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क्या मायने रखता है वर्तमान निर्दयी दौर में लोहिया का नहीं होना

लोहियावादी समाजवाद में यकीन रखने वाले सियासी दल भी राम मनोहर लोहिया को याद करते हैं

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डॉ राम मनोहर लोहिया का आज जन्मदिन है, आज ही के दिन 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेजी सरकार ने फांसी दी थी, इसलिए लोहिया अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे. लेकिन उन्हें चाहने वाले आज के दिन उनको याद करना नहीं भूलते.

लोहियावादी समाजवाद में यकीन रखने वाले सियासी दल भी उन्हें याद करते हैं और अक्सर यह ऐलान करते हैं कि जब तक सभी तरह कि असमानता खत्म नहीं हो जाती और समता का सपना पूरा नहीं होता वो संघर्ष जारी रखेंगे. आखिर समता है क्या? असमानता के खिलाफ संघर्ष के क्या मायने हैं?

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क्या यह मुमकिन है कि ऐसे समाज और देश का निर्माण हो सके जिसमें समता सिर्फ संविधान के पन्नों पर दर्ज औपचारिकता बन कर न रह जाए, बल्कि सत्ता और समाज के आचरण में, उनकी आत्मा में स्थायी भाव बन जाए? आज के वातावरण को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि बराबरी का लक्ष्य हासिल करना पूरी तरह मुमकिन है. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है. वह यह कि पूरे विश्व में असमानता के खिलाफ संघर्ष चल रहा है.

लोहिया चाहते थे कि यह संघर्ष तेज हो और ऐसा करने में समाजवादी विचारधारा के लोग अपनी बड़ी भूमिका निभाएं. मगर ऐसा नहीं हुआ. लोहिया कांग्रेसियों के चरित्र के बारे में जो कहते थे, वही चरित्र उनके अनुयायियों का हो गया. उनके अनुयायियों ने अमीरी और गरीबी की खाई को कम करने की जगह, एन-केन-प्रकारेण सम्पत्ति अर्जित की और फिर अमीरों की पांत में जाकर बैठ गए. ये सभी बराबरी-बराबरी चिल्लाते रहे और सत्ता के लिए एक भ्रामक जाल बुनकर खुद गैरबराबरी के पर्याय बन गए.

आप इसे लोहियावादी समाजवादियों पर लगाया गया आरोप मत समझियेगा. यह सच्चाई है. मजबूत सच्चाई. इस सच्चाई को समझने और महसूस करने के लिए आपको लोहिया का लिखा और कहा पढ़ना-सुनना होगा.

भारत को समझना है तो महात्मा गांधी और लोहिया को पढ़ना चाहिए

वह समाजवादी पथ से भटकाव को लेकर सदा सशंकित रहे और जब तक जीवित थे, इस भटकाव को रोकने का प्रयास करते रहे. उनके जाने के कुछ समय बाद पूरी धारा ही एक अलग दिशा में मुड़ गई. क्यों मुड़ गई, कैसे मुड़ गई - इस पर फिर कभी चर्चा होगी. आज लोहिया के विचारों और व्यक्तित्व पर थोड़ी चर्चा हो जाए तो सही रहेगा. यह चर्चा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बीती दो शताब्दियों में भारत को जिन लोगों ने बेहतर तरीके से समझा उसमें दो नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं. पहला महात्मा गांधी और दूसरा डॉ लोहिया.

इन दोनों ने भारत को उसकी पूरी व्यापकता में समझा. भारत की महानता, जटिलता, सुंदरता, कुरुपता, कुंठा और अपराध सभी को पूरी व्यापकता में समझा. जब आप चीजों को पूरी व्यापकता में समझ लेते हैं तो नफरत खत्म हो जाती है. यही वजह है कि गांधी और लोहिया में एक समानता नजर आती है. उनमें आपको भौतिक चीजों के प्रति जरा भी मोह नहीं दिखेगा.

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संपत्ति अर्जित करने की प्रवृति नहीं दिखेगी. उनकी बातों में कभी-कभी कुछ चीजों को लेकर नाराजगी भले दिखे, लेकिन नफरत नहीं दिखेगी. इसलिए अगर किसी को भारत को समझना है तो उसे महात्मा गांधी और लोहिया को पढ़ना चाहिए. बार-बार पढ़ना चाहिए. इससे दिल और दिमाग पर पड़े ताले खुल जाएंगे. आप भी उनके कुछ विचारों पर नजर डालिए और यह ध्यान रखियेगा कि उनका निधन 12 अक्टूबर, 1967 को हुआ था. मतलब यह सब बातें कम से कम 50-70 साल पहले की हैं. इन्हें पढ़ते वक्त यह सोचिएगा कि क्या हालात बेहतर हुए हैं या फिर बदतर?

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सप्तक्रांति का लक्ष्य

डॉ लोहिया ने जो समाजवादी रास्ता चुना था उसका उन्होंने लक्ष्य भी निर्धारित किया था. वो मानते थे कि आधुनिक युग मानव इतिहास का “सबसे बेरहम युग है, बिल्कुल निर्दयी.” इस युग ने दो-दो विश्वयुद्ध देखे. लाखों-करोड़ों लोगों का नरसंहार देखा. साम्प्रदायिक दंगे देखे, अकाल देखा, लेकिन नकारात्मकता से भरे इस युग का एक सकारात्मक पहलू भी है. वह यह कि इस युग में सात क्रांतियां साथ-साथ चल रही हैं. ये सात क्रांतियां हैं:

स्नैपशॉट

1) अमीरी-गरीबी के भेद के खिलाफ यानी वर्ग विहीन समाज के लिए संघर्ष

2) जातिगत व्यवस्था के विनाश की क्रांति यानी जाति विहीन समाज की स्थापना

3) अंतरराष्ट्रीय गैर-बराबरी का खात्मा यानी विकसित देशों और तीसरी दुनिया के देशों में जो गैर-बराबरी है उसे समाप्त करना

4) रंगभेद खत्म करने की क्रांति. काला-गोरा का भेद खत्म करना

5) स्त्री-पुरुष को समान अधिकार

6) निजी जीवन में सत्ता का दखल खत्म करना और

7) हथियार मुक्त दुनिया बनाने का संघर्ष

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सत्ता: भोग-विलास का जरिया नहीं, बदलाव का माध्यम

डॉ लोहिया मानते थे कि समाजवादियों को भारत में भी इन सातों क्रांतियों का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए. इनके लिए अवसर बनाना चाहिए और संघर्ष करना चाहिए. लोहिया की नजर में सत्ता ऐसा समाज बनाने को औजार है, जिसमें गैर-बराबरी नहीं हो. उनके हिसाब से सत्ता का उद्देश्य भोग-विलास नहीं बल्कि जनकल्याण होना चाहिए. उन्होंने अपने जीवन में कोई संपत्ति अर्जित नहीं की.

“राम मनोहर लोहिया रचनावली” में मस्तराम कपूर ने भूमिका लिखते वक्त बताया है कि लोहिया जब सांसद थे, तो उनके लिए एक गाड़ी खरीदने की योजना बनी. लेकिन उन्होंने इससे इनकार कर दिया. संसद के भीतर और बाहर वो नेताओं के शुद्ध आचरण पर जोर देते रहे.

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से उनके विरोध की एक बड़ी वजह यह थी कि नेहरू की सरकार भोग-विलास में लिप्त थी. प्रधानमंत्री और मंत्रियों के रहन-सहन पर होने वाले अधिक खर्च को भी वह जनता के पैसे की बर्बादी मानते थे. उनका मानना था कि जिस देश में गरीबी हो, भूख हो, असमानता हो वहां के नेता अगर जनता के पैसे से अपनी अय्याशियों का सामान जुटाएंगे और भोग-विलास का जीवन जीएंगे तो आने वाली पीढ़ियां भी यही रास्ता अपनाएंगी, फिर समाज का क्या होगा? वह तीखा हमला करते हैं.

कहते हैं कि “केवल उन्हीं (पंडित नेहरू) के खर्च का सवाल रहता तो हम इसे (फिजुलखर्ची के मुद्दे को) उठाते ही नहीं और एक बूढ़े आदमी को उसके अंतिम दिनों के लालच के लिए हमने क्षमा कर दिया होता. लेकिन इसका असर बहुत गहरा और फैला हुआ है. प्रधानमंत्री हिंदुस्तान के झूठे सिद्धांतवादियों का मुखिया भी है और साथ ही इसके मुनाफाखोरों और तथाकथित निर्माताओं का राजकुमार भी. हिंदुस्तान का पूंजीवाद नौकरशाही और व्यवसाय का मिला-जुला रूप है. मिस्टर नेहरू नौकरशाही को प्रेरणा देने वाले नायक हैं.”

कितना तीखा प्रहार है यह. इसी संदर्भ में वो एक अन्य जगह पर लिखते हैं कि “जब किसी राष्ट्र को विदेशी सहायता पर जीना पड़ता है और उचित कृषि-उत्पादन नहीं होता तो मंत्रिमंडल के सदस्यों पर होने वाला करोड़ों रुपये का खर्च किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता. यह आबादी के ऊपर के एक प्रतिशत तबके द्वारा सबसे बड़ा हिस्सा खा जाने का उदाहरण है…. ये सुविधाएं उस आदमी को भ्रष्ट करती हैं जो इस स्वर्ग में पहुंच जाता है. यहां पहुंचना ही बड़ी उपलब्धि माना जाता है.

तब वह भूल जाता है कि उसे गरीब जनता ने इस पद पर बिठाया है.” लोहिया चाहते थे कि नेता आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन में सुधार लाने के बारे में सोचें. देश के सबसे गरीब तबके की स्थिति में सुधार के लिए उन्होंने घोषणापत्र में लिखा है कि “सोशलिस्ट पार्टी ऐसी नीतियां बनाएगी और कदम उठाएगी जो आमदनी की वर्तमान गैरबराबरी को 1 और 10 के अनुपात में ले आए.” उनके मुताबिक समाजवाद की असली परिभाषा दो शब्दों में नीहित है. “समता और संपन्नता”. समता के बगैर समाज में संपन्नता नहीं आ सकती. इसलिए सारी लड़ाई समता स्थापित करने के लिए होने चाहिए. समता व्यापक संदर्भों में, हर क्षेत्र में.

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गांधी का स्वराज और सत्याग्रह

डॉ लोहिया खुद को “कुजात गांधीवादी” कहते थे. उनके मुताबिक गांधी के शिष्य तीन तरह के हैं. एक सरकार में शामिल गांधीवादी मतलब पंडित नेहरू और डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग. दूसरे गांधी के नाम पर चलने वाली संस्थाओं में शामिल गांधीवादी मतलब विनोबा भावे जैसे लोग और तीसरे कुजात गांधीवादी मतलब खुद उनके जैसे लोग. लोहिया के मुताबिक बाकी दोनों गांधीवादियों में कोई संभावना शेष नहीं रह गई है.

संभावनाएं कुजात गांधीवादियों से हैं जो बदलाव के लिए लड़ रहे हैं. अपने-अपने क्षेत्र में बदलाव की जमीन तैयार कर रहे हैं. भविष्य में देश को उम्मीद इन्हीं कुजात गांधीवादियों से करनी चाहिए. लोहिया मानते थे कि गांधी के तीन सिद्धांत दुनिया को रोशनी देंगे. पहला सिद्धांत है एक बार में एक कदम का सिद्धांत. ये जीवन दर्शन है.

लोहिया के मुताबिक गांधी ने प्रयोग के जरिये यह दिखाया है कि वो एक साथ में लाखों लोगों को अपने साथ लेते हुए एक के बाद एक सीढ़ियां चढ़ते हुए मंजिल की ओर आगे बढ़ सकते हैं. इस सिद्धांत के जरिए दुनिया से बुराइयों का नाश किया जा सकता है. दूसरा स्वराज का सपना. लोहिया के मुताबिक आजाद हिंदुस्तान की पहली सरकार ने महात्मा गांधी के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात यही किया था कि स्वराज के जिस सपने के लिए गांधी ने लड़ाई लड़ी उसे ही भुला दिया. स्वराज की परिकल्पना को संविधान में जगह नहीं दी गई थी.

वह लिखते हैं कि “कोई भी विद्यार्थी भारत के संविधान को पढ़कर यह देख सकता है कि 392 अनुच्छेदों में से केवल एक अनुच्छेद में यह कहा गया है कि ग्राम शासन जरूरी है. यह क्या है कैसे बनेगा इसके पास क्या अधिकार होंगे इसका कुछ उल्लेख नहीं. ग्राम स्वराज्य या ग्राम शासन को मात्र समारोह की वस्तु बनाया गया और भी काम पूरा होने के बाद सूझे विचार के रूप में.”

महात्मा गांधी के औजार “सत्याग्रह” को वो दुनिया का सबसे कारगर हथियार मानते थे. उनके मुताबिक अगर हथियार रहित विश्व बनाना है तो शोषण के विरुद्ध और मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए, न्यायप्रिय समाज की स्थापना के लिए कोई न कोई ऐसा सशक्त हथियार होना चाहिए जिसका जरुरत पड़ने पर इस्तेमाल किया जा सके. डॉ लोहिया के मुताबिक सत्याग्रह ही वह हथियार हैं जो गांधी इस विश्व को देकर गए हैं. दुनिया के कई मुल्कों में शोषण के विरुद्ध लोग सत्याग्रह कर रहे हैं और खुद ब्रिटेन में भी लोग इसकी अहमियत समझ रहे हैं. यह अहिंसक आंदोलन है और इसमें इतनी ताकत है कि बड़े से बड़े तंत्र को हिलाकर रख दे. महात्मा गांधी ने इसी हथियार से भारत को आजादी दिलाई थी.

सत्याग्रह क्या है? यह जानने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

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धर्म लंबे पैमाने की राजनीति और राजनीति छोटे पैमाने का धर्म

डॉ लोहिया साम्प्रदायिक हिंसा के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों को दोषी मानते थे. उनके मुताबिक समाज की परवरिश की गलत की गई है. हिंदू और मुसलमानों की जड़ों में अविश्वास का जहर घोला गया है. यह काम किसी और ने नहीं किया है बल्कि खुद दोनों समुदायों के पढ़े लिखे लोगों ने किया है. वह लिखते हैं “मजहब और सियासत का रिश्ता ठीक तरह से अभी तक समझा नहीं गया है. हमारी बिरादरी ने भी नहीं समझा.

शायद उन लोगों ने भी नहीं समझा जो खुदा और ईश्वर को बहुत अहमियत देते हैं. असल में दोनों का रिश्ता है. खाली हमारी तरफ से जब यह कह दिया जाता है कि समाज और राज (सरकार) से मजहब का कोई ताल्लुक नहीं रहना चाहिए तो यह बात पूरी नहीं हो जाती. पूरी बात करने के लिए अब यह समझना होगा कि धर्म तो है लंबे पैमाने की राजनीति और राजनीति है छोटे पैमाने का धर्म. इनको और ज्यादा सोचें तो इस तरह से चलेगा कि मजहब का काम है कि वह अच्छाई करे और राजनीति का काम है बुराई से लड़े. ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.

” लोहिया का मानना है कि धर्म की बात करते हुए अतीत के नायकों का चयन करते वक्त सावधान रहना चाहिए. “कुछ ठोस बातों की तरफ मैं ध्यान खींचना चाहता हूं. कुछ को छोड़ कर, ज्यादातर हिंदू यह सोचते हैं कि अपने मुल्क में आज का मुसलमान, नादिरशाह, तैमूरलंग, गजनी-गोरी के लिए जिम्मेदार है.

जब तक उसके दिमाग में यह बात धंसी हुई है, तब तक वह मुसलमानों को अपना भाई नहीं समझ सकता. यह है मोटी बात. इसको पकड़ो. इसके साथ-साथ मुसलमान दिमाग में भी खराबी है. आम तौर से मुसलमान सोचता है कि वह तो तैमूरलंग, नादिरशाह और गजनी-गोरी की औलाद है, अगर ये न आते तो वो होता कहां से.” यह चुनौती आज भी बनी हुई है.

जो लोग भी धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई लड़ रहे हैं उन्हें सोचना होगा कि हिंदू-मुसलमान की सोच में बुनियादी बदलाव लाए बगैर क्या एकता हो सकती है? जिन रिश्तों में सदियों की गांठें पड़ी हों, उन गांठों को खोले बगैर एकता कहां से होगी? लेकिन सबसे बड़ी बात तो यही है कि क्या हम लोग वाकई इन कठोर सवालों पर विचार करने के लिए तैयार हैं? क्या आप तैयार हैं?

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