(यह आर्टिकल पहली बार 11 दिसंबर 2023 में पब्लिश की गई थी. सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को हुआ था. आज उनकी बर्थ एनिवर्सरी पर इस आर्टिकल को दोबारा पब्लिश किया गया है.)
भारत के लोगों ने जिंदादिली और जोश से भरपूर फील्ड मार्शल सैम एचएफजे मानेकशॉ एमसी (Field Marshal Sam HFJ Manekshaw MC) की जिंदगी पर बनी फिल्म सैम बहादुर (Sam Bahadur) में एक आदर्श ‘ऑफिसर और जेंटिलमैन’ को सुखद अनुभूति के साथ देखा. इस वक्त यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या सभी आदर्शों पर खरे दमदार शूरवीरों में वह आखिरी शख्स थे या क्या कोई और सैम बहादुर होना मुमकिन है?
सैन्य जगत के लोग करियप्पा, थिमैया, हरबख्श, अर्जन, डॉसन, सगत या हनूत को उन नायकों की शानदार परंपरा में याद कर सकते हैं, जिन्होंने अपने संस्थानों के लिए खुद से भी बढ़कर अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया. लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में उनको कोई ऐसा शख्स नहीं मिला जो उनके कद का वैसा ही जनरल (या उनके बराबर) हो.
ऐसा क्यों?
सच्ची हमदर्दी रखने वाला एक सच्चा महान-योद्धा
हम ऐसे वक्त में जिंदगी गुजार रहे हैं, जहां हम इतिहास के सम्मानित नायकों को उनकी अजीब मानवीय नाकामियों को चुन-चुन कर और इतिहास की पुनर्कल्पना/फिर से चर्चा (दिमागी कल्पना से, और अक्सर झूठी) कर उत्साहपूर्वक नीचा दिखा रहे हैं और ऐसे नायकों को तैयार कर रहे हैं, जो आज के दौर में फिट बैठते हैं– जिंदगी को भरपूर जीने वाले सैम बहादुर अपनी अजीब खासियतों और अंग्रेजियत की हनक के साथ अपने अनोखे तौर-तरीकों, कड़क मिजाजी और उनसे जुड़े किस्सों के साथ एक अबूझ पहेली वाले नायक बने रहेंगे!
शायद ‘बेदखली गुट’ को समझ में आता है कि सैम मानेकशॉ पर सवाल उठाना भारतीय सशस्त्र बलों की आत्मा और डीएनए पर सवाल उठाने जैसा होगा और उनके लिए बेहतर होगा कि इसकी बुनियाद को धीरे-धीरे और ज्यादा समझदारी के साथ सामान्यीकृत ‘तरीकों’ से, मिलीभगत और खामोशी से निशाना बनाया जाए. यह तथ्य कि फिर कोई दूसरा सैम बहादुर नहीं हुआ, अफसोसनाक रूप से दमनकारी ‘सिस्टम’ की शैतानी और बुरी ताकतों की कामयाबी का आईना है.
सैम बहादुर बुनियादी रूप से बीते दौर और माहौल की देन थे और इसलिए वह उन सभी संवेदनाओं और कहने-सुनने की गुंजाइश की बानगी थे, जो उस वक्त के हालात में अभी भी जारी रखी जा सकती थी और सच्चे मायनों में वह एक अल्फा-वॉरियर थे, जिसमें अपने सैनिकों के लिए भरपूर सहानुभूति थी. इन बातों ने उन्हें हकीकत में महान बनाया.
इसके साथ ही यहां याद किए गए दूसरे दिग्गजों की तरह, इनमें से हर एक ‘यूनिफॉर्म’ की गरिमा को ध्यान में रखते हुए गरिमापूर्ण तरीके से 'सिस्टम' के सामने डटा रहा था, लेकिन कभी भी तुच्छ पक्षपाती तरीकों या सीना-ठोकने वाले अंधराष्ट्रवाद का सहारा नहीं लिया. उन दिनों नायक खुल्लमखुल्ला लड़ाई लड़ते थे और कई बार ‘सर्वोच्च बलिदान देकर’ तिरंगे में लिपटकर वापस आते थे.
ये ऐसे लोग नहीं थे, जो सिर्फ हमारे किसी ‘अपने’ को खत्म करने के लिए अपनी सुविधा से खुद को तिरंगे में लपेट लेते हैं, वह भी खुद को बचाते हुए सुरक्षित दूरी से या किसी पक्षपाती या ‘वे लोग’ वाले मकसद के लिए.
भारतीय सेना की यूनिफॉर्म पहनने वाले नायकों का हमेशा समावेशी और सीमित एजेंडा होता था, जैसा कि भारत के संविधान द्वारा तय किया गया है. वे कट्टर संविधानवादी थे और समाज, पक्ष, क्षेत्र या पूर्वजों को लेकर किसी पसंद या नापसंद से संचालित नहीं होते थे.
सैम के नैतिक बल और खरे स्वभाव से विरोधी खौफ खाते थे
सैम बहादुर की पीढ़ी के फौजियों ने ‘भारत के विचार’ को जन्म दिया, पाला-पोसा और उसे आकार दिया, क्योंकि उनके लिए भारत सबसे पहले और सबसे अहम एक साहसी ‘विचार’ था, जो किसी जनजाति या बहुसंख्यक को विशेषाधिकार देने पर केंद्रित नहीं था, बल्कि सबको विशेषाधिकार देने पर केंद्रित था.
सैम बहादुर जैसे लोगों ने धर्म, क्षेत्र, जातीयता या किसी और आस्था के आधार पर कभी किसी को कमतर या बेहतर नहीं माना, बल्कि उनके चरित्र और व्यवहार के आधार पर फैसला लिया, मगर उन्होंने खुलकर विविधता का स्वागत किया और पहचान का आदर किया. उदाहरण के लिए पारसी सैम बहादुर का पंजाब में जन्म और परवरिश हुई और तमिलनाडु में निधन हुआ, जो अपने ‘गोरखा’ पहनावे में ग्लैडिएटर की तरह दिखते थे और वैसा ही अंदर से महसूस करते थे.
उन्होंने मतभेदों को इज्जत दी. उन्होंने एक-दूसरे के पेशेवर फैसलों पर बहस की लेकिन कभी उनके मकसद पर सवाल नहीं उठाया. उनमें सत्ता के गलियारों की राजनीतिक समझ थी, लेकिन उनमें इससे भी ज्यादा समझदारी थी कि कभी पक्षपाती फैसलों के आगे सिर नहीं झुकाया. वे ‘दिल्ली’ या अफसरशाही या राष्ट्रवाद से अनजान नहीं थे. वे जानते थे कि भारत नाम के महान विचार के लिए पवित्र लड़ाई कुछ लोगों के लिए आरक्षित नहीं है, बल्कि इसके उलट, बिना किसी डर या पक्षपात के अपनी मर्जी के हिसाब से हर एक के लिए है. आज, सबकी भागीदारी के बजाय चुनिंदा लड़ाई पर ज्यादा जोर है.
फिल्म में सैम बहादुर के ऐसे दृश्य हैं, जो संस्थागत चिंताओं के बारे में बेहद सुरक्षात्मक और मुखर हैं और राजनेताओं और नौकरशाहों से इनका बचाव कर रहे हैं, जिनका निहित एजेंडा था/हो सकता था (हमेशा से रहा है). खास बात है कि वह उन्हें अपने सीमित एजेंडे के बारे में भरोसा दिलाते हैं जो सेना पर नागरिक नियंत्रण को खत्म करने या अपने वेतन से परे जाने की कोशिश नहीं करता है.
सैम का नैतिक बल और उनका खरापन विरोधियों में (नियंत्रण रेखा के उधर और इधर) खौफ पैदा करता था और वह कट्टर ईमानदार रहे, भले ही इससे जिसको भी ठेस पहुंचती हो. वह हमेशा सही और सम्मानजनक तरीके से पेश आते थे, लेकिन कभी कोई उनसे जबरदस्ती नहीं कर सकता था. गरिमा, हौसले और शालीनता का यह ताकतवर मेल कई मौकों पर दिखा, जो भारत के एक विचार और संप्रभु राष्ट्र के रूप जैसा ही था. वह जानते थे कि पक्षपात या रूढ़िवाद के सामने झुकने से संस्था को नुकसान होगा. क्या स्वतंत्र आत्मा की ऐसी ही कोई आजाद, मुखर और थोड़ी सी चंचल आवाज आज भी अस्तित्व कायम रख सकती है?
सैम बहादुर जैसे सुरक्षित नेता ने सत्ता के दुरुपयोग की निंदा की और ‘दुश्मन’ को भी अपने जैसा ही इंसान समझने और उनको अपने राष्ट्रध्वज के देशभक्त के रूप में मान्यता दी, मगर यह भारत की प्राचीन सभ्यता-संवैधानिक शालीनता के जैसा था. इस तरह के नजरिए से वह किसी असल युद्ध में कमजोर या कम साहसी नहीं हो जाते हैं, क्योंकि इस योद्धा ने एक बार अपने सीने पर सात गोलियां खाई थीं. आज के डर फैलाने वाले दौर का स्रोत मनगढ़ंत आक्रोश है, जो बहादुरी का दिखावा करता है, मगर है इसके उलट. लेकिन सैम बहादुर वह होने का दिखावा नहीं कर सकते थे, जो वह नहीं थे.
वह अपने ‘तरीकों’ को लेकर कतई बचाव की मुद्रा में नहीं थे क्योंकि उन्हें देशभक्ति पर किसी के लेक्चर की जरूरत नहीं थी, भले ही उनकी पेशेवर प्रेरणा किसी विदेशी स्रोत (जन्म के प्रदर्शन के बिना) या अपनी सुसंकृत सामाजिक पृष्ठभूमि से हासिल की हो सकती थी. क्या ऐसा शख्स पश्चिम से जुड़ाव या देशी शुद्धतावाद के अभाव को लेकर आलोचनाओं से बचा रह सकता है?
सैम की विरासत भारतीय सैनिकों में जिंदा है
हर चीज से ऊपर, सैम बहादुर उन गुमनाम और अक्सर भुला दिए गए भारतीय सेना के सैनिकों के लिए दृढ़ विश्वास और प्रतिबद्धता के साथ खड़े थे, जो शानदार विविधता के साथ भुल्ला (कुमाऊंनी/गढ़वाली), गोरखा, थम्बी (मद्रासी सैनिक), नागा, डोगरा कोई भी हो सकता था, जो भारतीय सैनिक था, और इसलिए भारत था.
उन्होंने साझा धरातल की तलाश में तमाम अंतर्निहित मतभेदों से परे देखा जिन्हें संविधान में भारत के विचार में जगह दी गई है, जो हमें एक साथ बांधता है, न कि कोई हास्यास्पद ‘सुधार’ या पवित्रता जो उस असल परिभाषा के विपरीत है, जो संविधान निर्माताओं द्वारा तय की गई थी. भारतीय सैनिकों की विविधता की रक्षा करने के अपने तरीके से वह न्याय, समता और निष्पक्षता के लिए अपने अथक जुनून से ‘भारत के विचार’ की हिफाजत कर रहे थे.
इसलिए, किसी भी मोर्चे या चौकी पर भारतीय सैनिक सैम बहादुर को अपने लीडर के रूप में पहचानते थे, रैंक बताने वाले वर्दी पर लगे उनके एपॉलेट्स से नहीं, बल्कि अपनी बनावट से ही ‘आवाज रहित’ संगठन में उनकी ‘आवाज’ बनने के लिए.
सैम के दिल का बड़प्पन (भले ही देखने और सुनने में पश्चिमीकृत लगे) दूर-दराज के इलाकों के सभी भारतीय सैनिकों के दिलों को छूता था और इसके लिए किसी दिखावे, नाटकीय रूप से तलवार भांजने या किसी को बेइज्जत करने की जरूरत नहीं थी.
वह सैनिकों के जनरल थे, जिसे कोई तय भाषा बोलने, तय कपड़े पहनने, देशीपन पर जोर देने, किसी की मर्जी के मुताबिक खाने-पीने की जरूरत नहीं थी. वह सिर्फ सैम बहादुर थे, किसी अंग्रेज से ज्यादा अंग्रेज, लेकिन साथ ही बेहद ईमानदार और शानदार भारतीय, जैसा कि कोई भारतीय हो सकता है. उनके जीवन की महागाथा में भारत का बड़प्पन, शान और बड़ा दिल था. बहुत से लोग यह भूल जाते हैं कि यह सब नेहरू, शास्त्री के वक्त में था और निरंकुश इंदिरा गांधी के समय में वह सेना प्रमुख के रूप में उन्होंने खुद पर कोई बौद्धिक, राजनीतिक या यहां व्यक्तिगत दबाव को स्वीकार नहीं किया.
सोचिए...आज कोई निंदा, सजा या नीचता भरे आरोपों और खारिज किए जाने के बिना, उन कदमों की नकल कर सकता है और उन कदमों पर चल सकता है, तो यह सच से मुंह मोड़ना होगा.
सैम बहादुर एक कद्दावर शख्सियत की तरह जिए और उनकी विरासत भारतीय सैनिकों में जिंदा है. यह सम्मान मौजूदा नेतृत्व (सैन्य और राजनीतिक दोनों) को कायम रखना है लेकिन जो माहौल है, वह ताकत के बजाय कमजोरी पर आधारित है. दूसरा सैम बहादुर जल्द नहीं मिलने वाला है. तब तक, सैम बहादुर के जीवन को ‘भारत’ के जीवन के रूप में देखें जो, भव्य, उदार, निश्चित रूप से सबका ध्यान रखने वाला है लेकिन बात जब संप्रभुता और सिर्फ चंद लोगों नहीं बल्कि सभी की गरिमा की रक्षा की आती है, तो कहर बन जाता है.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और सभी विचार लेखक के निजी हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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