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कश्मीर और आर्टिकल 370 का खत्म होना: सत्यपाल मलिक के इंटरव्यू के क्या मायने हैं?

संविधान के अनुच्छेद 367 में बदलाव कर अनुच्छेद 370 की शब्दावली में बुनियादी बदलाव से बहुत से सवाल उठते हैं.

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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष संवैधानिक दर्जे की गारंटी देता था. इसके 5 अगस्त 2019 को खात्मे के करीब चार साल बाद भी इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं किया गया है. हालांकि द वायर द्वारा 14 अप्रैल को रिलीज पत्रकार करण थापर द्वारा राज्य के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक के एक इंटरव्यू ने दूसरी बातों के साथ-साथ इस अनुच्छेद के खात्मे की वैधता पर बहस को फिर से जिंदा कर दिया है.

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सत्यपाल मलिक ने निरसन पर कुछ महत्वपूर्ण बातें साझा की हैं, खासतौर से उस मंजूरी के बारे में जो उन्होंने संविधान (जम्मू और कश्मीर पर लागू) आदेश, 2019 को दी है, जिसने अनुच्छेद 370 समेत इसके तहत जारी किए गए, पिछले सभी आदेशों को रद्द कर दिया था. बता दें कि जम्मू-कश्मीर उस समय राष्ट्रपति शासन के अधीन था, इस वजह से राष्ट्रपति के संवैधानिक आदेश पर राज्यपाल ने सहमति दी. मलिक के अनुसार उन्हें 4 अगस्त की रात को अगली सुबह (5 अगस्त) 11 बजे तक मंजूरी देने के लिए कागजात भेजे गए थे.

उन्होंने आगे कहा कि चूंकि दिल्ली में नेतृत्व ने निरस्त करने का फैसला कर लिया था, इसलिए उनको केवल यह सूचित किया गया था कि कागजात पर उनके दस्तखत की जरूरत है और वह उन्हें करना ही होगा.

केंद्र के एजेंट के रूप में राज्यपाल

सत्यपाल मलिक यह बात साफ कर चुके हैं कि अनुच्छेद 370 का खात्मा करने में असल में क्या हुआ, मगर दिलचस्प बात यह है कि उन्हें अनुच्छेद को निरस्त करने के 2019 के राष्ट्रपति के आदेश के लिए मंजूरी देने में कोई दिक्कत नजर नहीं आती है. ऐसे में यह पता लगाना जरूरी हो जाता है कि क्या वह राज्य के राज्यपाल के रूप में राष्ट्रपति के आदेश के लिए मंजूरी देने, जिसने अनुच्छेद को निरस्त कर दिया था, के लिए कानूनी रूप से सक्षम थे.

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अनुच्छेद 370 साफ तौर से बताता है कि अनुच्छेद को निरस्त करने के लिए सिफारिश करना राज्य के राज्यपाल की क्षमता के भीतर नहीं था. अनुच्छेद 370 के उपधारा 3 में साफ कहा गया है कि अनुच्छेद के निरसन के लिए राज्य की संविधान सभा की सिफारिश जरूरी है. इसका मतलब यह है कि राज्य की विधानसभा भी ऐसी सिफारिश नहीं कर सकती थी, राज्यपाल तो दूर की बात है.

भारत में राज्यपाल की शक्तियों का एक मूल सिद्धांत यह है कि राज्य का राज्यपाल केंद्र का एजेंट होता है. राज्यपाल आमतौर पर राज्य या राज्य के ‘लोगों की इच्छा’ की नुमाइंदगी नहीं करता है. राज्यपाल, एक निर्वाचित सरकार की गैरमौजूदगी में सिर्फ राज्य के रोजमर्रा के कामकाज के लिए ‘प्रशासनिक शक्तियों’ का ‘इस्तेमाल’ कर सकता है.

हालांकि, एक राज्यपाल किसी हालत में किसी राज्य के लोगों की ओर से ‘विचार/राय’ ‘अभिव्यक्त’ नहीं कर सकता है, क्योंकि यह कानूनी रूप से और राजनीतिक रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों (विधानसभा) का कार्यक्षेत्र है. मगर ठहरिये! जैसा कि ऊपर तर्क दिया गया है, अनुच्छेद 370 अपनी उपधारा 3 में, अनुच्छेद के किसी भी तरह के बदलाव के लिए राज्य के लोगों की नुमाइंदगी पर जोर देने के मामले में ऊंचे मानक रखता है, क्योंकि इसमें ‘संविधान सभा’ की सिफारिश को अनुच्छेद के वापस लेने/खत्म करने के लिए जरूरी बताया है.

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अनुच्छेद 370 की शब्दावली में फेरबदल?

यहां यह बताना जरूरी है कि केंद्र सरकार ने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है कि अनुच्छेद 370 में सिर्फ उस इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन की शर्तों को दर्ज किया गया था, जिस पर 1947 में राज्य के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने डोमिनियन ऑफ इंडिया के साथ हस्ताक्षर किए थे. मैंने एक बार कहा था कि अनुच्छेद 370 दो संप्रभु इकाइयों के बीच एक समझौता था, जो किसी संधि से कम नहीं था. यही वजह है कि इसको खत्म करने के लिए राज्य की संविधान सभा की मंजूरी की बड़ी शर्त का पालन जरूरी किया गया था.

इस तर्क के हिसाब से संधि के पक्षकारों में से किसी एक द्वारा किया गया कोई भी एकतरफा बदलाव पैक्टा संट सर्वंडा (pacta sunt servanda यानी समझौते/संधियां का ईमानदारी से पालन होना चाहिए) के सिद्धांत- यानी उस बुनियादी सिद्धांत जो अनुबंध के दायित्वों को आधार है और जो अब अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा है, का उल्लंघन होगा. इसके साथ ही इस तथ्य के मद्देनजर कि 26 जनवरी 1956 को राज्य की संविधान सभा को भंग कर दिया गया था, यह तर्क दिया जा सकता है कि अनुच्छेद 370 ने स्थायी चरित्र हासिल कर लिया था

समय-समय पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी परोक्ष रूप से यही बात दोहराई गई थी और अनुच्छेद को निरस्त करने के लिए राज्यपाल की मंजूरी की वैधता और राजनीतिक नैतिकता के सवालों को बल देता है.

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लेकिन केंद्र सरकार ने अनुच्छेद को निरस्त करने के लिए जिस प्रक्रिया का इस्तेमाल किया, उसे कैसे सही ठहराएगी? क्या राष्ट्रपति को अनुच्छेद 367 का सहारा लेकर अनुच्छेद 370 को बदलने का अधिकार था, जैसा कि 2019 के कांस्टीट्यूशन एप्लीकेशन ऑर्डर से किया गया था? क्या ‘राज्य की संविधान सभा’ (Constituent Assembly of the state) के उल्लेख को ‘राज्य की विधान सभा’ (legislative assembly of the state) से, और आगे चलकर राज्य के ‘राज्यपाल’ (Governor’ of the state) से बदला जा सकता है?

पहली बात, केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने को सही ठहराने के लिए अनुच्छेद 367 में संशोधन करके अप्रत्यक्ष रूप से वह किया है जो वह प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकती थी. यह ताकत का गलत इस्तेमाल है, जिसे सुप्रीम कोर्ट बार-बार खारिज कर चुका है. दूसरी बात, अनुच्छेद 367 में संशोधन करके अनुच्छेद 370 को निरस्त करना राजनीतिक और संवैधानिक दोनों पैमानों से गलत है क्योंकि यह निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्य की ‘लोगों की इच्छा’ (will of the people) को कमतर कर देता है.

क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक प्रक्रिया और कानून के शासन के इस तरह के दुरुपयोग के सवालों पर ध्यान देगा, वह जब कभी भी याचिकाओं पर सुनवाई करे, यह देखा जाना बाकी है.

(बुरहान माजिद NALSAR यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद में डॉक्टरेट फेलो हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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