यूक्रेन (Ukraine) के खिलाफ रूसी युद्ध (Russia war) के एक साल ने ऑपरेशन और सामरिक क्षेत्रों से लेकर स्ट्रेटजी और जिओ-पॉलिटिक्स से जुड़े कई सवाल पेश किए हैं. लड़ाई अभी जारी है, और इस दौरान कई सबक मिले हैं, मगर कई चीजों के बारे में अभी अंतिम तौर पर कुछ नहीं जा सकता है.
यूक्रेन में लड़ा जा रहा युद्ध दोनों पक्षों के लिए बहुत अलग है. रूसियों का तथाकथित ‘स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन’ और कुछ नहीं बल्कि दूसरे देश पर सीधा हमला है. यह तोपखाने की जबरदस्त बमबारी और बड़े पैमाने पर पैदल सेना के हमलों का इस्तेमाल करता है और नागरिक सुविधाओं और इलाकों पर हमला करने में झिझकता नहीं है.
दूसरी तरफ, यूक्रेन ने रूस पर बड़े पैमाने पर पलटवार करने से परहेज किया है, वहां के नागरिकों की बात तो छोड़ ही दें. इसका ध्यान तिकड़मों और नए तरीकों से गिनती में अपने से बड़े दुश्मन से निपटने पर है, जिसका मकसद अपनी मातृभूमि पर नुकसान को कम से कम रखना है.
यूक्रेन में लड़ा जा रहा युद्ध दोनों पक्षों के लिए बहुत अलग है. रूसियों का तथाकथित ‘स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन’ (Special Military Operation) और कुछ नहीं, दूसरे देश पर सीधा हमला है.
यूक्रेन ने ‘क्लासिक युद्ध’ से बेहतर रणनीति के जरिये जमीन पर लड़ाई जीतने की कोशिश की है और नागरिकों को नुकसान पहुंचाने से परहेज किया है.
यूक्रेन के लिए तमाम पश्चिमी सिस्टम्स को अपनी सेना में शामिल करना और उन्हें तेजी से और असरदार ढंग से इस्तेमाल करना आसान नहीं होगा.
यूरोप और रूस के रिश्तों पर युद्ध का स्थायी असर होगा. एनर्जी सप्लाई संबंध का टूटना इसका सिर्फ एक हिस्सा है.
भारत और चीन युद्ध से बने जिओ-पॉलिटिकल खेमेबंदी में दखलअंदाजी से परहेज कर रहे हैं. आधिकारिक रूप से दोनों तटस्थ हैं, लेकिन चीन रूस को अपना समर्थन देने के लिए कदम आगे बढ़ा रहा है.
तो जबकि युद्ध में, जिसे लॉरेंस फ्रीडमैन रूस का “टोटल वार” कहते हैं, पूरा यूक्रेन, उसका बुनियादी ढांचा और लोग निशाने पर हैं, उसके मुकाबले यूक्रेन ने “क्लासिक वार” में नागरिकों पर हमला करने से परहेज किया और बेहतर रणनीति के जरिये जमीन पर लड़ाई जीतता दिख रहा है. चूंकि ज्यादातर लड़ाई उसी के इलाके में चल रही है, इसलिए कम गैरजरूरी मौतें और शहरों की तबाही उसके हित में है.
क्या यूक्रेन पश्चिमी देशों के हथियारों को युद्ध में इस्तेमाल कर सकता है?
युद्ध के शुरुआती महीनों में जैवलिन (Javelin)जैसे हाथ में थाम कर चलाए जाने वाले पश्चिमी एंटी-टैंक और एंटीएयरक्राफ्ट हथियारों ने रूसी टैंकों पर कहर ढाया और सैन्य सिद्धांतों में बताई गई टैंकों की उपयोगिता पर सवालिया निशान लगा दिया, लेकिन मसला असल में टैंकों की क्वालिटी का था.
हकीकत यह है कि दोनों पक्षों के सैनिकों की संख्या और मजबूत प्रतिरक्षा की तैयारी को देखते हुए दोनों पक्षों को विवादित क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए टैंकों की जरूरत होगी. इसी बात ने पश्चिम को यूक्रेन को पैदल सेना के युद्धक वाहनों, बेहतर एयर डिफेंस और लंबी दूरी के तोप गोलों और मिसाइलों के साथ टैंक मुहैया कराने को प्रेरित किया है.
मगर यूक्रेन के लिए तमाम पश्चिमी मशीनरी और सिस्टम्स को अपनी सेना में शामिल करने और तेजी से असरदार ढंग से उनका इस्तेमाल करना आसान नहीं होगा. इस बीच यूक्रेन को रूसी हमलों के खिलाफ खुद का बचाव करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है जो बखमुत (Bakhmut) इलाके में लगातार बार-बार जारी हैं. रूसी बार-बार के हमलों को आगे बढ़ने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और अपने खुद के नुकसान को खास महत्व नहीं दे रहे हैं, जो कि बहुत ज्यादा है.
एक नई घटना ड्रोन का एकीकरण है जिसे ‘साझा हथियार युद्ध’(combined arms warfare) कहा जा रहा है. पहले ड्रोन का इस्तेमाल आतंकवादियों को ट्रैक करने के लिए किया जाता था, लेकिन अब इनका इस्तेमाल इंसानों द्वारा चलाए जाने वाले लड़ाकू जेट, हेलीकॉप्टर, गोला-बारूद से लैस ड्रोन, तोपखाने और मिसाइलों के साथ मिलकर किया जाता है. ये नए जमाने की लड़ाइयों की खासियत हैं, जैसा कि अजरबैजान-आर्मेनिया युद्ध और यूक्रेन युद्ध में देखा गया है.
यूक्रेन युद्ध में UAV का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ है, शत्रु और मित्र सेना को ट्रैक करने के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक युद्ध, हमले और निशाना बनाने के लिए.
यूक्रेन युद्ध का जिओ-पॉलिटिकल असर
सामरिक स्तर पर सबसे खास बात है कि जिओ-पॉलिटिक्स का नया रूप उभर रहा है. बुनियादी तौर पर यह ऐसा युद्ध है, जिसने यूरोप को बदल दिया है और US-यूरोप गठबंधन को नई जिंदगी दे दी है. हमेशा तटस्थता की नीति पर चलने वाले देशों ने NATO में शामिल होने का फैसला किया. UK जो रूस के अथाह दौलत के मालिकों (Russian oligarchs) के लिए ऐशगाह था, उसने रूसी धन पर नकेल कसी और रूस पर असामान्य रूप से सख्त रुख अपनाया.
पश्चिमी यूरोप में रूस के सबसे करीबी दोस्त जर्मनी ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ अपनी नीति बदली और फिर से सैन्यीकरण का ऐलान किया और रूसी नेचुरल गैस की खरीद बंद कर दी. EU एक समझदार जिओ-पॉलिटिकल ताकत के रूप में उभरा, जिसने रूस पर कड़ी पाबंदियां लगाईं और यूक्रेन को बड़ी मात्रा में सैन्य मदद मुहैया कराई. युद्ध के एक साल ने दिखाया कि यह एकजुट बना हुआ है.
यूरोप और रूस के रिश्तों पर युद्ध का स्थायी असर होगा. एनर्जी सप्लाई संबंध का खत्म होना इसका सिर्फ एक पहलू है और पाबंदियां जब समय के साथ असर दिखाएंगी तो रूसी अर्थव्यवस्था दशकों पीछे चली जाएगी.
भारत और चीन ने युद्ध से बनी जिओ-पॉलिटिकल खेमेबंदी से दूरी रखी है.आधिकारिक तौर पर वे तटस्थ हैं, लेकिन चीन रूस को समर्थन देने के लिए आगे कदम बढ़ रहा है. इसके अलावा यूक्रेन की घटनाओं ने अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए ताइवान की नाजुक स्थिति के बारे में चेतावनी का काम किया है. एक अलग घटना के रूप में शायद इसने जापान की रक्षा मुद्रा को कठोर बना दिया है.
भारत की G20 की अध्यक्षता और संकट पर अमेरिका की प्रतिक्रिया
युद्ध का जारी रहना प्रधानमंत्री मोदी के इस भरोसे को कमजोर करता है कि यह “युद्ध का समय”(an era of war) नहीं है. मोदी की टिप्पणी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) को नसीहत थी. लेकिन G20 की अध्यक्षता के साथ सुझाव आए हैं कि भारत युद्ध को खत्म करने में मध्यस्थता कर सकता है. यह देश के स्वयंभु विश्व गुरु के दर्जे की पहली परीक्षा भी हो सकती है.
जहां तक भारतीय सेना का संबंध है, उसके स्टाफ और ट्रेनिंग संस्थान युद्ध के सबक पर बारीकी से नजर रखे हुए हैं. इसने सेना से जुड़े सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनने के भारत के संकल्प को मजबूत किया है.
इस बीच चेतावनी की घंटी भी सुनाई दे रही है. यूक्रेन को मदद देने के मुद्दे पर अमेरिकी जनता के बीच समर्थन कम होता जा रहा है. एसोसिएटेड प्रेस और NORC सेंटर फॉर पब्लिक अफेयर्स रिसर्च के एक ताजा सर्वे में बताया गया है कि 48 फीसद ने US को यूक्रेन को हथियार मुहैया कराने का समर्थन किया जबकि 29 फीसद ने विरोध किया और 22 फीसद ने कहा कि उनकी कोई राय नहीं है.
रूसी हमले के तीन महीने बाद 22 मई को 60 फीसद अमेरिकी वयस्कों ने यूक्रेन को हथियार मुहैया कराने का समर्थन किया था. एक तरह से यह अमेरिका में पार्टी समर्थकों के विभाजन की भी बानगी है जहां रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक यूक्रेन को समर्थन के ख्वाहिशमंद नहीं हैं. लेकिन यह बदलाव औसत अमेरिकियों की घरेलू समस्याओं से भी आया है, जहां प्रवासियों, opioid संकट और कई राज्यों में बेघर लोगों की गिनती बढ़ रही है.
लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं.
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