हमें पौराणिक कहानियों की जरूरत क्यों है.
क्या वे एक सभ्यता को इतिहास में उसकी जगह दिखाने में मदद करती हैं? क्या वे एक संस्कृति को ये बताने में मदद करती हैं कि उसे किन बातों से डर है और कौन सी बातें उसकी खूबी हैं? क्या वे जिद्दी बच्चों को सुलाने के लिए आसान कहानियों के रूप में आपकी मदद करती हैं?
हां, ये सब काम पौराणिक कहानियां हमारे लिए करती हैं, पर इनके अलावा ये कहानियां लोगों के विचारों को बदलने और उन्हें किसी खास विचारधारा की ओर मोड़ने का भी काम करती है. क्योंकि इन कहानियों को मौखिक रूप से सुनाया जाता है, और ऐसे में इनके मनचाहे प्रस्तुतिकरण से यह काम आसानी से किया जा सकता है.
इसी तर्ज पर हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के बारे में बात करते हैं.
RSS में बहुत पुराने समय से लोकप्रिय जन नेताओं को अपने प्रोपेगेंडा के लिए इस्तेमाल करने की पुरानी परंपरा है. चाहे वो भीमराव अंबेडकर के बारे में नए सिरे से बात कर उनकी और नेहरू की विदेश नीति की आलोचना पर जोर देना हो या फिर किताबें लिखकर क्राइस्ट को तमिल हिंदू बताना, RSS ने यह सब किया है. आज महाराजा सुहेलदेव की जयंती है. इन्हें भी राजनीति की साजिश का शिकार होना पड़ा.
सुहेलदेव, उत्तर प्रदेश में श्रावस्ती के अर्ध पौराणिक भारतीय राजा थे. कहा जाता है कि 11वीं शताब्दी में इन्होंने गजनी के सेनापति गाजी सैय्यद मसूद को मार दिया था. मसूद को उस समय बहराइच में दफनाया गया था. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह राजा सुहालदेव को सम्मान देने के लिए आज बहराइच भी पहुंचे.
सुहेलदेव ही क्यों?
महाराजा सुहेलदेव इतिहास और कल्पना के बीच की शख्सियत हैं. उनका एकमात्र वर्णन फारसी में लिखे ऐतिहासिक उपन्यास ‘मिरात-ए-मसूदी’ में मिलता है. बाकी ऐतिहासिक किताबें उनके नाम पर अलग-अलग मत रखती हैं. उन्हें सकरदेव, सुहीरध्वज, सुहरीदिल, सुहरीदलध्वज, राय सुह्रिद देव, सुसज से लेकर सुहारदल तक लिखा है. उनकी जाति या धर्म पर और भी विविधताएं हैं.
पर आखिर में एक बात साफ है कि एक हिंदुओं से मिलते जुलते नाम वाला एक राजा, जिसकी व्यक्तिगत पहचान के बारे में ज्यादा कुछ साफ नहीं है, और जिसने एक मुसलमान आक्रमणकारी को हराया था, वह बीजेपी के इस्तेमाल के लिए तैयार है.
रंग दे तू मोहे गेरुआ
1940 में बहराइच के एक आर्य समाजी स्कूली शिक्षक ने एक लंबी कविता लिखी जिसमें सुहेलदेव को एक ऐसे जैन राजा के रूप में दिखाया गया था, जिसने हिंदू संस्कृति की रक्षा की. विभाजन से पहले क्षेत्र में मशहूर इस कविता को 1950 में पहली बार तब छापा गया जब आर्य समाज, राम राज्य परिषद और हिंदू महासभा ने सालार मसूद की दरगाह पर सुहालदेव के सम्मान में एक मेला लगाने की योजना बनाई. दरगाह कमेटी के एक सदस्य ने जिला प्रशासन से ऐसे किसी मेले को अनुमति न देने की प्रार्थना भी की थी, ताकि सांप्रदायिक तनाव से बचा जा सके.
उसके बाद धारा 144 के अंतर्गत इस मेले को न लगाने के आदेश जारी किए गए. इस धारा के अंतर्गत गैर-कानूनी ढंग से एक जगह इकट्ठा होना अपराध है. क्षेत्रीय हिंदुओं के एक समूह ने इस आदेश के खिलाफ रैली निकाली. उन्हें दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. और इस गिरफ्तारी के विरोध में हिंदुओं ने एक सप्ताह के लिए क्षेत्रीय बाजार को बंद कर दिया. कांग्रेस नेता इस विरोध में शामिल हो गए. करीब 2,000 लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. पर अंत में प्रशासन को अपने आदेशों को वापस लेना पड़ा. उस आंदोलन की वजह से, आज भी सुहेलदेव की याद में हर साल वहां मेला लगता है. यही नहीं, वहां 500 बीघे में फैला हुआ मंदिर भी बना दिया गया है.
RSS और बीजेपी का प्रवेश
1950 और 1960 के दशक में, क्षेत्रीय नेताओं ने राजा सुहेलदेव से राजनीतिक सेवा लेते हुए उन्हें एक पासी राजा के तौर पर दिखाना शुरु किया ताकि वे पासियों के वोट हासिल कर सकें. पासी एक दलित समुदाय है और बहराइच का बड़ा वोट बैंक भी है. 1980 के दशक की शुरुआत में BJP-RSS-VHP ने भी इस भेड़चाल में शामिल होते हुए सुहेलदेव को ऐसे हिंदू दलित के रूप में मशहूर करना शुरू किया जिसने मुसलमान आक्रमणकारियों से देश को बचाया था. उन्हें गायों का रक्षक, संतों के रखवाले और हिंदू धर्म के सहायक के रूप में दिखाया जाने लगा.
बहराइच की लड़ाई की एक ऐसी ही कहानी में सुनाया जाता है कि सालार मसूद ने अपनी सेना के आगे गायों को रखने की योजना बनाई ताकि सुहेलदेव उन पर वार न कर सके, लेकिन सुहेलदेव को पहले ही इस योजना का पता चल जाता है और वे लड़ाई से पहले की रात, उन गायों की रस्सी काट कर उन्हें आजाद कर देते हैं.
2001 में हिंदू राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं ने ‘महाराजा सुहालदेव सेवा समिति’ बनाई, जो अब तक सुहेलदेव की याद में लगातार कार्यक्रम आयोजित करती रही है.
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