस्थान से कोसों दूर
सरकार के कदम ने विरोधाभास की गहरी खाई खोद दी है. बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 में कहा गया है कि बाल विवाह एक संज्ञेय और दंडनीय अपराध है. लेकिन नया विधेयक इस संज्ञेय अपराध को वैधता प्रदान करता है. अब तक हम बाल विवाह के पीड़ितों को ये कहते थे कि अगर कोई उनकी मदद करने के लिए नहीं है और मजबूरी में उन्हें बाल विवाह करना पड़ रहा है तो उन्हें एक सरकारी कर्मचारी को खबर करनी चाहिए. लेकिन अब से सरकार के इन दो विभागों की जिम्मेदारी अलग-अलग होंगी.
हम भूल जाते हैं कि बाल विवाह के रजिस्ट्रेशन के साथ ही हम बाल विवाह से जुड़े कुछ मुद्दों-यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, बच्चों कीतस्करी को भी वैधता प्रदान कर रहे हैं. एक ऐसे समाज में, जिसकी परंपरा पितृसत्ता में निहित है, ऐसे मामले अब और बढ़ने वाले हैं. “वो मेरी पत्नी है और मैं उसके साथ कुछ भी कर सकता हूं क्योंकि मैं उसका पति हूं” हमारे समाज में ऐसा कहने वाले कई लोग मिल जाएंगे.
ये विधेयक कानूनी, सामाजिक और नैतिक तौर पर शर्मनाक है.
2016 में राजस्थान सरकार ने बाल विवाह रोकने के लिए एक मुहिम की शुरु की थी. इसका नारा था “बाल विवाह मुक्त राजस्थान हमारा”. आज ये बिल उस नारे को “बाल विवाह युक्त राजस्थान हमारा में बदल सकता है.”
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