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Ram Mandir: धर्मनिरपेक्षता के खंडहर पर खड़े राम मंदिर में हिंदू राष्ट्रवाद का गौरव

अयोध्या में नए मंदिर का उद्घाटन इस लम्हे को हिंदुओं के लिए अंतिम जीत के रूप में दर्शाता है.

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क्या हिंदू देख सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर (Ram Temple) के उद्घाटन के जश्न में वे दयनीय रूप से अकेले हैं? कोई भी दूसरा समुदाय– न तो मुस्लिम, न ही ईसाई, न ही सिख– उस खुशी में हिस्सेदार नहीं है, जो वे महीने भर से जाहिर कर रहे हैं कि उन्होंने उसी जगह पर राम की मूर्ति स्थापित करने का काम पूरा कर लिया, जहां कभी बाबरी मस्जिद थी.

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मेरे मुस्लिम जानकारों ने बताया कि फैमिली ग्रुप में घर के अंदर रहने, सफर से बचने और सबके बीच हिंदुओं के साथ बहस नहीं करने के मैसेज बांटे जा रहे हैं. मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया कि उनकी बेटी इस बात से खुश थी कि सोमवार, 22 जनवरी को छुट्टी है. लेकिन इसने उन्हें बचपन में एक और छुट्टी की दर्दनाक याद ताजा कर दी, जब वह खुश नहीं थे.

6 दिसंबर 1992 को जब उन्हें स्कूल न जाने के लिए कहा गया. उन्होंने मुझे अयोध्या मंदिर के उद्घाटन पर अपने घर के आसपास की रोशनी की तस्वीरें भेजीं. उन्होंने मुझे अयोध्या में राम के आगमन का ऐलान करने वाली बाइक रैलियों के वीडियो भी साझा किए.

मैंने उनसे पूछा कि क्या वे लोग हिंसक थे. “नहीं,” उनका जवाब था, “लेकिन जब वे किसी मुस्लिम निशानी या मुसलमानों की मौजूदगी को देखते हैं तो उनका जोश बढ़ जाता है और यह हमारे लिए काफी परेशानी पैदा करने वाला हो सकता है!”

राम मंदिर का हिंदू आंदोलन

मंदिर बनाने के लिए बाबरी मस्जिद को गिराने के दो दशक लंबे आंदोलन की मुझे याद आई. लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में चले आंदोलन के जयकारे राम की भक्ति से ज्यादा मुसलमान विरोधी थे.

पूरे भारत में दीवारों पर मुसलमानों को गाली देने वाले नारे देखे जा सकते थे. यह ‘मुस्लिम-विरोधी’ नफरत बुनियादी तौर पर बाबरी मस्जिद को हटाकर राम के जन्मस्थान को “मुक्त” करने के आंदोलन की देन थी.

वक्त बदल चुका है. अब मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा बदलकर मंदिर वहीं बनाया है, हो गया है. हिंदू जिसे वादा मानते हैं, उसे धमकी समझा जाता है. दरअसल, हिंदुओं ने अपने देवताओं को याद करना दूसरों को डराने-धमकाने में तब्दील कर दिया है.

मैं दुनिया के सभी धर्मों के बारे में सोचता हूं, तो पाता हूं कि यह सिर्फ हिंदू, या “संघी हिंदू” हैं, जो अपने देवताओं को याद कर खुश नहीं होते, बल्कि दूसरे धर्मों के लोगों को “जय श्री राम” का नारा लगाने को मजबूर करने में ज्यादा खुशी पाते हैं.

यह हिंदुओं के बदलते मिजाज से मिलता है कि भारत के सभी मंदिरों में अयोध्या में नया राम मंदिर अब सबसे ऊंचा स्थान रखता है.

क्या इसलिए कि इसे बाबरी मस्जिद को तोड़कर उसकी जमीन पर बनाया गया है? मुसलमानों से छीनी गई इस जमीन पर राम की पूजा करने का “आध्यात्मिक” आनंद ही अलग है. इसीलिए इस मंदिर के सामने अयोध्या या भारत के बाकी सभी राम मंदिर फीके हैं. उनकी प्राचीनता कोई मायने नहीं रखती; न ही यह बात मायने रखती है कि वे हमारे पूर्वजों के पूजनीय थे.

हिंदुत्ववादियों के लिए जीत का लम्हा

राम मंदिर के उद्घाटन का मतलब यह भी है कि हिंदू धर्म, जिस नाम से यह खुद को पुकारता है, का अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी में विलय हो गया है. वही इसके सबसे बड़े संरक्षक और व्याख्याकार हैं. हिंदू धर्म अब उनके और उनकी सत्ता के अधीन है.

इस नए राम मंदिर के लिए रास्ता बनाने को इमारतों को तोड़ा या हटाया जा सकता है. आखिरकार यह मंदिर दूसरे मंदिरों से अलग, मुसलमानों पर हिंदू शक्ति की जीत का प्रतीक है.
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यह चार दशकों तक चले एक लंबे अभियान के बाद हासिल हुआ है, जिसमें सरकार के सभी संस्थानों की भागीदारी थी. मीडिया, प्रिंट और विजुअल, दोनों ने हिंदुओं को पीड़ित दिखाने में खास भूमिका निभाई, जिससे हिंदुओं को जीत कर उबरना था. यह मुसलमानों के हाथों अपने पूर्वजों की हार का बदला था.

अयोध्या में नए मंदिर का उद्घाटन इस लम्हे को हिंदुओं की अंतिम जीत के तौर पर पेश करता है, जैसा कि RSS ने उन्हें समझाया और मीडिया ने उनके दिमाग में ठूंसा.

इसमें कोई शक नहीं है कि बाबरी मस्जिद की जमीन पर बन रहे राम मंदिर का उद्घाटन हिंदुत्व के लिए सर्वोच्चता के एहसास का लम्हा है. कहा जा सकता है कि हिंदुओं में वैष्णवों और शैवों या कृष्ण भक्तों और राम भक्तों के बीच के सभी क्षेत्रीय बंटवारे को एक ऐसा हिंदू तैयार करने के लिए मिटा दिया गया है, जो नवनिर्मित मंदिर में भगवान राम के अभिषेक के इस समय का हिंदुओं के लिए ‘सबसे खास लम्हे’ के तौर पर जश्न मनाता है.

दावा किया सकता है कि जाति विभाजन भी खत्म हो गया है. यह लम्हा सभी जातियों और सभी वर्गों के हिंदुओं का है.

इस मामले में कौन सी चीज हिंदुओं को सर्वोच्च बनाती है?

लेकिन यह भी सच है कि जीत के इस लम्हे में, इस हिंदू धर्म ने खुद को दूसरे धर्मों के मानने वालों से अलग कर लिया है क्योंकि यह दूसरे सभी को अपने अधीन रहने के लिए कहता है, क्योंकि वह उनके साथ बराबरी से नहीं रहना चाहता है. यह खुद को सार्वभौमिक दिखाना चाहता है, मगर खुद को स्थानीय रूप रूप से परिभाषित करता है.

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इसकी श्रेष्ठता का इकलौता दावा उन लोगों की संख्या है जो इस मत से जुड़े होने का दावा करते हैं. संख्याओं के इसी तर्क ने राम मंदिर को संभव बनाया. शायद बहुमत को संतुष्ट करने का दबाव था.

एक और वजह थी. बार-बार हिंसा की कार्रवाई से हिंदुओं ने साफ कर दिया था कि वे हर हाल में जमीन हासिल करना चाहते हैं, और उन्होंने इस पर अपना दावा भी साबित किया. इस बात ने उनके पक्ष में काम किया.

अगर कोई धर्म सिर्फ इसलिए श्रेष्ठता का दावा करता है क्योंकि उसके मानने वाले ज्यादा संख्या में हैं या उनके पास दूसरों की मुकाबले ज्यादा ताकत है, तो कोई भी समझ सकता है कि वह कहां पहुंच गया है.

राम मंदिर की कीमत मुसलमानों ने चुकाई

मस्जिद को तोड़े बिना मंदिर बनना मुमकिन नहीं था. तोड़ने से पहले इसमें गुप्त रूप से देवताओं की मूर्तियां रखकर इस पर कब्जा करने की कोशिश की गई थी. तोड़ने से पहले, जिस आंदोलन ने इस मंदिर को हिंदू आकांक्षा का केंद्र बनाया, वह अपनी बनावट में बिना शक ‘मुस्लिम विरोधी’ था.

मंदिर निर्माण के आंदोलन ने हजारों मुसलमानों की जिंदगियों को तबाह कर दिया. जब भी इस मंदिर की कहानी बताई जाएगी तो इससे पैदा हुए अपराध की हकीकत से मुंह मोड़ना आसान नहीं होगा. जबरन छीनने और हिंसा की ये हरकतें उस हिंदू धर्म को परिभाषित करती हैं, जिसका यह मंदिर प्रतिनिधित्व करता है.

इस हिंदुत्व की सूरत नफरत और परपीड़ा के आनंद से बदसूरत हो गई है. वह हिंदुत्व जो इस राम मंदिर आंदोलन के दिमाग की उपज है, अब दूसरों को तकलीफ पहुंचाए बिना अपना जश्न नहीं मना सकता.
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हमने पिछले दो दशकों में देखा है कि अब सभी हिंदू त्योहार दूसरे धर्मों के लोगों को आतंकित करने का औजार बन गए हैं. यह बहुत तकलीफदेह है कि हिंदू त्योहार आने पर दूसरे धर्मों के लोग अपनी सुरक्षा के उपाय करने लगते हैं. हिंदू धर्म का यह ब्रांड दूसरों को पास बुलाने के बजाय दूर भगाता है और अलग-थलग कर देता है.

इसलिए हिंदू जब अयोध्या में मंदिर के निर्माण का जश्न मना रहे हैं, तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या वे दूसरे धर्मों के लिए एक उदाहरण पेश कर रहे हैं. क्या यह ऐसा उदाहरण है जिसका दूसरों को भी अनुसरण करना चाहिए?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. उनका एक्स हैंडल है @Apoorvanand__. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)

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