युवा पत्रकार और लेखक सारंग उपाध्याय (Sarang Upadhyay) की उपन्यास सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी (Salaam Bombay Via Versova Dongri) को मैं एक प्रेम कहानी का नाम देना ज्यादा उचित समझूंगा. बॉम्बे से मुंबई बनी देश की आर्थिक राजधानी अपनी विषमताओं के लिए प्रसिद्ध है और सारंग ने बेहद खूबसूरती और जिस बारीकी से इस बदलाव को शब्दों में उकेरा है, वह अद्भुत है. उपन्यास के चरित्र, जिनकी अपनी-अपनी दुनिया है और देश में घट रही घटनाएं, उनको कैसे प्रभावित करती हैं, कैसे उनकी जिंदगियों में यू-टर्न लाती हैं, उसे सरल भाषा में मात्र 11 किस्सों में लिखना आसान काम नहीं है.
सारंग स्वयं जिस कालखंड में जन्मे, उस वक्त के घटनाक्रमों को उन्होंने अपने उपन्यास में जगह दी है. यहां सारंग के अंदर का पत्रकार साफ नजर आता है. अस्सी के दशक से लेकर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के बॉम्बे और मुंबई की दूरी को ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़ते हुए सारंग ने लिखा है. निश्चित ही अपने मुंबई प्रवास के दौरान लेखक ने इन घटनाओं की चर्चाओं को बहुत बारीकी से सुना और समझा है. उपन्यास को पढ़कर यूं लगता है कि लेखक वर्सोवा, डोंगरी, अंधेरी, चर्चगेट, भाऊ चा धक्का, कोलाबा और मच्छी बाजारों से रोज गुजरता है.
अरफाना और जालना के संवादों के माध्यम से इस्लाम, कुरान, बहुविवाह, वारिस, पोतों, नवासों का जिक्र बेबाकी से लेखक ने किया है, वह सराहनीय है. अमूमन लेखक धर्म या मजहब को लेकर इतनी साफगोई से लिखने से बचते हैं, लेकिन सारंग की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने न केवल इस्लाम की बारीकी को समझा, बल्कि लिखने की हिम्मत भी जुटाई. साथ ही, समाज के उस चेहरे को भी दिखाने की कोशिश की है, जहां पितृसत्ता आज भी हावी है. तभी तो जालना दूसरे निकाह को सही ठहराते हुए कहता है, अरे लड़के के लिए ही तो निकाह किया है मैंने. तेरे से ना मिला तो दूसरी औरत से हासिल कर लिया.
दरअसल, यह हमारे समाज की एक सच्चाई भी है. सारंग ने अरफाना के जीवन के घटनाक्रमों को सुंदर ढंग से शाहबानो प्रकरण से जोड़ा है और उस कालखंड में मुस्लिम समाज में चल रहे द्वंद्व को दर्शाया है.
अरफाना और जालना की इकलौती बेटी सायरा के इर्द-गिर्द ही यह पूरा उपन्यास गढ़ा गया है. सायरा के चरित्र को जिस बेबाकी से सारंग ने उकेरा है, उसको बयां करने के लिए शब्द कम पड़ सकते हैं. सायरा की सुंदरता को सारंग ने कुछ यूं बयां किया है, उसके कसे, करीने से तराशे बदन की चाल में चुस्ती और रफ्तार थी. गेहुंआ रंग, तीखी नाक, गालों में पड़ते डिम्पल, सुंदर होंठ और खुदा की फुरसत से बना उसका चेहरा किसी मत्स्य कन्या से कम नहीं था. इतना सुंदर वर्णन तो अभिज्ञान शाकुन्तलम् में महाकवि कालिदास ने शकुंतला का ही किया है. लेखक ने सायरा के रूप में मुंबई की एक आत्मनिर्भर स्त्री को भी दिखाने की कोशिश की है.
उपन्यास में कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का चरित्रों के जीवन को जोड़ते हुए जो वर्णन है, उसके लिए सारंग की तारीफ की जानी चाहिए. अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहने के बीच जालना और उसके दोस्त दत्ता तामोरे के बीच जो संवाद है, वह समाज के असली चेहरे को उजागर करने वाला है. या गिरा दी गई, क्या फर्क पड़ता है? वहां कौन जाता था? कौन-सी वहां पांच वक्त की नमाज हो रही थी? गिरा भी दी गई थी तो दूसरी जगह बना लो. हिंदू भाई की जमीन पर ही बनी है तो दूसरी जगह बना लो. उन्हें बनाने दो मंदिर. इतना भी क्या बवाल हो गया? हम तो समुन्दर किनारे ही या फिर नाव में नमाज पढ़ लेते हैं. न भी पढ़ें तो कौन सा अल्लाह केवल हमारी आवाज सुनने को लिए बैठा है.
दत्ता का भी जवाब बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है, राम जी को देखने तो मैं कभी नासिक नहीं गया, तो जीवन में अयोध्या क्या जाऊंगा? रामजी वहां भले और हम लोग यहां.
लेखक ने वर्ष 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लॉस्ट का जिक्र अपने उपन्यास के चरित्र अरफाना, सुरेखा और रघु के रूप में किया है, लेकिन उसने हर उस मुंबईवासी को इनके माध्यम से दर्शाने की कोशिश की, जो इस आतंकी घटना से प्रभावित हुआ था. उस दौर का मुंबई कुछ ऐसा टूट गया था कि आदमी को आदमी पर विश्वास नहीं रहा था.
रघु और सायरा के प्रेम से उपन्यास शुरू हुआ और उन्हीं के प्रेम पर इसका समापन हुआ है. दोनों की प्रेम कहानी सस्पेंस से भरी हुई है. हर क्षण जिस तरह से कहानी बदली है, वह तेजी से उपन्यास को पढ़ने के लिए विवश करती है. पाठक मजबूर हो जाता है कि वह जल्द से जल्द इस उपन्यास के अंत तक पहुंचे. सारंग उपाध्याय के उपन्यास पर यदि मुझे दस में से नंबर देने पड़ेंगे तो मैं दस नंबर दूंगा.
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