राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में शनिवार को सरकार्यवाह का चुनाव होना है. यह चुनाव संघ में फैसले लेने वाली सर्वोच्च इकाई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) की दो दिवसीय वार्षिक बैठक के दौरान हो रहा है.
बता दें कि शुक्रवार को इस बैठक की शुरुआत होने के मौके पर आरएसएस सर संघचालक मोहन भागवत और इसके मौजूदा सरकार्यवाह सुरेश भैय्याजी जोशी भी मौजूद थे. भैय्याजी 2009 से यह पद संभाल रहे हैं.
आरएसएस में सरकार्यवाह का पद सबसे उच्च कार्यकारी पद है. सरकार्यवाह संगठन की रोजमर्रा की गतिविधियों को देखता है. इसके विपरीत सरसंघचालक का रोजाना की गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं होता. वह सिर्फ राजनैतिक, नैतिक पथप्रदर्शक और मार्गदर्शक के तौर पर काम करता है.
आरएसएस की नजरें दो महत्वपूर्ण घटनाओं पर टिकी हैं
यूं भैय्याजी जोशी को 2018 में ही इस पद से हटना था. अटकलें लगाई जा रही थीं कि दत्तात्रेय होसबोले जोकि सह-सरकार्यवाहों में से एक हैं (यानी ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी) उनका स्थान लेंगे.
लेकिन आखिरी क्षण, खराब सेहत के बावजूद जोशी को बहाल कर दिया गया. बताते हैं कि आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व मानता था कि इस बहाली से संघ मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में असहजता पैदा किए बिना बीजेपी केंद्रित रुख अख्तियार करने से बच जाएगा.
आरएसएस की नजर आने वाले वर्षों में दो महत्वपूर्ण घटनाओं पर है- पहला 2024 का आम चुनाव, जिसमें संघ परिवार अपनी सारी ताकत भारतीय जनता पार्टी को एक और जीत दिलाने के लिए झोंक देगा.
हालांकि आरएसएस को अपने संगठन की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने की खुशी में जश्न भी मनाना है. हेडगेवार ने 1925 में दशहरा के दिन आरएसएस की स्थापना की थी. लेकिन इस जश्न की योजना अभी बनाई नहीं गई है. आरएसएस चाहता है कि 2024 से देश भर में आनंद मंगल शुरू हो जाए. उसे साल भर के उत्सव समारोह की योजना बनाने के लिए भी वक्त चाहिए.
याद किया जा सकता है कि आरएसएस ने 1988-89 में हेडगेवार का जन्म शताब्दी समारोह भी मनाया था और इस अभियान ने संगठन की लोकप्रियता और अपील में चार चांद लगा दिए थे.
बेशक, शताब्दी समारोह ज्यादा भव्य होने चाहिए. चूंकि संगठन अस्सी के दशक के मुकाबले ज्यादा प्रभावशाली हो गया है. अस्सी के दशक में संघ परिवार प्रमुख राजनीतिक ताकत नहीं था. बीजेपी के भी लोकसभा में सिर्फ दो सांसद थे.
इसीलिए अगले सरकार्यवाह का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि उससे यह उम्मीद की जाएगी कि वह कम से कम दो बार, 2027 तक संगठन की पतवार संभाले.
नए सरकार्यवाह का महत्व
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा (एबीपीएस) की वार्षिक बैठक में सरकार्यवाह के पद का ‘चुनाव’ होगा तो उसी वक्त प्राथमिकताएं भी तय होंगी. हाल फिलहाल और भविष्य के लक्ष्य निर्धारित किए जाएंगे. संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व के बीच नए समीकरण बनेंगे.
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ‘सफल उम्मीदवार’ और उसके द्वारा ‘नियुक्त’ पदाधिकारियों की टीम इस बात का संकेत होगी कि हिंदू राष्ट्रवादी बिरादरी के दो महत्वपूर्ण घटकों- आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के बीच कैसा शक्ति संतुलन कायम होगा.
एबीपीएस में करीब 1400 सदस्य हैं. यह संघ की सामूहिक फैसला लेने वाली सबसे बड़ी संस्था है और साल में कम से कम एक बार उसकी बैठक होती है. हर तीन साल में, जब ‘चुनाव’ होते हैं तो यह बैठक नागपुर में होती है. और बाकी के वर्षों में यह बैठक दूसरे शहरों में होती है. मार्च 2018 में इसकी आखिरी बैठक नागपुर में हुई थी.
इस साल कोविड-19 प्रोटोकॉल के चलते इस बैठक में कम लोग होंगे- शायद 500 से भी कम. लेकिन फिर भी इस प्रतिनिधि सभा के फैसले उतने ही महत्वपूर्ण होंगे. आरएसएस नेतृत्व पिछले साल मार्च से काफी सतर्क रहा है. उसने पिछले साल 14-15 मार्च के दौरान बेंगलुरू में एबीपीएस की बैठक को रद्द कर दिया था.
नागपुर की बैठक आरएसएस के लिए महत्वपूर्ण क्यों है?
इसके बाद पहली ‘बड़ी’ बैठक तीन दिवसीय समन्वय बैठक थी जिसमें आरएसएस के 30 से ज्यादा संबद्ध संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे. यह अहमदाबाद में 7 जनवरी को खत्म हुई. बैठक में संघ परिवार के 150 से ज्यादा नेता पहुंचे, जबकि इससे पहले इसी तरह की बैठकों में अलग-अलग जगहों से शीर्ष नेता जैसे मोहन भागवत, भैय्याजी जोशी वगैरह आए थे.
इसमें विभिन्न संगठनों की गतिविधियों पर चर्चा हुई और इस बात पर ध्यान केंद्रित किया गया कि किस तरह राम मंदिर के निर्माण के लिए जल्द से जल्द धनराशि जुटाई जाए. इस अभियान को सफल बनाया जाए.
यह कार्यक्रम 15 जनवरी से शुरू होना है. 1989 में शिला पूजन यात्रा के बाद यह संघ परिवार का सबसे महत्वाकांक्षी सामूहिक संपर्क कार्यक्रम माना जा रहा है. मार्च में नागपुर में एबीपीएस बैठकों में आने वाले लोग अपनी बात तो कहेंगे ही, उन प्रतिनिधियों के मत भी रखेंगे जो इस बैठक में मौजूद नहीं होंगे.
अब तक यह चर्चा आम भले न हुई हो लेकिन सबके दिमाग में एक ही बात कौंध रही है. अगला सरकार्यवाह कौन ‘चुना’ जाएगा. आरएसएस के टॉप नेताओं के अलावा पूरा भगवा कुटुंब इसी ऊहापोह में है.
आरएसएस में सरसंघचालक और सरकार्यवाह के चयन की प्रक्रियाएं अलग-अलग किस्म की हैं. परंपरागत रूप से नए सरसंघचालक को चुनने की जिम्मेदारी पुराने सरसंघचालक की होती है (वह यह काम दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सलाह से करता है) और वह जब तक चाहता है, इस पद पर बना रहता है (या 75 वर्ष की उम्र होने पर उससे पद छोड़ने की उम्मीद की जाती है). दूसरी तरफ, सरकार्यवाह का ‘चयन’ जाहिरा तौर पर एबीपीएस तीन साल के लिए करती है. लेकिन असल में उसे संघ परिवार के शीर्ष नेता आपस में विचार विमर्श के बाद ‘चुनते’ हैं.
आरएसएस अपने शीर्ष पदाधिकारियों को कैसे चुनता है
आरएसएस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अधिकतर छोटे समूहों या एक या दो लोगों के बीच बातचीत करके महत्वपूर्ण नियुक्तियों पर फैसले लिए जाते हैं. कोई व्यक्ति अपने विचार रखता है लेकिन कई बार उस पर खास जोर नहीं देता क्योंकि दूसरे उस पर विरोध जता सकते हैं.
वैसे सालों से आरएसएस पर पैनी नजर रखने वालों का दावा है कि संगठन का नेतृत्व लगातार शाखा के लोगों को उच्च पद देता आया है. वह पक्का करता है कि इन पदों पर ऐसे नेता बैठें जो शाखा से निकले हों और उनमें शाखा के संस्कार हों. संगठन का सनातनी विचार है कि जो लोग शाखा की कठोर संरचनात्मक परंपरा का पालन करते हैं, उनमें उच्च नैतिक मूल्य होते हैं.
इसी से आरएसएस के परंपरावादी नेता यह मानते हैं कि बीजेपी या उसके छात्र संघ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या दूसरे संगठनों के लोग ‘अनिश्चित’ की फेहरिस्त में शामिल हैं. भले ही वे कितने भी बड़े नेता हों, लेकिन अगर वे संघ के भीतर से न निकले हों, तो उन्हें लेकर यह चिंता हमेशा बनी रहती है कि उन्हें ‘बाहरी’ लोग प्रभावित कर सकते हैं.
आरएसएस के भीतर दूसरा अहम पद किसे
2014 से बीजेपी का उठान हुआ, और तभी से आरएसएस एक अलग ही कशमकश में है. उसके बड़े नेताओं को लगातार यह महसूस हो रहा है कि बीजेपी का कद ऊंचा हो रहा है और उसका ‘बड़े भाई’ वाला दर्जा कमजोर पड़ रहा है. बीजेपी उसकी बराबरी में आकर खड़ी हो गई है. 2018 से कई बार आरएसएस नेताओं ने बीजेपी नेताओं की पहल को अपना समर्थन दिया है.
सबसे हालिया उदाहरण पिछले साल मई में देखने को मिला था. मोदी ने आत्मनिर्भरता का महत्व बताया, तो उसके बाद भागवत या दूसरे आरएसएस नेताओं ने अपने हर सार्वजनिक संबोधन में उसका उल्लेख किया और इसके लिए प्रधानमंत्री की तारीफ भी की. अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि वाजपेयी के दौर से यह बहुत अलग है, जब आरएसएस ही अक्सर सारा एजेंडा तय करती थी.
अगले सरकार्यवाह की नियुक्ति भी चंद अनुयायियों में से होने की उम्मीद है जोकि मौजूदा सह सरकार्यवाह हैं और मुख्य अधिकारियों में से एक. होसबोले अब भी मुख्य दावेदारों में से एक होंगे लेकिन उन्हें मनमोहन वैद्य जैसे नेताओं से स्पर्धा करनी होगी जिन पर शाखा के लोगों को बहुत भरोसा है. यहां बताना जरूरी है कि मनमोहन वैद्य आरएसएस के छह सह सहकार्यवाहों में से एक हैं.
इसके अलावा कृष्ण गोपाल जैसे नेता भी हैं जिन्होंने संगठन के साथ और बीजेपी के लिए भी काम किया है (वह 2014 में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्यों के लिए आरएसएस के समन्वयक थे). वह 65 साल के हैं और उनके पास इस पद पर बने रहने के लिए अभी दस वर्ष हैं.
क्या किसान आंदोलन ने आरएसएस और बीजेपी के बीच मनमुटाव पैदा किया है
सरकार्यवाह के चयन का असर भले सैद्धांतिक स्थिति पर न पड़े. लेकिन बड़े नीतिगत मुद्दों पर मतभेद संभव है. किसान आंदोलन की आंच आरएसएस और बीजेपी के समीकरणों पर भी पड़ी है.
2018 में जब भैय्याजी जोशी दोबारा चुने गए (एक तरफ सरकार, तो दूसरी तरफ भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच के बीच अलग-अलग विचार थे) तो उनसे किसानों की मांगों पर सवाल किए गए. तब उन्होंने कहा था कि भारत का कृषि संकट बहुत गंभीर है और कोई भी सरकार किसानों की तकलीफों पर असंवेदनशील नहीं रह सकती.
जबकि आरएसएस ने अब तक सार्वजनिक स्तर पर सरकार का समर्थन किया है, कुछ नेता दबे-छिपे इस पर विरोध भी जताते हैं. इसी से यह साफ होता है कि कई दौर की चर्चा के बाद ही अगले सरकार्यवाह का ‘चुनाव’ होगा.
लेखक दिल्ली स्थित लेखक व पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब है, ‘द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट’. वह @NilanjanUdwin पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है ना ही इसके लिए उत्तरदायी है.)
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