2019 में चुनावी नतीजों के बाद से मीडिया और राजनैतिक गलियारों में यह चर्चा आम थी कि कांग्रेस पार्टी का भविष्य क्या है. जब इसी साल पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से पल्ला छुड़ाया और अब सचिन पायलट उन्हीं के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं तो यह सवाल फिर से खड़ा हो उठा है. दिल्ली का मीडिया इन घटनाक्रमों के लिए राहुल गांधी को दोषी ठहरा रहा है और उन्हें सलाह दे रहा है कि वह किसी और को अपनी जिम्मेदारी सौंप दें. लेकिन यह सब कुछ इतना आसान नहीं है.
लेकिन असल बात यह है कि न सिर्फ कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही है, बल्कि देश की आम जनता ने पूरे विपक्ष को नकार दिया है. चाहे वह कैडर आधारित बीएसपी और वामपंथी हों या जातीय दबदबे वाली समाजवादी पार्टी और आरजेडी जैसी पार्टियां. यहां तक कि मास अपील वाली टीएमसी और आम आदमी पार्टी भी कमजोर पड़ रही हैं. सभी के जनाधार में सेंध लगी है. क्या राहुल गांधी इन पार्टियों की दुर्दशा के लिए भी जिम्मेदार हैं?
मौजूदा संकट को किन्हीं व्यक्तियों के गुणों और दोषों से जोड़कर देखने की बजाय, हमें इस वक्त नए सिरे से सोचना होगा.
नेटफ्लिक्स से समझिए मौजूदा राजनीतिक संकट की वजह
मौजूदा राजनीतिक संकट को समझने के लिए नेटफ्लिक्स की सीरीज ‘The Last Czars’ देखी जा सकती है. इसमें दिखाया गया है कि कैसे रूस के आखिरी सम्राट का पतन हुआ. शो इस बात पर जोर देता है कि उसके पतन का एक बड़ा कारण यह था कि अच्छा होने के बावजूद वह बेतैयार (नाइस येट अनप्रिपेयर्ड किंग) था और बराबर गलतियां कर रहा था.
उसकी सबसे बड़ी गलती यह थी कि वो समाज से कटा हुआ था. रूस में तेजी से सामाजिक बदलाव हो रहे थे, औद्योगिकीकरण चरम पर था और ऐसा वर्किंग क्लास तैयार हो रहा था जिसमें क्रांति की बीज पनप रही थी लेकिन राजा का उससे कोई सरोकार नहीं था. वह अपनी हठ पर कायम था और देश के संकट को खत्म करने की कोई सफल कोशिश नहीं कर रहा था.
भोपाल के चुनावों को नजदीक से देखकर आप बहुत कुछ समझ सकते हैं. आप समझ सकते हैं कि किस तरह जनता के बीच क्रांति को रोकने के लिए संगठित प्रयास किए जा रहे हैं. समाज की आधारभूत संरचना में पिछले दशकों में जो बदलाव हुए हैं, यह उसी का नतीजा है. चुनावी नतीजे उन्हीं बदलावों का प्रतिफल हैं.
जब तक हम यह स्वीकार नहीं करेंगे कि बदलाव हुए हैं और लोकतांत्रिक राजनीति की नए सिरे से व्याख्या करने की जरूरत है, तब तक विपक्ष का भविष्य धुंधला ही रहेगा.
सड़क पर धावा बोलने वाले संसद पर काबिज
कांग्रेस में राहुल गांधी बागडोर संभालते, इससे पहले हिंदुत्व भारत में अपना असर जमा चुका था. जिन ताकतों ने मौजूदा सरकार को सत्ता सौंपी, वे बाबरी मस्जिद के टूटने के साथ ही गतिशील हो गई थीं. कांग्रेस ने आगे बढ़कर उनका विरोध नहीं किया.
प्रतिरोध सिर्फ दो उत्तर भारतीय राज्यों से हुआ- जहां की राजनीति जाति के आधार पर बंटी हुई थी, लेकिन 2014 में भगवा आंधी ने विरोध के स्वरों को धीमा कर दिया.
1992 में जिन्होंने सड़कों पर धावा बोला था, 2014 में वे संसद में पहुंच गए.
एक सेक्युलर-लिबरल आवाम को तैयार करने का काम किसी ने नहीं किया. यह महत्वपूर्ण काम देश की राजधानी में रहने वाले इलीट क्लास के जिम्मे छोड़ दिया गया. यह क्लास बड़े-बड़े लेक्चर हॉल्स में भारत की अनेकता में एकता की संस्कृति के सपनीले गीत गाता रहा. दूसरी तरफ देश में चुपके चुपके हिंदुत्व अपने पैर जमाता रहा.
भारत में बाजार अर्थव्यवस्था और विश्व स्तर पर अमेरिका में 9/11 हमले के बाद हिंदु धर्म में जातीयकरण ने जोर पकड़ा. बाजारीकरण के तीन असर हुए- पहला, मंडल आयोग की समर्थक पार्टियों के मतदाताओं को सरकारी नौकरियां मिलीं, तो पार्टियों की संरक्षण देने की क्षमता प्रभावित हुई. उनके लिए पिछड़ी जातियों की पहचान को पुख्ता करने और अपने जनाधार को मजबूत बनाए रखना मुश्किल हुआ.
दूसरा असर यह हुआ कि मध्यम वर्ग में समाजवाद को नकारने का सैद्धांतिक आधार तैयार हुआ- वे इस बात के विरोध में नजर आए कि संसाधनों को सभी के बीच समान रूप से बांटे जाए. सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ कि कॉरपोरेट जगत ने मीडिया और चुनावी प्रक्रिया को पूरी तरह से हथिया लिया. मानो, खेल के सारे नियम बदल गए. धनबल के साथ सत्तानशीं लोगों की ताकत की भूख बढ़ती गई. बेशक, महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश तक में सत्ताधारी पार्टी ने लोकतांत्रिक नैतिकता को धता बताया.
9/11 के बाद हिंदुत्व का नेरेटिव तैयार किया गया जिसमें बताया गया कि हर मुसलमान राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है. इस नेरेटिव में मुसलमान ‘दूसरे’ हैं और जब तक निर्दोष साबित नहीं कर दिए जाते, वह अपराधी ही समझा जाते हैं. हमारे कथित धर्मनिरपेक्ष समाज में पहले ही अनगनित कमियां थीं, अब तो उसकी धज्जियां ही उड़ गईं.
एक ऐसी राजनीति की जरूरत, जहां सभी संस्कृतियां साझा हों
आधुनिक राजनीतिक दलों को राजशाही की तरह हिंसक तरीके से उखाड़कर नहीं फेंका जा सकता. न ही वे सिरे से नदारद हो सकती हैं. उनका नाश धीरे-धीरे होता है, कई बार वे किनारे लगा दी जाती हैं, कई बार प्रासंगिक ही नहीं रहतीं. पिछले तीन दशकों के दौरान भारत में हिंदुत्व ने सबसे तेज जन अभियान के जरिए अपनी जगह बनाई है. दूसरी तरफ बाकि सभी पार्टियां बेहाल और बेसुध हैं. वे पार्टियां जिनका जन्म ही जन आंदोलनों से हुआ था. आज ये मास बेस्ड पार्टियां तो हैं, लेकिन मास मूवमेंट गायब है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि बीजेपी को चुनावी मैदान में ही शिकस्त दी जा सकती है, लेकिन इससे हिंदुत्व को हराया नहीं जा सकता. कांग्रेस आभिजात्य नेताओं वाली पार्टी थी, जोकि अब तहस नहस हो रही है. सिंधिया और पायलट के बागी तेवर इसकी मिसाल हैं.
अब कांग्रेस को तभी नया जीवन मिल सकता है कि जब वह किन्हीं आदर्शों को लेकर चले.
जो लोग भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाना चाहते हैं, उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ करने पर विचार करना चाहिए जिसका आधार जनहित हो. हक और पारदर्शिता पर आधारित एक नई समाजवादी राजनीति जिसमें आपस में बंदरबांट की प्रवृत्ति न हो. अलग-अलग संस्कृतियों के परस्पर संवाद का खुलापन हो, जहां देश की राजधानी में अंहकार से भरा इलीट वर्ग सारे देश के लिए फैसले न करे. नए भारत की परिकल्पना के लिए नए सिद्धांतों को गढ़ने की जरूरत है, वरना यह सिर्फ जातिगत विद्वेष की प्रयोगशाला ही बना रहेगा.
राहुल गांधी की आलोचना करते रहिए, लेकिन नेतृत्व बदल देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आने वाले समय में कांग्रेस विपक्ष में ज्यादा वक्त गुजारेगी, ऐसी उम्मीद है, और जिनकी राजनीति सत्ता में रहकर फली-फूली है, अपनी जिम्मेदारी से भागते रहेंगे. जिन्होंने लंबी दौड़ की तैयारी की है, वही यहां मौजूद रहेंगे, और संघर्ष करेंगे.
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