ADVERTISEMENTREMOVE AD

अंडमान में 60,000 साल पहले पहुंचे आदिवासियों को बचाना क्यों जरूरी

क्या आप जानते है कि अंडमान और निकोबार के आसपास की जैविक विविधता कैसी है और क्या स्थिति है यहां की जनजातियों की

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

(जॉन एलन चाउ से जुड़ी ये घटना विशाल हिमखंड की एक नोक के बराबर है. अंडमान और निकोबार द्वीपों को उस तरह से खोलना, जैसा पहले कभी नहीं हुआ, सरकार की नीतियों में एक बड़े बदलाव जैसा है.)

अमेरिकी नागरिक जॉन एलन चाउ की हत्या ने भारत और दुनिया को सदमे में ला दिया. जॉन की हत्या अंडमान के संरक्षित जनजाति के सदस्यों ने संभवत: तीर मारकर कर दी. एक पश्चिमी सोच कहती है कि इंसान ध्रुवीय क्षेत्रों से लेकर इस प्लैनेट के किसी भी हिस्से तक पहुंच सकता है और उसे जीत सकता है. लेकिन इस घटना के बाद ये विचार अजीब लग रहा है, क्योंकि इससे जाहिर हुआ है कि कुछ मुट्ठीभर लोग भी महज तीर और धनुष के सहारे एक व्यक्ति की जान ले सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जॉन चाउ की हत्या: बड़े परिवर्तन का लक्षण

लेकिन यहां ऐसी क्या चीज है, जिसकी जानकारी आपको हेडलाइन से नहीं मिल रही. ये घटना दरअसल यहां की दशकों पुरानी नीति में बदलाव का नतीजा है. जिसके तहत यहां के द्वीपों को रियल एस्टेट और टूरिज्म से जुड़े अधिपतियों के लिए चॉकलेट के डिब्बों की तरह खोलना शुरू कर दिया गया.

इसकी शुरुआत इसी साल अगस्त में हुई, जब सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 31 दिसंबर 2022 तक प्रतिबंधित क्षेत्र परमिट शासन से 29 द्वीपों को मुक्त कर दिया. इनमें सेंटिनेलिस जनजातियों का वो द्वीप भी शामिल है.

इससे पहले तक इन इलाकों में जाने के लिए टूरिस्टों को पूर्व इजाजत लेनी होती थी. भारत की समुद्री सीमा से जुड़े मौजूदा कानूनों की समीक्षा के लिए बनाई गई एक विशेष समिति की सिफारिशों पर ऐसी योजनाएं शुरू हो रही हैं, जो न सिर्फ इन विलुप्त होती जनजातियों को खतरे में डालती है, बल्कि यहां के नाजुक इको सिस्टम पर भी दबाव डालती है.

क्या चीज इन द्वीपों को खास बनाती है?

सबसे पहले ये समझने की जरूरत है कि ये द्वीप क्यों इतने खास हैं और क्यों देश की पूर्व की सरकारों ने इन्हें संरक्षित रखने की नीति पर काम किया? यहां के 572 द्वीपों में से सिर्फ 37 पर ही इंसानों का स्थायी निवास रहा है. ये निवासी या तो विलुप्त हो रही जनजातियां हैं या फिर भारतीय लोग (ये वे भारतीय हैं, जिनके पूर्वजों को 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासकों ने यहां कैदी के रूप में लाया था).

अंडमान के द्वीप आमतौर पर चार निग्रीटो जनजातियों के घर हैं. ये हैं- द ग्रेट अंडमानीज, ओंज, जारवा और सेंटिनेलिस, जबकि निकोबार के द्वीप दो मोंगलोइड जनजातियों के घर हैं. ये हैं- शोम्पेन और निकोबारेसे.

कहा जाता है कि नेग्रीटो जनजाति 60 हजार साल पहले अफ्रीका से इन द्वीपों तक पहुंची. ये असल में शिकारियों के समूह की तरह हैं और जंगली सूअर और मॉनिटोर छिपकिली का शिकार करते हैं. साथ ही, ये तीर-धनुष के सहारे मछली पकड़ने में भी दक्ष होते हैं. ये जंगलों से शहद, कुछ खास पेड़ की जड़ें और फलों को भी इकट्ठा करते हैं. निकोबारेसे समुदाय के लोग एक अलग तरह की खेती भी करते हैं और कुछ मौकों पर मुख्यधारा से जुड़े कामों में भी शामिल होते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इन जनजातियों को तुरंत संरक्षित करने की जरूरत

इनमें से सभी जनजातियों को किसी न किसी रूप में बाहरी लोगों के हमलों का सामना करना पड़ा है. उदाहरण के तौर पर ग्रेट अंडमानीज, जो कि संख्या में सिर्फ 43 बचे हैं, ये बाहरी लोगों के संपर्क से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. जब से ब्रिटिश लोगों ने इस द्वीप को कॉलोनी बनाया, तब से अब तक इनकी 99 प्रतिशत आबादी नष्ट हो चुकी है. ठीक इसी तरह से ओंज जनजाति की संख्या अब सिर्फ 100 है.

इनके इलाके के जंगलों को शिकारियों और लकड़ी माफिया ने तबाह कर दिया. जहां तक सेंटिनेलिस का सवाल है, तो इस जनजाति की आबादी भी 50 से 100 के करीब ही रह गई है. सभी जनजातियों में ये समुदाय सबसे ज्यादा बाकियों से अलग रहना पसंद करता है. ये कभी भी बाहरी लोगों के संपर्क में नहीं आना चाहते. और अगर कोई ऐसी कोशिश करता है, तो पहले चेतावनी का तीर उसकी ओर छोड़ते हैं.

इन जनजातियों की इसी अल्प संख्या को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने लंबे समय से इन द्वीपों तक बाहरी लोगों की पहुंच को प्रतिबंधित कर रखा है, क्योंकि इनके संरक्षण की जरूरत है.

अंडमान और निकोबार के ये द्वीप जैव विविधता के भी प्रतीक हैं. यहां मौजूद वनस्पतियों की 9 हजार प्रजातियों में से 1 हजार बिल्कुल स्थानीय हैं. इसका मतलब ये है कि यहां के सिवा और कहीं भी नहीं पाए जाते हैं. इनका एक बड़ा उदाहरण है राजसी नारकोन्डम हॉर्नबिल, जो कि यहां इसी नाम के द्वीप पर पाया जाता है.

इनके अलावा अंडमान डे गेको और अंडमान वुडपिकर भी इसी तरह की दुर्लभ प्रजातियां हैं. इन द्वीपों को खुद में ग्लोबल जैव विविधता का बेहतरीन नमूना माना जाता है. लेकिन लचर योजनाओं और व्यावसायिक हितों की वजह से लगी नजर के चलते ये इलाका लगातार खतरे में है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जैव विविधता के लिए सरकार की योजनाएं

सरकार की जो योजना है, उसके हिसाब से यहां की जैव विविधता पर यकीनी तौर पर बुरा असर होगा और स्थानीय जनजातीय समूहों को खतरे में डाल देगा. शैलेश नायक कमेटी की रिपोर्ट में की गई सिफारिशों के आधार पर आइलैंड कोस्टल जोन रेगुलेशन 2018 का ड्राफ्ट बनाया गया. इसका मसौदा वास्तव में विनाशकारी और प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों को यहां शुरू करने की इजाजत देता है.

इसी को देखते हुए देश के समुद्री तटों से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले वैज्ञानिकों और वकीलों के एक दल ने अक्टूबर महीने में पर्यावरण मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन को लिखा, जिसमें इन्हीं विसंगतियों का पूरा ब्योरा दिया गया और नीति निर्माताओं पर सवाल उठाए गए.

अतीत में जहां ऐसे मुद्दों पर एक व्यापक विमर्श किया गया था, इस बार का नया ड्राफ्ट बगैर स्थानीय समुदाय को भरोसे में लिए तैयार कर लिया गया.

पहले के नियमों के मुकाबले नए नियम में निर्णायक परिवर्तन किए गए हैं. ये परिवर्तन अब शॉपिंग और हाउसिंग कॉम्प्लेक्स, होटल और मनोरंजन परिसरों को डेवलप करने की अनुमति देते हैं. जाहिर है इन चीजों से पहले से इस जगह के लिए मौजूद सुरक्षा उपाय कम हो जाते हैं.

जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है वो ये कि ऐसा करते हुए ‘रणनीतिक उद्देश्य’, ‘सार्वजनिक उपयोगिता’ और ‘इको टूरिज्म’ जैसे शब्दों का बड़े ही सहज तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है.

ये सब दरअसल ऐसे शब्द हैं, जिनकी अलग-अलग व्याख्या संभव है. ऐसे में बगैर सोच-विचार के ऐसी चीजों की अनुमति देना नुकसानदेह गतिविधियों के लिए रास्ता खोलने जैसा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

'इको टूरिज्‍म' के खतरे

जीव वैज्ञानिकों की एक और चिंता पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील इलाकों का मनमाने तरीके से वर्गीकरण है. हाल के वर्षों में ऐसे संवेदनशील क्षेत्रों में ‘इको टूरिज्जम’ जैसी गतिविधियों की अनुमति दी गई है, जिसे ‘आईसीआरजेडआई-ए’ के नाम से जाना जाता है. इनमें कोरल रीफ, मैंग्रोव और सैंड ड्यून्स शामिल हैं. ये सब न सिर्फ इकोसिस्टम के लिए संवेदनशील हैं बल्कि इन द्वीपों के वजूद के लिए भी जरूरी माने गए हैं, क्योंकि ये सामाजिक-पारिस्थितिक दबाव और आपदाओं के खिलाफ द्वीपों के लिए बफर का काम करते हैं.

चट्टानों वाले समुद्र तट, उच्च जैव विविधता वाले इलाके, मछलियों के प्रजनन और स्पॉनिंग के इलाके जैसे कई पारिस्थितिक तंत्र इस अधिसूचना से बाहर रहे हैं. ये अलग बात है कि ये इन द्वीपों के लिए बेहद अहम हैं.

इस प्रकार से ये ड्राफ्ट इलाके में तमाम गतिविधियों की इजाजत देता है. यहां तक कि ये समुद्री लहरों वाले इलाके में स्थायी निर्माण की छूट भी देता है. ऐसा करते हुए यहां के पूरे तंत्र की ऐसी अनदेखी हो रही है, जिसका परिणाम पारिस्थितिकी के लिहाज से अहम तटों के विनाश की शक्ल में आ सकता है.

अंडमान और निकोबार तथा लक्षद्वीप का अपना एक अद्वितीय भूगर्भीय इतिहास रहा है. ये इलाके न सिर्फ मुख्य भूमि से अलग हैं, बल्कि ये जलवायु परिवर्तन के लिहाज से बेहद नाजुक और संवेदनशील भी हैं. आईसीआरजेड अधिसूचना 2018 का जो मसौदा है, वो द्वीप की पारिस्थितिकी की इन खूबियों को ध्यान में नहीं रखता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन को जांचने का कोई तंत्र नहीं

हम कितने लापरवाह हैं इसका नमूना ये है कि यहां समुद्री गाय या डुगोंग जैसी लुप्त होती प्रजातियों के अधिवासों को भी बचाया नहीं गया है. ज्वार वाले क्षेत्र डुगोंग के खाने के लिहाज से महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं. इन इलाकों में सी ग्रास की प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसे डुगोंग पसंद करते हैं. डुगोंग भयावह तरीके से विलुप्त होती प्रजातियों की सूची में है. हिन्द महासागर में इनकी संख्या बमुश्किल 50 की बची है. यही नहीं, इनकी संख्या लगातार गिर ही रही है. लिहाजा इनके बचाव के उपाय हर हाल में होने चाहिए.

ऐसे में ऊपर जिन गतिविधियों का ब्योरा दिया गया है उनकी वजह से इस प्रजाति के विलुप्त होने की रफ्तार निश्चित तौर पर और बढ़ेगी. आने वाले समय में शायद ये स्थानीय स्तर पर खत्म ही हो जाएं.

इनमें से कई इलाकों में समुद्री किनारे से महज 50 मीटर के ही दायरे में होटल, बीच रिसॉर्ट जैसी चीजों की अनुमति दी जा सकती है. नए मसौदे के तहत सबसे चिंता की बात ये है कि नियमों का उल्लंघन करने वालों की जांच के लिए कोई तंत्र नहीं है. इसका नतीजा ये है कि किसी को भी बिना जिम्मेदारी के इस इलाके को प्रदूषित और नष्ट करने की इजाजत मिल जाती है.

द्वीपों पर काम करने वाले जीव वैज्ञानिकों ने आग्रह किया है कि 2011 की अधिसूचना में दर्ज सुरक्षा के उपायों को बनाए रखा जाए, क्योंकि सरकारी नीतियों में जो व्यापक परिवर्तन दिख रहे हैं, उससे अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों की अलौकिक सुंदरता और विशेषता हमेशा के लिए गुम हो सकती है.

ये दुखद है कि सेंटिनेलिज को अपने द्वीप की रक्षा के लिए ऐसा करना पड़ा. लेकिन आज के दौर में जब सोशल मीडिया किसी जानवर की तरह है, ये आदिम जनजातीय ग्रुप सिर्फ धनुष और तीर के साथ पूरी दुनिया को संदेश दे रहे हैं- हमारी जमीन और जंगल को हमारे हाल पर अकेले छोड़ दिया जाए.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×