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Satyendra Jain की गिरफ्तारी से ED के मंसूबे और गिरफ्तारियों पर फिर खड़े हुए सवाल

Satyendra Jain से लेकर P Chidambaram तक के मामलों में दम हो सकता है, जिस तरह से कार्रवाई की है उसमें दिक्कते हैं,

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दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन(Satyendra Jain) की 30 मई की गिरफ्तारी के बाद से मानो बयानबाजियों का राजनीतिक युद्ध छिड़ गया. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दावा किया कि हिमाचल प्रदेश के आगामी चुनावों के मद्देनजर ED बीजेपी के इशारे पर नाच रही है.

एजेंसी ने सोमवार 6 जून को सत्येंद्र जैन के घर पर छापे मारे और इसे मामले का ‘फॉलोअप’ कहा.

इस गिरफ्तारी से पहले भी ईडी देश भर में विपक्षी नेताओं को निशाना बना चुकी है, पी. चिदंबरम और उनके बेटे कार्ती से लेकर डीके शिवकुमार और नवाब मलिक तक. अब इस मुद्दे पर एक बार फिर से विवाद खड़ा हो गया है.

बेशक ये आरोपी राजनीतिक शख्सीयतें हैं और ईडी विपक्षी नेताओं को चुन-चुनकर निशाना बना रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि इन मामलों में कोई दम नहीं है.

लेकिन अगर इन मामलों में दम है भी, तो भी ईडी ने जिस तरह इन मामलों में कदम बढ़ाए हैं, उनमें दिक्कतें हैं, जिसके कारण कई कानूनी चिंताएं पैदा होती हैं. हम उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट जल्द ही उन पर बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाएगा.
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सत्येंद्र जैन वाला मामला, इनमें से कुछ मुद्दों की तरफ सबका ध्यान खींचता है, खास तौर से ईडी किस तरह गिरफ्तारियां करती है, और कस्टडी की मांग करती है- उन मामलों में भी जहां आरोपी को कस्टडी में रखे बिना भी, जांच आसानी से की जा सकती है.

स्नैपशॉट
  • दिल्ली के मुख्यमंत्री सत्येंद्र जैन को ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार किया है. उन पर सीबीआई ने 2017 में आय से ज्यादा संपत्ति के सिलसिले में एक मामला दर्ज किया था.

  • ईडी ने सुप्रीम कोर्ट के अर्नेश कुमार दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जिसके तहत अगर किसी मामले में सजा 7 साल या उससे कम है तो गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए.

  • इसका मतलब यह है कि आरोपी को गिरफ्तार कर लिया जाता है, भले ही उसके देश को छोड़कर जाने का जोखिम न हो और वे सबूतों से छेड़छाड़ नहीं कर सकते हों, जोकि डॉक्यूमेंटरी हैं और ईडी के कब्जे में हैं.

  • सुप्रीम कोर्ट को जल्द ही फैसला करना है कि क्या ईडी की यह दलील सही है कि सीआरपीसी उनके मनी लॉन्ड्रिंग मामलों पर लागू नहीं होती.

  • ईडी के तहत गिरफ्तारियां आसान हैं क्योंकि ईसीआईआर उपलब्ध न होने के कारण आरोपी को अग्रिम जमानत/संरक्षण मिलना मुश्किल होता है.

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सत्येंद्र जैन का मामला और पीएमएलए मामलों की प्रकृति

ईडी का मुख्य काम प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट 2002 (पीएमएलए) के तहत अपराधों पर मुकदमा चलाना है.

मनी लॉन्ड्रिंग का अपराध, ज्यादातर क्रिमिनल मामलों की तरह, एक अकेला अपराध नहीं है. इसकी परिभाषा बताती है कि इस तरह के अपराध की तब शुरुआत होती है, जब किसी अन्य आर्थिक अपराध से प्राप्त आय को अवैध तरीके से निपटाया गया हो, यानी उसे छिपाकर, उसे व्हाइट मनी के तौर पर पेश किया जाता है.

PMLA में एक अनुसूची है, जिसमें विभिन्न कानूनों के तहत परिभाषित अपराधों को सूचीबद्ध किया गया है. अगर पुलिस या सीबीआई या टैक्स अधिकारी इस अनुसूची में शामिल किसी भी अपराध (जिन्हें पीएमएलए के लिए अनुसूचित अपराध कहा जाता है) की जांच कर रहे हैं तो ईडी भी इन अपराधों से होने वाली आमदनी के स्रोत का पता लगाने के लिए जांच शुरू कर सकती है

2017 में भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत केंद्रीय जांच ब्यूरो ने सत्येंद्र जैन और कुछ दूसरे लोगों पर एक एफआईआर दर्ज की. इस मामले की शुरुआत वहां से हुई. सीबीआई का आरोप है कि फरवरी 2015 से मई 2017 तक सत्येंद्र जैन ने आय के घोषित स्रोतों से अधिक संपत्ति हासिल की.
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सीबीआई ने आरोप लगाया है कि सत्येंद्र जैन ने उन चार कंपनियों के जरिए दौलत कमाई जो उनके और उनके परिवार के स्वामित्व और नियंत्रण में हैं. माना जाता है कि यह रुपया कोलकाता में शेल कंपनियों के बही खातों में ‘एकमोडेशन इंट्रीज़’ (यानी हवाला ट्रांसफर) के रूप में आया था.

ईडी के पिछले बयानों के मुताबिक, चारों कंपनियों को मिली रकम 4.81 करोड़ रुपये थी. सीबीआई ने दिसंबर 2018 में एक आरोप पत्र दायर किया जिसमें कहा गया था कि सत्येंद्र जैन ने खुद 1.47 करोड़ रुपये की संपत्ति अर्जित की थी, जो कि उनकी ज्ञात आय से 217.20 प्रतिशत अधिक थी, जैसा कि इकोनॉमिक टाइम्स ने उस समय खबर दी थी.

लेकिन लगता है कि सीबीआई के मामले में कोई प्रगति नहीं हुई और एजेंसी को स्पष्ट करना पड़ा कि उसने सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी के बाद भी मामले को छोड़ा नहीं है.

चूंकि मनी लॉन्ड्रिंग तकनीकी रूप से पीएमएलए में दर्ज अपराधों में शामिल नहीं, और एक अलग अपराध है (हालांकि इस कानून में अनुसूचित अपराधों के जरिए ही मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाया जा सकता है) इसलिए इसके लिए मुकदमा भी अलग तरह से चलाया जाता है, न कि अनुसूचित अपराधों की तरह.

अब दोनों मुकदमों में सच्चाइयां आपस में घुली-मिली होती हैं, इसलिए पीएमएलए में प्रावधान है कि एक ही अदालतों में दोनों मुकदमे चलाए जाएंगे.

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ईडी गिरफ्तारी संबंधी सामान्य नियमों का पालन क्यों नहीं करती?

ईडी के पास वॉरंट के बिना गिरफ्तारी करने की शक्ति नहीं है, और मनी लॉन्ड्रिंग का अपराध गैर जमानती है, यानी अदालत की विवेकाधीन जमानत दी जाती है और यह अधिकार का मामला नहीं है.

यहां यह कहना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में जांच एजेंसियों को आगाह कर चुका है. जांच एजेंसियां जिस तरीके से बेहताशा गिरफ्तारियां करती हैं, उस पर अदालत ने कहा था कि गिरफ्तारियां उन मामलों में नियम नहीं बन जानी चाहिए जोकि बहुत गंभीर या जघन्य नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी के प्रावधानों के अनुसार, अधिकतम सात साल की कैद के साथ दंडनीय अपराधों की जांच करते समय, जांच एजेंसियों को गिरफ्तारी नहीं करनी चाहिए और आरोपी व्यक्ति को पेश होने (सीआरपीसी के सेक्शन 41ए के तहत) और जांच में सहयोग करने का नोटिस जारी करना चाहिए.

हालांकि इस फैसले में गिरफ्तारियों पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाई गई है, लेकिन इसमें यह अपेक्षित है कि जांच एजेंसी को इन गिरफ्तारियों को उचित ठहराने वाले विशेष कारणों को रिकॉर्ड करना और मेजिस्ट्रेट की अदालत में पेश करना होगा.

सीआरपीसी के सेक्शन 41 और सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, पुलिस को ऐसे व्यक्ति को सिर्फ तभी गिरफ्तार करना चाहिए, अगर निम्नलिखित के कारण ऐसा करना जरूरी है:

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  • आरोपी को आगे अपराध करने से रोकने के लिए

  • उसे सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए

  • उसे गवाहों को धमकी देने/प्रभावित करने से रोकने के लिए

  • उसे फरार होने से रोकने के लिए

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि अर्नेश कुमार फैसले पर उसके दिशानिर्देशों का पालन न करने पर विभागीय कार्रवाई की जाएगी और अदालत की अवमानना करने के लिए संबंधित अधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा.

यानी इसका मतलब यह है कि जब सत्येंद्र जैन या पी. चिदंबरम जैसे शख्सीयतों से जुड़े मामलों की बात आती है - जिनके देश छोड़कर जाने की आशंका नहीं है और जहां सबूत डॉक्यूमेंटरी हैं और पहले से ही जांच एजेंसी/सरकार के कब्जे में हैं- तो ईडी आरोपी को गिरफ्तार नहीं भी कर सकती है.

हालांकि, ईडी का तर्क है कि सीआरपीसी के तहत जांच के मानदंड, पीएमएलए के तहत आने वाले अपराधों पर लागू नहीं होते हैं – हम जिन याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं, उसमें ईडी ने यही दलील दी है.

इसलिए आपराधिक मुकदमों के तहत आरोपी को गिरफ्तारी के संबंध में जो संरक्षण प्राप्त है (चाहे वह वैधानिक हो या उसका यही अर्थ निकलता हो), उसका पालन न तो ईडी करती है, और न कोई दूसरी जांच एजेंसी.

वैसे आरोपी को गिरफ्तार करने की जो शक्तियां ईडी के पास हैं, वे एजेंसी के लिए काफी फायदेमंद हैं, चूंकि इसके तहत आरोपी को जमानत देने की अदालती प्रक्रिया, पीएमएलए की तुलना में काफी मुश्किल है.

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पीएमएलए के अनुसार, जमानत की अर्जी की सुनवाई करने वाली अदालत को यह सुनिश्चित करना होता है कि पब्लिक प्रॉसीक्यूटर यानी सरकारी वकील को जमानत अर्जी का विरोध करने का मौका मिलना चाहिए.

इसके अतिरिक्त इस विरोध पर विचार करने के बाद अदालत को यह नतीजा रिकॉर्ड करना चाहिए कि यह मानने की उचित वजह थी कि आरोपी व्यक्ति ने मनी लॉन्ड्रिंग का अपराध नहीं किया और जमानत मिलने के बाद उसके आगे कोई अपराध करने की आशंका नहीं है.

इसलिए पीएमएलए मामलों में अदालत को जमानत के लिए मुकदमा चलाना ही पड़ता है. इसी के जरिए आरोपी की जमानत से इनकार किया जा सकता है, इसके बावजूद कि जमानत देने की क्लासिक स्थितियां, यानी उसके देश छोड़कर जाने या सबूतों से छेड़छाड़/गवाहों को धमकाने की आशंका, आरोपी के पक्ष में हैं.

ये कैसे होता है? क्या गिरफ्तारियों की सचमुच जरूरत है?

आईएनएक्स मीडिया मामले में जब ईडी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम को गिरफ्तार किया था, तब वह 106 दिन जेल में रहे थे. फिर हफ्तों तक चली सुनवाई के बाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के आदेश की वजह से उन्हें रिहा किया गया था.

दिल्ली हाई कोर्ट ने चिदंबरम की जमानत की अर्जी को खारिज करते हुए कहा था कि वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते, क्योंकि वे अधिकारियों के कब्जे में हैं. कोर्ट ने यह भी कहा था कि संबंधित गवाहों के बयान पहले ही लिए जा चुके हैं, इसलिए गवाहों को प्रभावित करने की चिंता नहीं होनी चाहिए.

इसके बावजूद हाई कोर्ट ने ईडी की इस दलील को मंजूर किया था कि जब जमानत देने की बात आती है, तो अपराध की गंभीरता को ध्यान में रखा जाना चाहिए, और चूंकि आर्थिक अपराध बेहद गंभीर हैं, इसलिए जमानत नहीं दी जानी चाहिए.

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सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार किया था, लेकिन फिर भी कहा था कि उसके खुद के फैसले के मद्देजनर किसी अपराध की गंभीरता का आकलन करते समय, सजा की सीमा भी प्रासंगिक थी.

अदालत ने कहा था कि "अपराध की गंभीरता पर विचार करने समय परिस्थितियों पर भी गौर किया जाना चाहिए और उनमें से एक सजा की अवधि भी है जो उस अपराध के लिए निर्धारित है जिसे आरोपी ने कथित रूप से किया है." अगर किसी मामले को गंभीर आर्थिक अपराध माना जाता है, तो भी उसका मतलब यह नहीं है कि आरोपी को जमानत से महरूम किया जाना चाहिए.

"उस संबंध में, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भले ही आरोप गंभीर आर्थिक अपराधों में से एक है, यह नियम नहीं है कि हर मामले में जमानत से इनकार किया जाए क्योंकि विधायिका द्वारा पारित अधिनियम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, या जमानत के उसूल में इसका प्रावधान नहीं है."
पी. चिदंबरम की जमानत पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, अनुच्छेद 21

इसलिए अगर अपराध गंभीर है तो इसका मतलब यह नहीं कि मुकदमे से पहले किसी को हिरासत में लेना जरूरी है, उस व्यक्ति के देश छोड़कर जाने की आशंका नहीं है, न ही उसके सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने या गवाहों को प्रभावित करने का जोखिम है. ऐसे में ईडी गिरफ्तारी और हिरासत में पूछताछ को कैसे जायज ठहरा सकती है?

ईडी की दलील है कि हाई प्रोफाइल मामलों में आरोपियों को वे सबूत दिखाने जरूरी होते हैं जो उनके खिलाफ एजेंसी के पास होते हैं. लेकिन इसके लिए गिरफ्तारी जरूरी नहीं है, और यह संभव हो सकता है, अगर उस व्यक्ति को एजेंसी के सामने पेश होने का नोटिस दिया जाए. यहां बताना जरूरी है कि सीआरपीसी के सेक्शन 41ए में नोटिस की प्रक्रिया दी गई है.

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ईडी के पास यह शक्ति है कि वह जांच में सहयोग के लिए किसी को मजबूर कर सकती है. पीएमएलए के सेक्शन 50 के तहत वह न केवल किसी भी व्यक्ति को सम्मन कर सकती है बल्कि शपथ दिलाकर उसका बयान दर्ज कर सकती है ताकि उन्हें अदालत में सबूत की तरह इस्तेमाल किया जा सके. यह पुलिस के सामने दर्ज बयान से एकदम अलग है.

चूंकि एजेंसी के सामने दिए गए बयानों को अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है- भले ही मेजिस्ट्रेट के सामने उन्हें रिकॉर्ड न किया जाए - इसलिए कई बार ईडी इतनी जल्दीबाजी में गिरफ्तारियां करती है क्योंकि इससे उनके लिए इकबालिया बयान हासिल करना आसान होता है जोकि एजेंसी की जांच में मदद करता है.

हालांकि यहां यही मुद्दा है कि एजेंसी को कई मामलों में गिरफ्तारी करने की जरूरत ही नहीं क्योंकि उसके पास यह शक्ति है कि वह किसी को भी अपने सामने पेश होने के लिए सम्मन जारी कर सकती है, खास तौर से अगर मामला डॉक्यूमेंटरी रिकॉर्ड्स पर आधारित है जोकि पहले ही एजेंसी के कब्जे में हैं.

इसीलिए सुप्रीम का फैसला कि सीआरपीसी पीएमएलए मामलों में लागू होती है या नहीं, बहुत महत्वपूर्ण है. गैर जरूरी गिरफ्तारियों को रोकने का अकेला तरीका यह होगा कि अर्नेश कुमार दिशानिर्देश ईडी के लिए भी बाध्यकारी हों- और फिर भी, हमने देखा है कि पुलिस कैसे अपनी ताकत का दुरुपयोग करती है, इसीलिए इसकी भी कोई गारंटी नहीं है.

अदालतें आरोपियों को गिरफ्तारी से बचने में मदद क्यों नही करतीं?

एक तरीका है जिसमें कोई व्यक्ति ऐसे मामले में गिरफ्तारी से बचने की कोशिश कर सकता है, जहां उनकी हिरासत में पूछताछ जरूरी नहीं है या जहां उनके खिलाफ मामला हल्का है (यानी उसमें पूरा ब्यौरा नहीं है). यह तरीका है- अग्रिम जमानत के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना. या फिर हाई कोर्ट से किसी किस्म की अंतरिम सुरक्षा हासिल करना. इस बीच अदालत मामले को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करती रहे.

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हालांकि जब ईडी के मामले आते हैं तो यह बहुत मुश्किल हो जाता है

पुलिस की एफआईआर से अलग, ईसीआईआर (जो ईडी दर्ज करती है) को ईडी का एक आंतरिक दस्तावेज माना जाता है और उसकी कॉपी आरोपी को नहीं दी जाती. इसलिए, कई मामलों में गिरफ्तारी के बाद भी, आरोपी को उसके खिलाफ सटीक आरोपों के बारे में पता नहीं होता.

चूंकि आरोपी को उसके खिलाफ आरोपों की प्रकृति के बारे में पता नहीं होता, इसलिए उसके पास अदालत जाने और वहां अपनी गिरफ्तारी की आशंका को सही ठहराने का कोई आधार नहीं होता. इस तरह दूसरे आपराधिक मामलों के मुकाबले ऐसे मामलों में लोगों की नाजायज़ गिरफ्तारियों की ज्यादा आशंका होती है.

(ईशान खन्ना खेतान एंड कंपनी के डिस्प्यूट प्रैक्टिस में प्रिंसिपल एसोसिएट हैं, और व्हाइट कॉलर मुकदमों के स्पेशलिस्ट हैं. वकाशा सचदेव द क्विंट में एसोसिएट एडिटर- लीगल हैं.)

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