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रूस-यूक्रेन युद्ध: पुतिन के स्टैंड को धर्म और राष्ट्रवाद कैसे दे रहे आकार?

Russia Ukraine War: राष्ट्रवाद और धर्म के कॉकटेल से उत्पन्न समस्याओं का हमें सामना करना चाहिए न कि मौजूदगी से इनकार

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यूक्रेन में जब युद्ध (Russia Ukraine War) दिन-पर-दिन हिंसक होता जा रहा है और भारत पर रूस से दूर अमेरिकी खेमे का हिस्सा बनने के लिए अमेरिकी दबाव बढ़ रहा है- उसी के साथ भारत के लिए अपनी तटस्थता (न्यूट्रल स्टैंड) को बनाए रखना मुश्किल हो रहा है. दोनों महाशक्तियों में से किसी एक को चुनने से भी किसी को कोई मदद नहीं मिलने वाली है.

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भारत के लिए यह संभव है कि वह उस स्टैंड पर कायम रहे, जो उसने अब ले ली है, थोड़ा इधर सुनकर और थोड़ा उधर चुप होकर. भारत आज अपने स्टैंड को स्पष्ट किए बिना भी निकल सकता है. लेकिन आखिर में भारत को सरकार के अंदर और देश के बाहर, दोनों जगह अपने स्टैंड पर सोचना पड़ सकता है.

भारत के लिए एक तरफ यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर केवल जुबानी मदद देना और दूसरी ओर अमेरिका और नाटो को दोहरे मानकों के लिए दोष देना पर्याप्त नहीं है.

यूक्रेन पर रूस के हमले के बीच अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के कई ऐसे गंभीर मुद्दे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के बारे में कई सवाल उठा रहे हैं. कम से कम ऐसे चार मुद्दे हैं जो हलचल कर रहे हैं:

  • पहला मुद्दा आर्थिक और सुरक्षा चिंताओं पर बने गठबंधनों के बारे में है. यूक्रेन में युद्ध को भड़काने वाले वजहों में नाटो का नाम भी शुमार है.

  • दूसरा मुद्दा पड़ोसी देशों में मित्र सरकार से जुड़ा हुआ है. रूसी राष्ट्रपति यूक्रेन के वलोदिमीर जेलेंस्की की सरकार को रूस विरोधी मानते हैं और इसलिए रूस के लिए खतरा भी.

  • तीसरा मुद्दा राष्ट्रवाद है.

  • चौथा मुद्दा धर्म है.

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अंतिम के दो मुद्दे (राष्ट्रवाद और धर्म) यूक्रेन पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के स्टैंड के स्पष्ट वैचारिक कारक हैं. भारत में हमने इनपर पर्याप्त ईमानदारी और स्पष्टता से चर्चा नहीं की है.

गठबंधनों की भूमिका

1991 के आर्थिक सुधारों के बाद यह महसूस किया गया कि भारत को गुटनिरपेक्षता की अपनी रणनीति छोड़नी चाहिए तथा सोवियत संघ के पतन और इकॉनमी के समाजवादी मॉडल की विफलता के बाद भारत को न केवल मार्केट इकॉनमी बल्कि पश्चिम के उदार लोकतांत्रिक मूल्यों को भी अपना लेना चाहिए.

हालांकि उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के बजाय मार्केट इकॉनमी को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया. मतलब था कि सोवियत प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकलकर भारत को अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए.

यही कारण था कि अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के Quad गठबंधन का आक्रामक चीन के लिए आवश्यक काउंटर के रूप में स्वागत किया गया. लेकिन देश के अंदर और विदेशों में उदार लोकतांत्रिक मूल्यों की जरूरत पर चुप्पी दिखाती है कि हम बौद्धिक रूप से राजनीतिक विचारों पर बहस करने के लिए इच्छुक नहीं हैं.

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हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में गठबंधनों की भूमिका पर चर्चा करने की अत्यधिक आवश्यकता है. विशेष रूप से सुरक्षा पर आधारित गठबंधन यह मानते हैं कि छोटे आकार वाले देशों को अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए मजबूत देशों के साथ गठबंधन करने की जरूरत होती है.

पश्चिमी देशों द्वारा अपने गठबंधन का विस्तार करने की इच्छा के अलावा यूक्रेन का नाटो में शामिल होने की चाहत के पीछे रूस जैसे बड़े पड़ोसी देश से खुद को बचाने की चिंता है.

यदि यूक्रेन अपने पूर्वी क्षेत्र में रूसी भाषी जनता से और क्रीमिया के रास्ते से काला सागर तक रूस की पहुंच के मुद्दे से खुद निपट सकता, तो शायद समस्या आज इतनी जटिल नहीं होती. लेकिन इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से जुड़े मानदंडों की जरूरत थी और उन्हें हर महत्वपूर्ण चरण में लागू करने की भी.

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धर्म एक राजनीतिक मुद्दा क्यों है

रूस और अमेरिका की यह इच्छा कि उसके पड़ोसी देशों में मैत्रीपूर्ण सरकार हो, खुद में एक जटिल प्रश्न बना हुआ है. हां यह सच है कि पड़ोसी देश में मित्रवत सरकार का होना वास्तव में एक फायदा है लेकिन यह पड़ोसी देश के लोगों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए कि वे अपनी पसंद से सरकार चुनें.

भारत ने नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव में बिना मित्र सरकारों के रहना सीख लिया है. भारतीय शासक वर्गों में यह प्रबल इच्छा रही है कि पड़ोस में एक मित्रवत सरकार हो, लेकिन जमीनी परिस्थितियों ने इसे साकारा नहीं होने दिया है, खासकर नेपाल और श्रीलंका में.

दूसरे देश में सरकार बदलने की कोशिश को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक विघटनकारी कारक के रूप में देखा जाना चाहिए और इसे त्याग दिया जाना चाहिए.

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों में राष्ट्रवाद और धर्म साथ उलझे हुए आते हैं. इसे अब और अनदेखा करना ना ही आवश्यक है और ना ही सही. पुतिन के यूक्रेन नीति पर राष्ट्रवाद और धर्म का जोर दिखता है., लेबनान से लेकर नाइजीरिया और वहां से लेकर फ्रांस- पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप में धर्म विवाद का विषय है.

अधिकतर मामलों में राष्ट्रवाद की पहचान वहां के बहुसंख्यक धर्म से की जाती है और राष्ट्रीय वफादारी और खास धर्म से संबंध बहुसंख्यक के अत्याचार का प्रतीक बन जाती है.
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पिछले कुछ वर्षों में भारत में राष्ट्रवाद और धर्म के मुद्दे पर टकराहट बढ़ी है, जहां हिंदू धर्म को खतरनाक रूप से राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा गया है और अल्पसंख्यक धर्मों को राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा पकड़ाया जा रहा है.

बीजेपी और उसके मुखर समर्थक निश्चित रूप से इन आरोपों से इनकार करते हैं भले ही उनका भी इसमें हाथ है. दूसरी तरफ लिबरल और कुछ वामपंथी अभी भी इस बात को मानने से इंकार कर रहे हैं कि धर्म वास्तव में एक राजनीतिक मुद्दा है, भले ही वह कितना ही विस्फोटक और असंगत क्यों न हो.

हमें राष्ट्रवाद और धर्म के इस कॉकटेल से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का सामना करना चाहिए, ना कि इस बात से ही इनकार करना चाहिए कि इसकी कोई वैधता नहीं है.

बीजेपी को अपनी धार्मिक राजनीति छोड़ने और उस धर्मनिरपेक्ष मानसिकता को स्वीकार करने के लिए कहने का कोई मतलब नहीं है जिसे कई पश्चिमी लोकतंत्रों में परिभाषित किया गया है. तथ्य यह है कि धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पश्चिमी देश समेत अन्य जगहों पर खुद टूटी-फूटी पड़ी है.

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इनकार से बाहर आना

राजनीति सहित सार्वजनिक क्षेत्र में धर्म एक फैक्टर बना रहेगा और उन सभी के बीच निष्पक्ष कंपटीशन होना चाहिए जैसा की कई गैर-धार्मिक राजनीतिक विचारधाराओं के बीच होता है.

ऐसा प्रतीत होता है कि यूक्रेन और रूस में ऑर्थोडॉक्स चर्च के एकसमान आधार और साझी रूसी भाषा के बावजूद क्षेत्रीय विकास के आधार पर मतभेद हैं और दोनों के हितों में टकराव हैं.

यूक्रेन एक क्षेत्र के रूप में रूस से एक अलग दिशा में आगे बढ़ रहा है. रूस और यूक्रेन में ऑर्थोडॉक्स चर्च को मानने वाले अपने-अपने देशों के साथ खड़े हैं. रूस आर्कटिक, साइबेरियन, यूरोपीय और यूरेशियन भागों जैसे कई आंतरिक विविधताओं के बावजूद अभी भी एक स्लाव राष्ट्र (Slavic nation) बना हुआ है.

इन मुद्दों पर बातचीत शुरू करने के लिए यह सबसे अच्छा समय है, और साथ ही यह हमारे कई हठधर्मी स्टैंड से बाहर निकलने का एक मौका भी है.

(लेखक नई दिल्ली में बेस्ड एक राजनीतिक पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @ParsaJr है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं.)

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