राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख (Rashtriya Swayamsevak Sangh Chief) सरसंघचालक मोहन भागवत गाहे बगाहे अखंड भारत का सपना दिखाते रहते हैं. हाल ही में एक बार फिर RSS चीफ मोहन भागवत ने अखंड भारत को लेकर कुछ ऐसा कहा है कि वे सुर्खियों में हैं. भागवत ने कहा है कि ''20-25 साल में भारत अखंड भारत होगा. लेकिन सब मिलकर इस दिशा में प्रयास करें तो 10-15 साल में अखंड भारत बन जाएगा." उन्होंने यह भी कहा कि 'भारत लगातार प्रगति पथ पर बढ़ रहा है. इसे रोकने वाला कोई नहीं है और जो इसके रास्ते में आएगा वो मिट जाएगा.'
इससे पहले भी भागवत ने अखंड भारत की बात करते हुए कहा था कि देश ने विभाजन का जो दंश झेला है उस 'दर्द' को दूर करने का एकमात्र उपाय या इलाज 'विभाजन के पूर्व की स्थिति' है. उनका यह बयान अखंड भारत की अवधारणा में संगठन के लगभग एक सदी लंबे विश्वास की पुष्टि करता है. हालांकि यह बात अलग है कि उन्होंने वास्तविक मंशा को छिपाने के लिए इस भावना को अलग शब्दों में व्यक्त किया.
दृढ़तापूर्ण तरीके से दिया गया भागवत का यह बयान कूटनीतिक रूप से अनुपयुक्त है, खासतौर पर ऐसे समय में जब दक्षिण एशिया में उथल-पुथल मची हुई है और इस्लामाबाद के साथ नई दिल्ली के अपने संबंध उलझे हुए हैं. भागवत का यह बयान दर्शाता है कि वे आरएसएस के मूल सिद्धांत जो 1920 के दशक में संघ के संस्थापक सदस्यों द्वारा तैयार किए थे उससे बिल्कुल भी अलग नहीं हुए हैं.
वाजपेयी के विपरीत भागवत समय पर अटके हुए हैं
उल्लेखनीय तौर पर बतौर प्रधान मंत्री फरवरी 1999 में अपने कार्यकाल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर यात्रा की थी. उस यात्रा के दौरान उन्होंने विभाजन को सुधारने यानी कि विभाजन से पहले जैसी स्थिति को फिर से लाने के विचार को छोड़ दिया. उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की प्रतीक मीनार-ए-पाकिस्तान का दौरा करके प्रतीकात्मक रूप से ऐसा किया. "सहयोग की एक ठोस संरचना" बनाने का संकल्प लेते हुए उन्होंने भरोसा और विश्वास को विकसित करने का एक दूरदर्शी दृष्टिकोण भी रखा.
लेकिन विभाजन को लेकर भागवत के विचारों और भारतीय उप-महाद्वीप के विभाजन को एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया के रूप में नहीं स्वीकारने से पता चलता है कि वह (भागवत) अभी भी पुराने खांचे में फंसे हुए हैं. इसके साथ ही यह इस बात को दर्शाता है कि हाल के वर्षों में आरएसएस का एक 'उदार चेहरा' दिखाने का प्रयास (धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को अधिक गले लगाना) वास्तविक उद्देश्यों को छिपाने के लिए एक चाल का छोटा सा हिस्सा था.
2018 में नई दिल्ली में बेहतर तरीके से प्रचारित और राजनीतिक रूप से कोरियोग्राफ की गई लेक्चर सीरीज के बाद से उन्होंने (भागवत) बार-बार कहा कि एक हिंदू राष्ट्र मुसलमानों के बाहर निकालने की कल्पना नहीं करता है.
मोहन भागवत विभाजन को लेकर खुद को क्यों रोकते हैं?
अखंड भारत पर उनके बयानों के पीछे की असली वजह सामने आई है कि यदि मुसलमानों को बाहर किया गया तो हिंदुत्व नहीं होगा. 'विभाजन को निरस्त करना ही है' पर मोहन भागवत दृढ़ निश्चय के साथ डटे हुए हैं. अगर कभी विभाजन के पूर्व की तस्वीर वास्तविकता में आती है तब एक ऐसी स्थिति बनेगी जब पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक फैले क्षेत्रों को भारत के पाले में मिलाया जाएगा. जहां 'एकीकृत' देश में मुस्लिम आबादी वर्तमान की तुलना में आनुपातिक रूप से अधिक हो जाएगी.
कोई भी इतना सहज नहीं होगा कि वह इस बात पर विश्वास कर सके कि विभाजन को उलट दिया जा सकता है और आरएसएस अचानक डेमोग्राफिक संतुलन में एक बड़े बदलाव के लिए आदर्श रूप से तैयार हो जाएगा, क्योंकि प्रभाव निश्चित रूप से बीजेपी के चुनावी भाग्य पर पड़ेगा.
लेकिन फिर भी इसके दूसरी ओर भागवत हिंदुत्व समर्थकों की आकांक्षाओं को जिंदा रखते हैं क्योंकि यह क्षेत्रीय भव्यता की भावना को बढ़ावा देता है.
उल्लेखनीय है कि 2009 में अपने पूर्ववर्ती केएस सुदर्शन से आरएसएस प्रमुख का पदभार संभालने के तुरंत बाद भागवत ने उन्हीं (सुदर्शन) के जैसे विचारों को और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था.
"अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत, नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका को मिलाकर एक 'अखंड भारत' का निर्माण किया जाएगा." जैसे विचार पर विश्वास व्यक्त करने के अलावा उन्होंने यह भी कहा कि न केवल भारतीय बल्कि अन्य देशों के लोग भी भारत का हिस्सा बनना चाहते हैं.
दिसंबर 2009 में भागवत ने एक सेमिनार में सवाल करते हुए कहा था कि 'अखंड भारत पाकिस्तान में रहने वालों की खुशी के लिए भी है, क्योंकि विभाजन के बाद वे अनिश्चितता के बीच में हैं. इसी तरह, अफगानिस्तान में कंधार की स्थिति क्या है?'
उन्होंने आरएसएस के इस जुमले को भी बरकरार रखा कि इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेता, विशेष रूप से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू, भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे.
विभाजन के लिए लगातार कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराना
भागवत यह बात दावे के साथ कहते हैं कि विभाजन के दौरान भारतीय नेताओं में इसे रोकने के लिए दूरदृष्टि, साहस या दृढ़ विश्वास नहीं था. साहसपूर्वक उन्होंने तर्क दिया कि उस समय के कांग्रेसी नेता आम सहमति पर पहुंचने के लिए अंग्रेजों से अतिरिक्त समय का अनुरोध करके विभाजन को कुछ महीनों या एक साल के लिए टालने का प्रयास कर सकते थे.
RSS ने हमेशा यह तर्क दिया है कि विभाजन को टाला जा सकता था, क्योंकि एमए जिन्ना की कुछ महीनों में ही मृत्यु हो गई थी और नेहरू की ओर से सत्ता हासिल करने की जल्दबाजी थी जिसके परिणामस्वरूप भारत एक छोटा क्षेत्र बन गया. दिसंबर 2009 के बाद से अब तक विभाजन और अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के मुद्दों पर भागवत के विचारों में बहुत कम विकास हुआ है.
पहले भी उन्होंने सभी अल्पसंख्यकों को हिंदू वंशज के रूप में संदर्भित किया था और कहा था कि "यहां कोई अल्पसंख्यक नहीं है." RSS प्रमुख के हालिया बयान उनके द्वारा पहले कही गईं बातों की लगभग शब्दशः नकल हैं, हालांकि अब उन्होंने इसे अलग तरह से फ्रेम करने का प्रयास किया है.
भागवत के शब्दों में हम 1920 के दशक के बाद से कई हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों की गूंज सुन सकते हैं. RSS ने "भारत माता की पवित्र अविभाज्यता" के विनाश के लिए 15 अगस्त, 1947 को शोक दिवस के रूप में घोषित किया था.
1956 में एम एस गोलवलकर द्वारा की गई टिप्पणी भी प्रसिद्ध है. तब उन्होंने कहा था कि "जब तक हम इस कलंक (विभाजन) को नहीं मिटा लेते हैं, तब तक हमें आराम नहीं करने का संकल्प लेना होगा."
अगस्त 1965 में जनसंघ के एक प्रस्ताव में कहा गया था कि 'मुसलमान खुद को राष्ट्रीय जीवन में शामिल कर लेंगे और अखंड भारत एक वास्तविकता होगी. अलगाववादी राजनीति को खत्म करने में सक्षम होने के बाद हम भारत और पाकिस्तान को एकजुट कर सकते हैं.'
पीएम मोदी, विभाजन और अखंड भारत
लेकिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अधिक व्यावहारिक सांचे में ढले हुए हैं. 2012 में जब पूर्व राज्यसभा सदस्य और RLD नेता शाहिद सिद्दीकी ने बात करते हुए मोदी से अखंड भारत पर उनके विचार पूछे थे तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था कि 'पाकिस्तान में, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश को एकजुट करने के लिए एक आंदोलन है ताकि मुसलमान बहुसंख्यक हों. अखंड भारत के नाम पर मुस्लिम बहुल राष्ट्र बनाने की संभावना पर आपके मुंह में पानी आ रहा होगा.'
हालांकि, भागवत और RSS अखंड भारत के लक्ष्य पर कायम हैं, क्योंकि इसका रोमांटिक आकर्षण है और यह मोर्चाबंदी का एक टूल है.
बाकियों की तरह मोदी भी राजनीतिक फायदे के लिए बंटवारे की स्मृतियों का इस्तेमाल करते हैं. पिछले साल (2021) स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण के दौरान मोदी ने घोषणा की थी कि अब से 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' के रूप में मनाया जाएगा. यह 14 अगस्त 1946 की याद में मनाया जाएगा, जिस दिन मुस्लिम लीग ने 'सीधी कार्रवाई' का आह्वान किया था, जिसके परिणामस्वरूप कलकत्ता में अभूतपूर्व हिंसा हुई और उसके बाद स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई और विभाजन को अपरिहार्य बना दिया गया.
इस स्मारक दिवस (विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस) की शुरूआत यह सुनिश्चित करेगी कि लोग "सामाजिक विभाजन और वैमनस्य के जहर को दूर करने और एकता, सामाजिक सद्भाव और मानव सशक्तिकरण की भावना को मजबूत करने के महत्व को न भूलें." हालांकि, वे (पीएम मोदी) अपने किसी भी भाषण में विभाजन को उलटने और पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवाल उठाने को लेकर कोई उल्लेख नहीं करते हैं.
लेकिन, मोदी और भागवत दोनों ही 2014 के बाद से निस्संदेह रूप से तेज हुई निंदा और भेदभाव की दैनिक संस्कृति पर मूक बने हुए हैं. इसके उलट, अपने हालिया भाषण में RSS प्रमुख ने चेतावनी भरे शब्दों में कहा है कि "यह 1947 का नहीं 2021 का भारत था. एक बार विभाजन हो गया, दोबार नहीं होगा - ऐसा सोचने वालों को खुद विभाजन का सामना करना पड़ेगा."
'पाकिस्तान चले जाने' की धमकी
चूंकि भारत में कोई भी धार्मिक अल्पसंख्यक वर्तमान में देश के दूसरे विभाजन की मांग नहीं कर रहा है ऐसे में चेतावनी विशिष्ट संकेत है. संवैधानिक रूप से प्राप्त अधिकारों के बारे में बात करने पर भी मुसलमानों को लगातार कहा जाता है कि "पाकिस्तान चले जाओ".
भागवत ने अपने राजनीतिक बिरादरी के मूल मतदाता वर्ग तक पहुंचने के प्रयास में बिना किसी अनुभवजन्य आधार के व्यापक टिप्पणियां की हैं. उदाहरण के लिए उन्होंने कहा है कि "एक बात स्पष्ट है- विभाजन एक समाधान नहीं हो सकता. न तो भारत खुश है और न ही इस्लाम के नाम पर बंटवारे की मांग करने वाले लोग खुश हैं.
दो वजहों से इस दावे में समस्या दिखती है. पहला यह कि भागवत ने बिना किसी सबूत के कहा कि पाकिस्तानी बंटवारे को वापस लेना स्वीकार करेंगे क्योंकि वे इससे 'खुश नहीं हैं'.
इसके अलावा, जिस बात की सराहना की जानी चाहिए उस बात का कोई जिक्र RSS प्रमुख और मोदी नहीं करते हैं कि अविभाजित भारत के अधिकांश मुसलमानों ने देश में न केवल रहने का विकल्प चुना. बल्कि उन्होंने 1909 से उनके लिए मौजूद अलग निर्वाचक मंडल को छोड़ने का भी फैसला भी किया.
(लेखक, NCR में रहने वाले लेखक और पत्रकार हैं. उनकी हालिया पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रिकॉन्फिगर इंडिया है. उनकी अन्य पुस्तकों में द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी : द मैन, द टाइम्स शामिल हैं. वे @NilanjanUdwin पर ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करत है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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