नकदी, नशा और डेंजर- इन तीन शब्दों का एक साथ इस्तेमाल क्यों कर रहा हूं, इसको कुछ उदाहरण से समझते हैं. चूंकि शेयर बाजार में कुछ हफ्तों से जो हो रहा है, उसमें कोई लॉजिक नहीं दिखता है इसलिए वो मजाक जैसा ही लगने लगा है.
मजाक नंबर 1
अगस्त के महीने में आंकड़ा आया कि भारत में पहली तिमाही में जीडीपी पिछले साल की तुलना में करीब 24% कम हो गया. लेकिन इस बेहद निराश करने वाली खबर को विदेशी संस्थागत निवेशकों ने शेयर बाजार में अगस्त में करीब 16 हजार करोड़ की खरीदारी करके स्वागत किया. नवंबर में पता चला कि दूसरी तिमाही में जीडीपी में 7 परसेंट का कांट्रेक्शन हुआ है. और अकेले नवंबर एफपीआई ने भारत के शेयर बाजार में 65 हजार करोड़ रुपए की खरीदारी की. ये देश के शेयर बाजार के इतिहास का रिकॉर्ड है. आजाद भारत में पहली बार विकास दर इतना गिरा है. लेकिन शेयर बाजार हर दिन रिकॉर्ड बना रहा है. यह डिसकनेक्ट तो मजाक जैसा ही लग रहा है ना!
मजाक नंबर 2
बाजार में रिकॉर्ड तेजी का लॉजिक है कि वित्त वर्ष 2022 में निफ्टी की कंपनियों की कमाई में औसतन 32 परसेंट से ज्यादा का ग्रोथ होगा. जब अनुमान है कि 2022 में देश का जीडीपी 2020 के स्तर पर होगा तो फिर कंपनियों की कमाई में इतनी तेजी से बढ़ोतरी संभव है क्या? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ. सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर मान लिया जाए कि 2022 में 40 परसेंट का अर्निंग्स ग्रोथ होता है तो भी बाजार का वैल्यूशन अपने ऐतिहासिक औसत से काफी ज्यादा है. मतलब यह कि बाजार अपने सबसे अच्छे अनुमान की कल्पना से भी काफी आगे निकल गया है. दूसरे शब्दों में गलतफहमी की सारी हदें भी पार हो गई हैं.
मजाक नंबर 3
जंक कंपनियों के शेयर में अनाप-शनाप तेजी तो देखी है लेकिन इंडेक्स स्टॉक में एक महीने में 50 परसेंट से ज्यादा की बढ़ोतरी पहले कभी नहीं देखी. लेकिन नवंबर में वो भी देखने को मिला. बजाज फिनसर्व, जो निफ्टी-50 का हिस्सा है, के शेयर की कीमत में एक महीने में करीब 57 परसेंट की बढ़तोरी हुई है. प्राइस टू बुक के आधार पर कोटक महिंद्रा बैंक एचडीएफसी बैंक से भी काफी महंगा हो गया है. और हमेंं पता है कि एचडाएफसी बैंक वैल्यूशन के पैमाने पर दुनिया का सबसे महंगा बैंक रहा है. मतलब सबसे महंगे से भी काफी महंगा की होड़ मची है. यह नशा नहीं तो और क्या है.
इन तीन उदाहरणों को आप मजाक कहें या फिर तर्क से परे, इनसे साफ पता चलता है कि शेयर बाजार नकदी के नशे में ऐसा मस्त है कि उसे अर्थव्यवस्था की चाल से कोई लेना-देना नहीं है. कंपनियों के अर्निंग्स ग्रोथ का अजीबोगरीब अनुमान लगाकर तेजी को सही ठहराने का भरोसा जागाया जा रहा है, और जानी पहचानी कंपनियों को भी डिस्कवर करके उसकी रिरेटिंग हो रही है. नकदी की सुनामी में सब भले ही जायज लगे. लेकिन लॉजिक की कसौटी पर इसको क्या कहेंगे.
नकदी और रिटेल निवेशकों का जिद
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? नकदी की कहानी हम महीनों से सुन ही रहे हैं कि कैसे यूएस के फेडरल रिजर्व ने अपना पिटारा खोलकर बाजार में करीब 4 ट्रिलियन डॉलर डाल दिया. उसी तरह बैंक ऑफ जापान. यूरोपियन सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ इग्लैंड जैसे प्रभावशाली सेंट्रल बैंक ने खूब नकदी डाली है. और इस नकदी ने ऐसे बुलबुले बनाए हैं,जैसा हमने पहले कभी नहीं देखा.
लेकिन इस बार की तेजी में एक ट्विस्ट भी है. इस तेजी को हवा रिटेल निवेशकों ने दी है. इसको अपने देश के उदाहरण से ही समझिए. मिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की करीब 1,600 कंपनियों में रिटेल निवेशकों की भागीदारी 11 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. जहां पिछले साल सिंतबर की तिमाही में इन कंपनियों में रिटेल निवेशकों की हिस्सेदारी 6.46% थी, वो इस साल बढ़कर 7.01% हो गई है. साथ ही सिंतबर की तिमाही में करीब 34 लाख नए डिमैट अकाउंट खुले जो अब तक का रिकॉर्ड है.
इस स्क्रिप्ट में खतरा साफ दिख रहा है!
बाजार में रिकॉर्ड तेजी, छोटे निवेशकों की जमकर हिस्सेदारी, विदेशी निवेशकों की खूब मेहरबानी- ये तो अच्छी स्क्रिप्ट है ना. लेकिन इस स्क्रिप्ट के एक परत को देखकर डर लगता है. मिंट की उसी रिपोर्ट के मुताबिक सितंबर की तिमाही में जिन कंपनियों में रिटेल निवेशकों ने अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई उन कंपनियों के शेयर की कीमत में औसतन 7% का इजाफा हुआ. लेकिन जिन 481 कंपनियों में रिटेल निवेशकों ने अपनी हिस्सेदारी घटाई उनके शेयर की कीमत में औसतन 26 परसेंट की बढ़ोतरी हुई. रिटेल निवेशकों ने शेयर बाजार में जमकर पैसा तो लगाया है लेकिन उन कंपनियों में ज्यादा नहीं, जहां फंडामेंटल्स मजबूत हों. इस स्क्रिप्ट में तो खतरा साफ दिख रहा है.
चीन के 2015 क्रैश का सबक
इस तरह की छप्पर फाड़ रैली के दौरान हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2015 के जुलाई में चीन के शेयर बाजार में क्या हुआ था. जनवरी 2014 से जून 2015 के बीच चीन का शेयर बाजार 150 परसेंट चढ़ा था. और जुलाई के तीन हफ्ते में ही बाजार में 30 परसेंट का करेक्शन हो गया. यह करेक्शन 2016 के जनवरी तक चला था. जानकारों का कहना है कि ना तो तेजी की कोई ठोस वजह थी और ना ही उतने तेज करेक्शन का कोई कारण था.
सीएनबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के शेयर बाजार की रोजाना खरीद-बिक्री में रिटेल निवेशकों की हिस्सेदारी 85 परसेंट तक पहुंच गई थी. 2015 के पहले पांच महीने में वहां के शेयर बाजार में करीब 3 करोड़ नए निवेशकों ने एंट्री मारी और भयानक गिरावट का सबसे ज्यादा नुकसान छोटे निवेशकों को ही हुआ.
विशुद्ध रूप से नकदी के सहारे शेयर बाजार की तेजी के दुखद अंत का सबसे ताजा उदाहरण चीन से ही है. नकदी वाली रैली मूड से तय होती है, लॉजिक से इसे कोई लेना-देना नहीं है. लॉजिक का तो अनुमान लगाया जा सकता है. मूड का क्या भरोसा. और मूड बदलने के बाद तो नुकसान को गिनने का भी समय भी नहीं मिलता है.
ऐसे समय में नकदी के नशा को समझिए और इसके कॉकटेल के डेंजर से सतर्क रहिए.
(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो इकनॉमी और पॉलिटिक्स पर लिखते हैं. उनसे @Mayankprem पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके निजी हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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