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मोदी,पटेल,पैसा: सरदार के नाम और उर्जित के RBI की पावर पॉलिटिक्स

सरदार को जहां राजनीतिक हिंदुत्व से लड़ना पड़ा था, वहीं उर्जित को आर्थिक हिंदुत्व का सामना करना पड़ रहा है

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पिछले हफ्ते दो बड़ी खबरें आईं. दोनों में एक जैसे इंग्रेडिएंट्स थे, फर्क था तो एक मामूली‘t’ का. एक खबर Statue यानी मूर्ति से जुड़ी थी, तो दूसरी Statute यानी कानून या विधान से. इन दोनों के केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. पहली खबर में उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने का 6 साल पुराना वादा पूरा किया था.

182 मीटर ऊंची इस मूर्ति के जरिये देश के स्वतंत्रता आंदोलन के आइकन सरदार पटेल को सलामी दी गई थी. दूसरी खबर जो कहीं बड़ी थी, उसमें मोदी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) को सर्जिकल स्ट्राइक की चेतावनी दी थी. दोनों खबरों के केंद्र में पटेल भी थे, एक में सरदार तो दूसरे में आरबीआई गवर्नर (उर्जित पटेल).

सरदार आरएसएस को पसंद नहीं करते थे. वह उसके धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से आशंकित थे. महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था. दूसरी में आरबीआई गवर्नर पटेल को आरएसएस का पुरातन अर्थशास्त्र हजम नहीं हो रहा था, जिसकी झलक संघ के विचारक एस गुरुमूर्ति ने पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के बारे में दिए गए बयान दिखाई थी. गुरुमूर्ति ने कहा था,‘रघुराम राजन ने वैश्विक सोच का पिछलग्गू बनकर आरबीआई की स्वायत्तता बर्बाद कर दी. रिजर्व बैंक के पास भारत के लिए सोचने की क्षमता नहीं बची है.’

बदकिस्मती से यह बाहरी शख्स की बड़बड़ाहट नहीं रह गई. इसके कुछ ही समय बाद एक सम्मानित कमर्शियल बैंकर को बेअदबी से निकालकर गुरुमूर्ति को आरबीआई के बोर्ड में घुसा दिया गया. जिस तरह से 70 साल पहले सरदार को आरएसएस पर अंकुश लगाना पड़ा था, उसी तरह से गवर्नर पटेल को अपने ही घर में हिंदुत्व (आर्थिक नीति) से संघर्ष करना पड़ रहा है.

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दोनों ही खबरों से बड़ी रकम भी जुड़ी है. एक में 95 हजार टन के कंस्ट्रक्शन मैटीरियल को पिघलाने, सांचे में ढालने के लिए 3,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ी तो दूसरे में चुनाव जीतने की खातिर दिल खोलकर खर्च कर रही मोदी सरकार की नजर 3 लाख करोड़ के सरप्लस पर थी, जिसे कई दशक के मुनाफे से जमा किया गया है.

सरकार चाहती थी कि जीडीपी के 2 पर्सेंट के बराबर की रकम रिजर्व बैंक उसे गिफ्ट कर दे, भले ही इससे उसकी बैलेंस शीट तबाह हो जाए. यह भुला दिया गया कि केंद्रीय बैंक से 7 अरब डॉलर का कैश लेने के बाद अर्जेंटीना का क्या हश्र हुआ.

जाने-माने अर्थशास्त्रियों की सलाह की अनदेखी की गई, जिन्होंने कहा कि देश के चालू खाता घाटे की समस्या की वजह से आरबीआई की बैलेंस शीट मजबूत होनी चाहिए. नोटबंदी से मोदी जो नोट हासिल नहीं कर पाए, वह उसकी भरपाई रिजर्व बैंक से करना चाहते थे.

बेगुनाह छोटे‘t’ के अंतर का असर

Statue अगर महंगी भी हो तो वह अच्छाई का प्रतीक बन सकती है, लेकिन Statute न्यूक्लियर बटन की तरह है. देश का संविधान बनाने वालों ने ‘नो फर्स्ट यूज’ डॉक्ट्रिन के साथ उसे तैयार किया था, इस उम्मीद के साथ कि इसके इस्तेमाल की नौबत ना आए. इसे इमरजेंसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है.

आरबीआई कानून की धारा 7 सरकार को किसी भी मुद्दे पर केंद्रीय बैंक को विमर्श थोपने का अधिकार देती है. इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन इस धारा में यह भी कहा गया है कि सरकार अपनी बात मानने के लिए आरबीआई को मजबूर कर सकती है.

यह इतना घातक है कि आज तक किसी भी सरकार ने इसका इस्तेमाल नहीं किया. ना ही इसका प्रयोग अकाल (1965) या युद्ध (1965 और 1971) या देश के दिवालिया (1991) होने की कगार पर पहुंचने या वैश्विक मंदी (2008) के दौरान किया गया.

अगर इस धारा का इस्तेमाल यूं ही किया जाने लगा तो इससे इकोनॉमिक गवर्नेंस का बुनियादी सिद्धांत ही धराशायी हो जाएगा. इस सिद्धांत के तहत केंद्रीय बैंक देशहित में लॉन्ग टर्म मॉनेटरी पॉलिसी बनाता है. वह अस्थायी, झूठे फील गुड फैक्टर के लिए सरकार के तुगलकी फरमानों के सामने हथियार नहीं डालता.

एक मुश्किल चुनाव से कुछ महीने पहले तो बिल्कुल भी नहीं, जब सरकार सत्ताविरोधी लहर कम करने के लिए उसका इस्तेमाल करना चाहती हो.

मोदी सरकार और आरबीआई का झगड़ा

मोदी सरकार और गवर्नर पटेल के बीच किन बातों को लेकर विवाद है, आइए उन पर पूरी निष्पक्षता के साथ एक-एक करके नजर डालते हैं.

डिविडेंड पॉलिसी पर सहमतिः शायद आरबीआई को पिछले साल 66 हजार करोड़ के बजट अनुमान के बजाय डिविडेंड घटाकर 30 हजार करोड़ नहीं करना चाहिए था, जिससे सरकार को झटका लगा था. अब उसे इस संकट का इस्तेमाल डिविडेंड/सरप्लस पर टकराव खत्म करने के लिए करना चाहिए. इसके लिए डिविडेंड पॉलिसी पर सहमति बनाई जा सकती है और उसकी खातिर आरबीआई के रिजर्व का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

एक दिन के डिफॉल्ट पर प्रोविजनिंगः सरकार और कई बैंकरों ने कहा है कि आरबीआई की यह पॉलिसी सख्त है और इस पर अमल आसान नहीं है. हालांकि, देश में दशकों से लोन को एवर ग्रीन करने का खेल चलता आया है. इसे देखते हुए शायद आरबीआई की यह पॉलिसी गलत नहीं है. सरकार की बिजली कंपनियों को इस शर्त से बचाने की कोशिश से उसकी नीयत पर सवाल खड़े होते हैं. इससे यह भी पता चलता है कि वह आलसी है. आखिर बिजली क्षेत्र में सुधार करना सरकार की समस्या है, रिजर्व बैंक की नहीं.

पब्लिक सेक्टर के बैंकों (पीएसबी) का रेगुलेशनः इस मामले में भी आरबीआई का पक्ष मजबूत है. सरकार के नियंत्रण वाले पीएसबी में से ज्यादातर की हालत खराब है. इनमें से कुछ के बोर्ड और समितियों में आरबीआई का नाममात्र का प्रतिनिधित्व है. जरा याद करिए कि प्रधानमंत्री ने कैसे कहा था कि‘यूपीए के मंत्रियों के फोन कॉल्स’ ने ‘पीएसबी को बर्बाद’ कर दिया था. फिर मोदी सरकार पीएसबी के कामकाज के उसी ढांचे को क्यों बचा रही है? मोदी पब्लिक सेक्टर के बैंकों का कंट्रोल आरबीआई को उसी तरह क्यों नहीं दे रहे, जैसे निजी क्षेत्र के बैंकों का रेगुलेशन उसके हाथों में है?

प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए):पीसीए जैसा सिस्टम अमेरिका और यूरोप में भी है. वहां के रेगुलेटर्स 2008 वित्तीय संकट के बाद से सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थानों का स्ट्रेस टेस्ट लेते आए हैं. पीसीए में करीब आधे सरकारी बैंकों और एक प्राइवेट बैंक को डाला गया है. इससे इन बैंकों के तब तक कर्ज देने पर रोक लग गई है, जब तक कि उनकी बैलेंस शीट की हालत ठीक नहीं हो जाती. इससे करीब 20 पर्सेंट कर्ज नहीं बांटा जा रहा है.

सरकार का मानना है कि इससे अर्थव्यवस्था पर बुरा असर हो रहा है और ग्रोथ तेज नहीं हो पा रही. इस मामले में भी आरबीआई की बात सही है. वह कमजोर बैंकों को मनमाना कर्ज बांटने की छूट नहीं दे सकता, जिससे समूचा वित्तीय क्षेत्र मुश्किल में फंस जाए. पब्लिक सेक्टर के बैंकों का नियंत्रण सरकार के पास है. इसलिए फंडिंग बढ़ाकर उन्हें मजबूत करने की जिम्मेदारी सरकार की है.

पेमेंट रेगुलेटर: सरकार पेमेंट और सेटलमेंट सिस्टम के लिए अलग रेगुलेटर बनाना चाहती है. रिजर्व बैंक इसे अपने अधिकार क्षेत्र पर हमला मान रहा है, जो सही है.

इसके अलावा कई और मुद्दों पर दोनों के बीच टकराव है, लेकिन जिन मामलों को लेकर बड़े मतभेद हैं, उनका जिक्र ऊपर किया जा चुका है. इन पांच में से चार में रिजर्व बैंक का पक्ष मजबूत है.

छठा गोपनीय विवाद सबसे घातक

अब मुझे एक गोपनीय छठा मतभेद भी दिख रहा है, जो शायद सबसे घातक साबित हो. इस स्पष्ट करने के लिए मैं एक बार फिर से एस गुरुमूर्ति के बयान पर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘आरबीआई कानून कहता है कि रिजर्व बैंक का मैनेजमेंट बोर्ड की जिम्मेदारी है. गवर्नर और डिप्टी गवर्नर बोर्ड के निर्देशों के मुताबिक मैनेजमेंट पावर का इस्तेमाल करना होगा.’

मैं चाहता हूं कि मैं गलत साबित होऊं, लेकिन मुझे इस बयान में पावर बढ़ाने का एक खेल दिख रहा है. अभी आरबीआई बोर्ड की भूमिका मैनेजमेंट और एडमिनिस्ट्रेशन तक सीमित है, जिसे पॉलिसी की निगरानी तक ले जाने की कोशिश हो रही है. इसमें आरबीआई गवर्नर को बोर्ड का‘एक और सदस्य’ बनाने की मंशा है, जैसा कि किसी पब्लिक कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर का होता है.

यह ईशनिंदा है! इसका जोरदार विरोध होना चाहिए. आरबीआई बोर्ड का काम पॉलिसी बनाना या उसे अप्रूव करना नहीं है. यह जिम्मेदारी रिजर्व बैंक के गवर्नर और मॉनेटरी पॉलिसी कमेटी (एमपीसी) को दी गई है.

चूंकि आरएसएस के एक ताकतवर विचारक अलग ही ढपली बजा रहे हैं, इसलिए हमें चौकन्ना रहना होगा. यह सुनिश्चित करना होगा कि 19 नवंबर की आरबीआई बोर्ड की मीटिंग में कोई दुस्साहस या नाइंसाफी ना हो.

इसलिए गवर्नर पटेल आप डटे रहिए. आप सरकार से बात करते रहिए और उसकी जो बात ठीक लगती हो, उस पर अमल करिए. आपको हार नहीं माननी है, ना ही इस्तीफा देना है. यह वक्त संस्थान की पवित्रता को बनाए रखने का है. आप अडिग रहिए. और कृपया इस ट्वीट का जवाब तो बिल्कुल भी मत दीजिएगा क्योंकि यह स्कूली बच्चों की सोशल मीडिया पर तकरार नहीं है.

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