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'रुपया कमजोर नहीं हो रहा,डॉलर मजबूत हो रहा', निर्मला सीतारमण का बयान पूरा सच है?

FM Nirmala Sitaraman का बयान लोगों को रोजमर्रा की जिंदगी में सहूलियत नहीं देता है.

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"गिरता रुपया बोझ बढ़ा रहा है. सरकार ईंधन की कीमतें नियंत्रित कर रही है. ये घबराहट पैदा करने के लिए सरकार जिम्मेदार है. क्या सरकार इस जिम्मेदारी से बच सकती है?"

जरा अनुमान लगाइए ये बात किसने कही थी? ये निर्मला सीतारमण ही थीं जिन्होंने 2 सितंबर 2013 को यह ट्वीट किया था. तब वो विपक्षी दल बीजेपी की प्रवक्ता थीं. अब, वो अपनी सत्ताधारी पार्टी की वित्त मंत्री हैं और गिरते रुपया पर बयान को लेकर चर्चा में हैं. सब तरफ हाहाकार मचा हुआ है लेकिन वो अपनी ही धुन में हैं.

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स्नैपशॉट

निर्मला सीतारमण ने कहा कि भारतीय रुपया ने दूसरे इमर्जिंग मार्केट की करेंसी की तुलना में ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया है.  

FM: रुपए की वैल्यू में 10% की गिरावट ज्यादा चिंताजनक बात नहीं है. इस बात के बावजूद की अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने से अमेरिका की तरफ पैसे का फ्लो ज्यादा बढ़ रहा है और डॉलर मजबूत हो रहा है.  

डॉलर की कीमतें बढ़ने से इंपोर्ट पर असर पड़ता है और इंपोर्ट के लिए ज्यादा कीमतें चुकानी पड़ती हैं. कमजोर रुपए का सीधा मतलब तेल कीमतों के लिए भारत को ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं.

किसी भी इकनॉमी की वैश्विक मजबूती इस बात से ही तय होती है कि वो कितना एक्सपोर्ट करती है और खासकर राष्ट्रीय आय (GDP) में इसका कितना हिस्सा है.

एक बढ़िया फॉरेन एक्सचेंज पॉलिसी लंबी अवधि में देश की मुकाबला करने की क्षमता को कमजोर नहीं करती है. आप सिर्फ चीन को ही देखिए, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ कड़ी टक्कर लेता रहता है और सरकार जानबूझकर चीनी करेंसी रॅन्मिन्बी को कमजोर रखती है.

BJP समर्थक अक्सर राष्ट्रवादी जोश में कहते हैं कि एक मजबूत मुद्रा एक मजबूत अर्थव्यवस्था का संकेत देती है, लेकिन अक्सर चीन से आगे निकलने के अपनी जिद के बावजूद यह भूल जाते हैं कि एक कमजोर करेंसी एक्सपोर्ट को प्रोत्साहित करती है और इंपोर्ट को रोकती है.  

रुपया-डॉलर का ग्राफ क्या इशारा करता है  

यहां हम आपको बता देते हैं कि पिछले हफ्ते आखिर उन्होंने क्या कहा था: “सबसे पहले, मैं इसे ऐसे देखना चाहूंगी कि रुपया कमजोर नहीं हो रहा है, बल्कि डॉलर लगातार मजबूत होता जा रहा है." फिर इसी पद पर यानि कभी वित्त मंत्री रहे और अब विपक्ष के नेता कांग्रेसी पी चिदंबरम ने निर्मला सीतारमण के बयान पर प्रतिक्रिया देने में देरी नहीं की और कहा  " एक उम्मीदवार या पार्टी जो चुनाव हारती है, वह हमेशा कहेगी. हम चुनाव नहीं हारे, लेकिन दूसरी पार्टी ने चुनाव जीता."

सीतारमण ने कहा,

"मैं तकनीकी पहलू नहीं समझा रही, लेकिन यह तथ्य है कि भारत का रुपया शायद इस डॉलर की दर में बढ़ोतरी का सामना कर पा रहा है, डॉलर को मजबूत करने के पक्ष में अभी एक्सचेंज रेट है और मुझे लगता है कि भारतीय रुपये ने कई दूसरे इमर्जिंग इकनॉमी की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है.”
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निर्मला सीतारमण सही हैं लेकिन क्या ये पूरा सच है? फिर ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उनकी बात भारत की रोजाना की आर्थिक जिंदगी के लिए कितनी प्रासंगिक है?  रुपए की वैल्यू को लेकर इतना हंगामा क्यों मचाना?

ग्लोबल इकनॉमी में डॉलर का कैसे है वर्चस्व ?  

ये वो सवाल है जिनका बेहतर जवाब पॉपुलर जोक के जरिए समझा जा सकता है?  

सवाल:  क्या आप सिंगल हैं?

जवाब: कौन पूछ रहा है इस पर निर्भर करता है .

बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप एक्सपोर्टर हैं या फिर इंपोर्टर या फिर दोनों का मिक्स..या फिर इंपोर्टेड प्रोडक्ट के कंज्यूमर. यदि आप फ्रेंच पनीर या इतालवी ओलिव पसंद करते हैं, तो आप अमेरिकी डॉलर में सामान नहीं खरीद रहे होंगे, लेकिन पिछले एक साल में अमेरिकी मुद्रा की तुलना में रुपये के मूल्य में लगभग 10% की गिरावट अभी भी आपको चिंतित करेगी क्योंकि अधिकांश फॉरेन बिल अभी भी प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर डॉलर में होते हैं. अनौपचारिक रूप से, डॉलर राजा है और यह एक ऐसी चीज है जिसका सिक्का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में चलता है. यह सच है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ने से उस देश की तरफ पूंजी का फ्लो ज्यादा होता है और इससे डॉलर और मजबूत होता है लेकिन इस मामले में इतना ही सबकुछ नहीं है. इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिस पर ध्यान देना जरूरी है.

वित्त मंत्री सच बता रही थीं, लेकिन वो आधा सच ही था, क्योंकि महंगा डॉलर उन सबका बजट बिगाड़ता है जो भारत में सामान इंपोर्ट करते हैं. एक कमजोर रुपया का सीधा मतलब तेल के लिए ज्यादा पैसे चुकाना  और तेल के लिए ज्यादा पैसे भरने का असर हमारी दूसरी हर छोटी-बड़ी हर चीज जिसका ट्रांसपोर्ट होता है उस पर दिखता है.

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एक्सचेंज रेट और इकनॉमी में गहरा नाता

2013 में उन्होंने जो ट्वीट किए थे, आपको सिर्फ उसको देखना चाहिए जो आज के संदर्भ में भी काफी हद तक सही हैं. लेकिन अगर आप एक एक्सपोर्टर हैं, तो चीजें साफ साफ दिख सकती हैं क्योंकि बिल आप अमेरिकी डॉलर में भर रहे हैं. उदाहरण के लिए सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट जो वॉल स्ट्रीट या सिलिकॉन वैली के क्लाइंट को सेवाएं दे रहा है उसके बिल से भी सब समझ में आ जाएगा.  

वास्तव में, आप तर्क दे सकते हैं कि एक हेल्दी एक्सचेंज रेट पॉलिसी ऐसी है कि यह एक्सपोर्टर्स का जोश कम नहीं करती है क्योंकि लंबे समय में, एक अर्थव्यवस्था की वैश्विक ताकत इस बात से निर्धारित होती है कि वह कितना एक्सपोर्ट कर सकती है और, विशेष रूप से नेशनल इनकम (GDP)  में इसका क्या हिस्सा रहता है. कितना कम वो इंपोर्ट करते हैं ताकि व्यापार घाटा और इसके भी ज्यादा, चालू खाता घाटा यानी CAD (जिसमें रेमिटेंस और पर्यटन आय भी शामिल है) व्यापक रूप से बढ़ ना जाए.


रुपए में उठापटक की वजह क्या?

चालू वित्तीय साल 2022-23 की अप्रैल-जून तिमाही में भारत का करेंट अकांउट डेफिसिट 23.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर (जीडीपी का 2.8%) दर्ज किया गया जो जनवरी-मार्च तिमाही में 13.4 बिलियन डॉलर (जीडीपी का 1.5%) से ज्यादा) है.  एक साल पहले के नंबर से यह 6.6 बिलियन डॉलर (जीडीपी का 0.9%) ज्यादा है.

आप पहली तिमाही में जो CAD है उसका ठीकरा यूक्रेन युद्ध से पैदा हुए तनाव पर फोड़ सकते हैं और फिर एक साल पहले के सरप्लस घाटा को कोविड -19 महामारी से जुड़ी कम आर्थिक गतिविधियों का नतीजा बता सकते हैं लेकिन एक सामान्य तथ्य यहां पर यह है कि जुलाई-सितंबर तिमाही में भी ज्यादा संभावनाएं नहीं हैं. कमजोर भारतीय रुपये के कारण पहली तिमाही जितना व्यापक घाटा भले ही ना हो लेकिन घाटा बढ़ा ही है.

फिर भी इस बात को दिमाग में रखना महत्वपूर्ण है कि हेल्दी फॉरेन एक्सचेंज पॉलिसी ऐसा कुछ नहीं है कि लंबी अवधि में यह प्रतिस्पर्धा की क्षमता को प्रभावित करती है. आप सिर्फ चीन पर नजर डालें, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ लगातार संघर्ष में रहता है और चीनी सरकार अपनी करेंसी ‘रेनमिनीबी’ को कमजोर बनाए रखती है.  
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भारत की फॉरेन एक्सचेंज पॉलिसी कैसी है ?  

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट के एक पेपर ने एक दशक पहले माना था कि संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों के बीच कलह का कारण या फिर शिकायत यह है कि चीन अपनी करेंसी रेमनिबी के वैल्यू को कृत्रिम तौर पर कम रखता है, वो अपने ट्रेड पार्टनर्स की कीमत पर अपने एक्सपोर्ट और ट्रेड सरप्लस को बढ़ाता है, ".  

BJP समर्थक अक्सर राष्ट्रवादी जोश में कहते हैं कि एक मजबूत मुद्रा एक मजबूत अर्थव्यवस्था का संकेत देती है, लेकिन अक्सर चीन से आगे निकलने की अपनी जिद के बावजूद यह भूल जाते हैं कि एक कमजोर करेंसी एक्सपोर्ट को प्रोत्साहित करती है और इंपोर्ट को रोकती है.  

अब, रुपया कई कारणों से ऊपर या नीचे जा सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि घरेलू महंगाई से करेंसी की प्रतिस्पर्धा कीमत घटती है.

अर्थशास्त्री, लंबी अवधि को देखते हुए, इसकी कुछ पहेलियों को दूर करने के लिए रियल इफेक्टिव एक्सचेंज रेट (REER) का अध्ययन करते हैं. REER बढ़ने का मतलब है एक्सपोर्ट करना मुश्किल होना. इसलिए, REER बढ़ना व्यापार प्रतिस्पर्धा में कमी का संकेत है.  REER को मापने के लिए महंगाई एडजस्ट करके नॉमिनल एक्सचेंज रेट लगाया जाता है और इसमें सभी विदेशी करेंसी होती है, ना कि सिर्फ अमेरिकी डॉलर.

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भारतीय इकनॉमी क्यों पीछे हैं?  

RBI खुद कहता है: "इफेक्टिव एक्सचेंज रेट्स किसी भी करेंसी के वाजिब मूल्य को समझने के लिए पैमाने की तरह है. यह किसी भी इकनॉमी का बाहर की दूसरी इकनॉमी से मुकाबला करने की क्षमता को समझने और मॉनेटरी और फाइनेंशियल कंडीशन के लिए गाइडपोस्ट है."

अगर 15 साल के भारत के REER को देखें तो निश्चित तौर पर ही प्रतियोगिता को बनाए रखने में मोदी सरकार ने पहले की UPA सरकार से बेहतर प्रदर्शन नहीं किया है. बहुत कुछ ग्लोबल फैक्टर पर निर्भर करता है जैसे कि तेल की कीमतों में उतारचढ़ाव और ग्लोबल आर्थिक संकट... लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि REER पिछले 8 साल में बढ़ा है और इस वजह से भारत की प्रतिस्पर्धात्मकता घटी है.  

डाटा क्रंचिंग थिंक टैंक  CEIC कहता है कि भारत के REER का बेस ईयर अगर साल 2005 को पकड़ लें तो यह अप्रैल 2009 में अपने सबसे न्यूतम स्तर पर गया था जब यह 94.8 तक पहुंच गया था और फिर साल 2017 में यह अपने पीक पर था जब यह 118.3 पर था... जबकि 18 साल के पीरियड में इसका एवरेज 118.3 रहा था. यह तस्वीर कुछ ऐसी ही है जैसी भारत और ऑस्ट्रेलिया के क्रिकेट मैच मुकाबले में हार जीत की होती है. आप आसानी से उंगली रखकर यह नहीं बता सकते कि आखिर कौन सी टीम बेहतर है.  

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विडंबना यह है कि REER अपने सबसे बेहतरीन दौर में तब था जब सीतारमण साल 2013 में अपना भड़ास निकाल रही थी.  जब निर्मला सीतारमण साल 2013 में ट्वीट कर रही थीं, तो अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगभग 15% की गिरावट के साथ रुपया 65 तक चला गया था, जिसका मुख्य कारण यूएस फेड की नीतियों से जुड़े तथाकथित "Taper Tantrum" थे, जैसे इस साल भी अमेरिका में गिरावट आई थी. हालांकि, यहां इस बात का जिक्र किया जाना चाहिए कि तब गिरावट दुनिया की सभी प्रमुख करेंसियों के खिलाफ थी क्योंकि अमेरिका ने 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए टनों पैसा इकनॉमी में डाला था.  

हालांकि, सीतारमण तकनीकी रूप से सही हैं, पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में पिछले एक साल में 110 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की गिरावट आई है, जो ज्यादातर रुपये को बचाने के लिए RBI के प्रयासों से कम हुई है. कठोर वास्तविकता यह है कि मौजूदा रियल इफेक्टिव एक्सचेंज रेट साल 2013 की तुलना में बहुत खराब है.

क्या हमें चिंतित होना चाहिए? अगर आप चीन को देखें... जो दशकों से अपनी इकनॉमी को मजबूत करने के लिए जो कदम उठाता है तो चिंता की जरूरत नहीं है. चिंता की जरूरत तब भी नहीं है अगर आपको एक्सपोर्टर्स की वाजिब डील की फिक्र नहीं है. चिंता तब भी नहीं होनी चाहिए अगर हेल्दी इंपोर्ट से महंगाई और उत्पादन मैनेज हो रहा है. आप तब भी चिंता नहीं कर सकते हैं अगर आप यह सोचते हैं कि एक्सचेंज रेट किसी ब्लडप्रेशर की तरह है और इसे बीच के रेंज में रखकर मैनेज किया जा सकता है.

सिर्फ उसी इकनॉमी को चिंतित होने की जरूरत है जो करेंसी अर्निंग वालों की जगह पर कंज्यूमर को तरजीह देते हैं. अगर आप कंज्यूमर फ्रेंडली हैं और उनकी फिक्र आपको है तो एक कमजोर करेंसी आपके लिए चिंता की बड़ी लकीर है.

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और कमेंटेटर हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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