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Russia India trade: रूबल वैल्यू में रुपया चुकाना भारत को पड़ सकता है कितना भारी?

Russia-India Currency Pact : इतिहास गवाह रहा है कि लोकल करेंसी में व्यापार करने के समझौते ज्यादा दिन नहीं टिके.

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Russia-Ukraine War रूस-यूक्रेन के बीच चल रही जंग के बीच कुछ दिनों पहले विभिन्न रिपोर्ट्स में कहा गया है कि रूस ने अपने यहां उत्पादित होने वाले क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल के आयात पर भारत को 35 डॉलर प्रति बैरल की छूट का ऑफर दिया है. रूस ने अपना फ्लैगशिप यूरल ग्रेड ऑयल (Urals grade oil) भारत को युद्ध से पहले की कीमत की तुलना में 35 डॉलर के डिस्काउंट पर ऑफर किया है. ऐसे समय में जब पूरी दुनिया की तरह भारत में भी घरेलू ईंधन के दामों में वृद्धि हो रही हो और इसके साथ ही पहले ही संघर्ष कर रही अर्थव्यवस्था में महंगाई संबंधित परेशानियां भी हों. तब रूस द्वारा किए जा रहे इस ऑफर को देखकर भारत का आकर्षित होना लाजमी है.

भारत ने पिछले हफ्ते ही भारी छूट पर 30 लाख बैरल रूसी कच्चा तेल खरीदा है, जोकि दोनों देशों के बीच करेंसी डील की संभावनाओं को रेखांकित करता है. भारत अकेला या एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो 'सस्ता' रूसी तेल खरीद रहा है. यूरोपीय यूनियन (EU) के देश भी ऐसा कर रहे हैं. पिछले महीने की ही बात करें तो यूरोपीय यूनियन ने पिछले महीने में उससे पहले वाले महीने की तुलना में ज्यादा का आयात किया है. इसके बावजूद, 'रणनीतिक स्वायत्तता' बनाए रखने की अपनी विदेश नीति की स्थिति द्वारा निर्देशित 'स्वतंत्र' निर्णय लेने की भारत की क्षमता को इस बात से आगे जाने की आवश्यकता हो सकती है कि यूरोपीय संघ या अन्य राष्ट्र रूस के साथ क्या करते हैं.

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यह समझौता रूस और भारत को डॉलर से बचाने में मदद करेगा 

यहां पर रूस की अपनी मंशा स्पष्ट प्रतीत होती दिख रही है.

पश्चिमी प्रतिबंधों की वजह से रूस की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ा है ऐसे में भारत को रूस एक लोकल-लोकल करेंसी पेमेंट सिस्टम, जैसे रुपया-टू-रूबल व्यापार (ट्रेड) को प्रोत्साहित करके वैकल्पिक व्यापार-वित्तीय चैनलों के निर्माण में एक महत्वपूर्ण जिओ-पाॅलिटिकल और आर्थिक सहयोगी के रूप में देख रहा है. इस प्रणाली के अनुसार भारत रूस से (तेल से लेकर रक्षा उपकरण हार्डवेयर आदि तक) जिन भी वस्तुओं या उत्पादों को खरीदेगा उसके लिए रुपये में भुगतान करेगा, जोकि उत्पाद के मूल्य के बराबर रूबल में होगा.

ट्रेड यानी व्यापार के लिए डॉलर सबसे मुख्य व अहम रिजर्व करेंसी है. लेकिन यह समझौता भारत-रूस के बीच होने वाले ट्रेड को डॉलर में होने वाले लेन-देन से बचने में मदद करेगा. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है शॉर्ट सर्किट स्विफ्ट (short-circuit SWIFT) प्रणाली. यह वह मैसेजिंग प्रणाली है जिसका उपयोग बैंक पैसे को बॉर्डर पार ट्रांसफर करने के लिए करते हैं.

SWIFT ने विशेषकर पश्चिमी देशों के लिए एक महत्वपूर्ण निगरानी उपकरण के रूप में कार्य किया है: यदि लेन-देन संदेश एक प्रतिबंधित इकाई (इस मामले में रूस) की भागीदारी दिखाते हैं तो ग्लोबल बैंक्स यानी वैश्विक बैंकों पर भारी जुर्माना लगाया जा सकता है. एंडी मुखर्जी का कहना है कि "सिस्टम की सर्वव्यापकता के कारण स्विफ्ट की एक्सेस से वंचित होना अपने आप में एक सजा होगी."

सोवियत संघ और ईरान का अनुभव

रूबल के बदले रुपये से ट्रेड करने के लिए दोनों देशों, रूसी और भारतीय बैंकों के बीच समन्वय के एक जटिल चैनल की जरूरत होगी. रूसी बैंकों को भारतीय रुपये में और भारतीय बैंकों को रूसी रूबल में खाते खोलने की आवश्यकता होगी. क्योंकि ट्रेड (व्यापार) और कैपिटल मोबिलिटी (पूंजी गतिशीलता) के लिए सभी ट्रांजेक्शन (लेन-देन) इन्हीं मुद्राओं में होंगे.

भारत के लिए इस बारे में एक ऐतिहासिक संदर्भ है. इतिहास में झांककर देखें तो शीत युद्ध के दौरान जब पश्चिमी प्रतिबंधों ने सोवियत संघ को चोट पहुंचाई और विदेशी मुद्राओं में सौदा करने की उसकी क्षमता में बाधा डाली थी तब भारत और सोवियत संघ ने अल्पकालिक व्यापारिक समझौतों के लिए समान स्थानीय मुद्रा समझौते किए थे.

अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से जब ईरान बुरी तरह प्रभावित हुआ था तब भारत ने ईरान के साथ इसी तरह की स्थानीय भुगतान व्यवस्था की कोशिश की थी. अमेरिकी प्रतिबंधों में छूट के तहत भारत ने भारतीय बैंकों में रुपये जमा करके ईरान से तेल खरीदा. वहीं तेहरान ने इन पैसों का उपयोग भारत से भोजन और दवा खरीदने के लिए किया था. हालांकि छूट समाप्त हो जाने के बाद भारत को ईरानी तेल का आयात बंद करना पड़ा था. खातों की शेष (balance) राशि गिर गई और अब भारतीय कंपनियां भुगतान न होने के डर से तेहरान को अनाज, चीनी या चाय बेचने से इनकार कर रही हैं.

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लंबे समय के लिए संभव नहीं है द्विपक्षीय मुद्रा व्यापार

इस तरह की भुगतान प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या लंबी अवधि‌‌‌‌‌ को लेकर है. इसी में मुख्य मुद्दा निहित है.

यदि इस तरह के द्विपक्षीय (स्थानीय) मुद्रा व्यापार दोनों व्यापारिक भागीदारों के लिए लंबे समय में लाभदायक थे, तो वर्तमान में अमेरिकी डॉलर या अतीत में सोना (गोल्ड) जैसी आरक्षित मुद्राओं (रिजर्व करेंसी) की वृद्धि (मजबूती) अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली ने नहीं देखी होगी. किसी भी व्यापार के लिए विश्वास की जरूरत होती है और पारस्परिक रूप से लाभदायक व्यावसायिक साझेदारी विकसित करने के जिस विश्वास की आवश्यकता होती है उसके लिए अधिक पारदर्शिता और निश्चितता की जरूरत होती है.

ज्यादातर स्थानीय मुद्रा व्यापार समझौते अल्पकालिक यानी कि कम समय के लिए होते हैं. ऐसा मुद्रा विनिमय दर की चिंताओं के कारण भी होता है. उदाहरण के लिए युद्ध से पहले भारतीय रुपये की एक यूनिट रूसी रूबल की एक यूनिट के लगभग बराबरी पर ट्रेडिंग कर रही थी. वहीं अब पिछले चार हफ्तों में INR-RUB में 22.68 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली है.

एक अस्थिर करेंसी एक्सचेंज यानी कि विनिमय दर (इस परिदृश्य में INR-RUB) दोनों देशों के बीच वर्तमान और भविष्य के वित्तीय लेनदेन और ट्रेडों के लिए समस्याएं पैदा करेगी. वर्तमान परिदृश्य की बात करें तो इस समय रूसियों के लिए भारतीय उत्पाद अधिक महंगे होते जा रहे हैं और भारतीयों के लिए रूसी उत्पाद सस्ते होते जा रहे हैं. एक्सचेंज रेट में उतार-चढ़ाव जितना ज्यादा व व्यापक होगा, व्यापार में अनिश्चितता उतनी ही अधिक होगी.

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भारत की राजनीति के लिए भी यह नुकसानदायक हो सकता है

राजनीति दूसरा प्रमुख मुद्दा है.

अमेरिका और बाकी की पश्चिमी दुनिया वैश्विक स्तर पर रुपये के बदले रूबल मुद्रा व्यापार प्रणाली को कैसे देखेंगे? मैं पहले ही कह चुका हूं कि रूस-यूक्रेन संघर्ष में भारत का रूख अब तक निराशाजनक रहा है. मोटे तौर पर देखा जाए तो इस युद्ध में भारत परोक्ष रूप से रूस का समर्थन कर रहा है. हालांकि इसने अब तक चुपचाप (संयुक्त राष्ट्र के वोटों में दूर होने के माध्यम से और सार्वजनिक रूप से युद्ध का समर्थन नहीं करने के माध्यम से) ऐसा किया है.

रूबल के बदले रुपये से होने वाला करेंसी ट्रेड समझौता रूस के प्रति भारत के समर्थन को अधिक प्रत्यक्ष रूप से दिखाएगा. यह वाशिंगटन और रूस पर प्रतिबंध लगाने वाले अन्य अमेरिकी सहयोगियों को इस बात का संकेत देगा कि यूक्रेन में रूस के 'युद्ध' को बढ़ावा देने में भारत सहज है और वह (भारत) इसकी ज्यादा परवाह नहीं करता है कि पश्चिमी देश इस बारे में क्या सोचते हैं. यह कुछ मायनों में यह भारत की लोकतांत्रिक साख को प्रभावित करता हुआ दिख रहा है क्योंकि इससे ऐता प्रतीत हो रहा है कि भारत पुतिन जैसे सत्तावादी तानाशाह की सहायता करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है.

व्यक्तिगत दृष्टि

व्यक्तिगत दृष्टि भी महत्वपूर्ण हैं. हाल ही में जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए मोदी को आमंत्रित करने के लिए भारत आए तो मोदी ने उनसे मुलाकात नहीं की थी. उसके बाद ब्रिटेन की लिज ट्रस भारत आईं और भारत से कहा कि वह रूस के खिलाफ पश्चिम से हाथ मिलाए. मोदी ने इनसे भी मुलाकान नहीं की थी. लेकिन, पिछले हफ्ते जब रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भारत की यात्रा की तब मोदी ने उनसे चर्चा करने के लिए मुलाकात की. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत के कदम (रूस के संबंध में) अमेरिका के साथ अपने दीर्घकालिक हितों और संबंधों को कैसे आकार देते हैं या प्रभावित करते हैं, इसके साथ ही यह भी कि क्या इसका कोई परिणाम देखने को मिल सकता है.

जैसा कि किसी बुद्धमान व्यक्ति ने कहा है कि "नाजदीकी फायदे में दूर का नुकसान देखना जरूरी है" यानी कि अल्पकालिक लाभ के लिए किसी को भी दीर्घकालिक नुकसान होने की संभावना का अनुमान लगाने में सक्षम होना चाहिए. अल्पकालिक लाभ के लिए रूस से अपनी घरेलू ईंधन जरूरतों और रक्षा उपकरणों की आपूर्ति का प्रबंधन करने की भारत की क्षमता की वजह से लंबी अवधि में राजनयिक कीमत चुकानी पड़ सकती है. यह भारत को पश्चिम से अलग कर सकती है या इससे भी खराब स्थिति की बात करें तो चीन के खिलाफ अपनी दीर्घकालिक लड़ाई के लिए (दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत में) जिनके (अमेरिका और अन्य पश्चिमी सहयोगियों) समर्थन की जरूरत है उनके साथ भारत के रिश्तों में विपरीत व नकारात्मक असर पड़ सकता है.

(लेखक, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वर्तमान में कार्लटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. ये ट्विटर पर @Deepanshu_1810 पर उपलब्ध हैं. यह लेख एक ओपिनियन है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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