पिछले चार साल में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) को लेकर खबरों की भरमार रही है. पहले रघुराम राजन और उनके बाद उर्जित पटेल का सरकार के साथ लगातार टकराव बना रहा. इस लिहाज से 2014-2018 का वक्त अप्रत्याशित है.
आरबीआई और सरकार का रिश्ता ही ऐसा है कि उनके बीच टकराव होना लाजिमी है और समय-समय पर यह बढ़ जाता है.
इससे वो तीन सवाल सामने आते हैं, जिन्हें मैं पिछले पांच साल से उठा रहा हूं. पहला सवाल यह है कि क्यों आरबीआई को सरकार के अधीन होना चाहिए? दूसरा, अगर रिजर्व बैंक को इससे ऐतराज नहीं है, तो सरकार के निर्देश देने पर वह शिकायत क्यों करता है? आखिर, आप दोनों हाथ में लड्डू नहीं रख सकते. मेरा तीसरा सवाल यह है कि आरबीआई का फिर से निजीकरण क्यों न कर दिया जाए?
जरा सोचिए, आखिर सरकार के तहत रिजर्व बैंक के रहने का क्या फायदा है? बैंक ऑफ इंग्लैंड 1694 और 1946 के बीच निजी हाथों में था, तब भी उसका कामकाज अच्छा था. वैसे यह बात भी सही है कि तब उसके पर कतर दिए गए थे.
इधर, भारत में हाल के वर्षों में सरकार के नियंत्रण से आरबीआई को काफी हद तक मुक्त रखने के लिए गवर्नर को एक तरह से तानाशाह जैसी शक्तियां दे दी गई थीं. न जाने किस वजह से रघुराम राजन यह ताकत छोड़कर ब्याज दरें तय करने का काम एक समिति के सुपुर्द करने को तैयार हो गए. ऐसी समिति, जिसके आधे सदस्य सरकार चुनती है. इसका नतीजा वही हुआ, जैसा कि अमिताभ बच्चन ने फिल्म 'शहंशाह' में कहा था, ‘कन्फ्यूजन तो है....’
इस समस्या को तीन तरीके से सुलझाया जा सकता है. पहला, ब्याज दर तय करने वाली मॉनेटरी पॉलिसी समिति को भंग कर दिया जाए और ‘गवर्नर ही बादशाह है’ के पिछले सिस्टम की तरफ लौट जाया जाए. दूसरा तरीका यह है कि 1,000 मेंबर रखे जाएं. इससे हमेशा सही रिजल्ट मिलेगा. तीसरा रास्ता रिजर्व बैंक को फिर से प्राइवेटाइज करने का है, जिसका मैं प्रस्ताव रख रहा हूं.
जब आरबीआई को निजी क्षेत्र कंट्रोल करेगा या जिसके पास प्राइवेट शेयरहोल्डर्स का एक बोर्ड होगा, वह आखिर सरकार के नियंत्रण वाले केंद्रीय बैंक से ज्यादा गलत फैसले कैसे कर सकता है. हमारे पास इस मामले में पिछले 60 साल का तजुर्बा भी है.
जब भी कर्ज लेने की बात आती है, सरकार आम नागरिक जैसा बर्ताव करती है. वह सबसे कम ब्याज दरें चाहती है. किसी भी एंटिटी की तुलना में सरकार बहुत अधिक कर्ज लेती है.
जब केंद्रीय बैंक पर उसका नियंत्रण होगा, तब इसी वजह से वह ब्याज दरों को कम से कम रखने की कोशिश करेगी. इसलिए ‘प्राइस ऑफ मनी’ हमेशा गलत होगा, जिसका खामियाजा सभी नागरिकों को भुगतना पड़ेगा. नेशनलाइज्ड सेंट्रल बैंक के लिए हम यह कीमत चुका रहे हैं.
आप यह सवाल कर सकते हैं कि आखिर निजी हाथों में रिजर्व बैंक के होने पर ‘प्राइस ऑफ मनी’ के सही होने की क्या गारंटी है? यह गलत सवाल है. सही सवाल यह होगा कि अगर देश के सबसे बड़े कर्जदार के हाथों में आरबीआई का नियंत्रण नहीं होगा, तो वह ऐसी गलती कितनी बार करेगा?
इसका पता लगाने के लिए आपको बैंक ऑफ इंग्लैंड का इतिहास पढ़ना चाहिए. आप देखेंगे कि जब तक उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ था, तब तक उसने शानदार काम किया था. नेशनलाइजेशन के बाद क्या हुआ, इसका जवाब हम सब जानते हैं. क्यों जानते हैं न आप!
खैर, कोई भी रिजर्व बैंक के फिर से निजीकरण के बारे में नहीं सोच रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि इस पर विचार करना चाहिए. कम से कम एकेडमिक दिलचस्पी की वजह से आरबीआई को फिर से प्राइवेटाइज करने के नतीजों पर तीन साल के एक प्रोजेक्ट को मंजूरी दी जानी चाहिए और इसकी कमान राजन और पटेल के हाथों में दी जाए.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)