ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारत के लिए कोहिनूर की अहमियत महारानी के ताज की सजावट से कहीं ज्यादा है

अंग्रेजों का कोहेनूर पर इतराना औपनिवेशिक शासन द्वारा की गई चोरी और लूट की याद दिला जाता है.

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

द गार्जियन की हेडलाइन बहुत तीखी थी: “इंडिया आर्काइव में शाही जेवरों का खजाना ‘औपनिवेशिक लूट’ की हद की बानगी दिखाता है.” अखबार लंदन के अभिलेखागार में भारतीय कार्यालय के एक खास 46 पन्ने की फाइल में रखा था, जिसमें 1912 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह चार्ल्स की पन्ना बेल्ट (Charles’s emerald belt) सहित बेशकीमती चीजें भारत (India) से जीत की निशानी के तौर पर छीनी गई थीं और बाद में महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) को सौंप दी गईं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसमें कोई अचंभे की बात नहीं है, हम सभी जानते हैं कि “राज परिवार की संपत्ति” बताए जाने वाले ब्रिटिश सम्राट के “स्वामित्व” वाले बहुत से जेवर भारत से झटके हुए हैं. इनमें सबसे मशहूर है कोहिनूर.

बीजेपी द्वारा नियुक्त भारत के सॉलिसिटर जनरल का एक चौंकाने वाला बयान अदालत में पेश किए जाने के बावजूद कि कोहेनूर हीरा अंग्रेजों को तोहफे में दिया गया था, इसलिए भारत इसकी वापसी की मांग नहीं करेगा. मूर्खतापूर्ण तरीके से उन्होंने यह भी कहा कि हीरे को इसके सिख मालिकों को हराने में आए ब्रिटिश खर्च के ‘मुआवजे’ के तौर पर अदा किया गया था. इस बयान के बावजूद ज्यादातर भारतीय कोहिनूर के लिए न तो अपने ऐतिहासिक और न ही अपने जज्बाती लगाव का त्याग करने के लिए राजी होंगे.

महारानी विक्टोरिया को नाबालिग सिख उत्तराधिकारी दिलीप सिंह द्वारा औपचारिक रूप से हीरा सौंपा गया था, जिनके पास इस मामले में कोई और विकल्प नहीं था.

जैसा कि मेरा तर्क रहा है, कि अगर आप मेरे सिर पर बंदूक रख देंगे तो मैं आपको अपना पर्स “उपहार” में दे दूंगा– लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जब आप बंदूक हटा लेंगे तो मैं इसे वापस नहीं लेना चाहूंगा.

कोहिनूर का संक्षिप्त इतिहास

कोहिनूर कभी दुनिया का सबसे बड़ा हीरा था. 13वीं शताब्दी में काकतीय राजवंश (Kakatiya Dynasty) के शासन में भारत के मौजूदा दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश के गुंटूर के पास जब पहली बार इसका खनन किया गया था, तो इसका वजन 793 कैरेट या 158.6 ग्राम था. (बाद के सालों में खासतौर से अंग्रेजों द्वारा तराश कर इसे सिर्फ 105 कैरेट का बना दिया गया है.)

काकतीय राजाओं ने इसे एक मंदिर में स्थापित किया, जिस पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने हमला किया और इसे लूटे गए दूसरे खजानों के साथ अपनी राजधानी ले गया. बाद में यह 16वीं शताब्दी में दिल्ली पर काबिज हुए मुगलों के कब्जे में चला गया. 1739 में फारस (ईरान) के आक्रमणकारी नादिर शाह के हाथों में पहुंचा, जिसकी दिल्ली फतह (और इसके निवासियों की तबाही) में हुई लूट में शामिल था बेशकीमती तख्त-ए-ताऊस (Peacock Throne) और कोहेनूर (Kohinoor).

जुबानी कहानियों में बताया गया है कि नादिर शाह ने इस हीरे को कोह-ए-नूर या “रौशनी का पहाड़” नाम दिया था. उसकी बीवियों में से एक वफा बेगम ने इसके बारे में खूबसूरत अंदाज में एक यादगार बात बोली थी, “अगर कोई ताकतवर आदमी चार पत्थर फेंकता है– एक उत्तर, एक दक्षिण, एक पूरब, एक पश्चिम– और पांचवां पत्थर ऊपर हवा में, और अगर उनके बीच की जगह को सोने से भरना हो, तो भी यह कोहिनूर की कीमत के बराबर नहीं होगा.

नादिर शाह की मौत के बाद हीरा उसके एक सेनापति अहमद शाह दुर्रानी (अहमद शाह अब्दाली) के हाथों में पहुंच गया, जो अफगानिस्तान का अमीर बना. दुर्रानी के वंशजों में से एक को 1809 में पंजाब के ताकतवर सिख महाराजा रणजीत सिंह को नजराने के तौर पर कोहिनूर सौंपने के लिए मजबूर किया गया, जिन्होंने अपनी राजशाही के प्रतीक के रूप में इसे पहना. लेकिन उनके उत्तराधिकारी उनके राज को कायम नहीं रख सके और सिखों को दो लड़ाइयों में अंग्रेजों के हाथों हार का सामना करना पड़ा, जिसका अंत 1849 में सिख राज्य के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय के रूप में हुआ. उस समय कोहिनूर ब्रिटिश हाथों में आ गया.

कई पूर्व उपनिवेशों को लगता है कि ब्रिटेन उनकी धरती पर सदियों तक की गई क्रूरता के लिए जवाबदेह है. ब्रिटिश शासन में लूटी गई बेशकीमती कलाकृतियों को वापस लौटाना शुरू करना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है. कोहिनूर भारत को लौटा दिया जाना चाहिए, जहां इसका एक गौरवशाली इतिहास है और भारतीयों के लिए यह महारानी के ताज की सजावट से कहीं ज्यादा मायने रखता है.

भारत की आम सोच से इसका बहुत गहरा जुड़ाव है, जहां यह पहली बार जमीन से निकाला गया था और जहां यह सदियों से नामी शाही घरानों के पास रहा. भारत का दावा किसी भी दूसरे देश के मुकाबले कहीं बड़ा है. पाकिस्तान (क्योंकि लाहौर रणजीत सिंह की राजधानी थी), अफगानिस्तान (अहमद शाह दुर्रानी के कब्जे के कारण) और ईरान (नादिर शाह की लूट के चलते) सभी ने इस पर दावा करने की कोशिश की है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यह चोरी और लूट की याद दिलाता है

परस्पर विरोधी दावों की मौजूदगी ब्रिटेन के लिए बड़ी राहत है, क्योंकि यह दो सदियों से ज्यादा समय तक दूर-दराज के देशों में बुरी तरह किए गए औपनिवेशिक शोषण की भरपाई की मांगों की बौछार को रोकने में मददगार है. पार्थेनन मार्बल्स (Parthenon Marbles) से लेकर कोहिनूर तक, दूसरे देशों की विरासत के खजाने की ब्रिटिश लूट विवाद का एक खास बिंदु है. अंग्रेजों को डर है कि कोई भी एक चीज लौटाने से मांगों का पिटारा खुल जाएगा. जैसा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने जुलाई 2010 में भारत की यात्रा के दौरान कहा था, “अगर आप किसी एक के लिए हां कहते हैं, तो आप पाएंगे कि अचानक ब्रिटिश म्यूजियम खाली हो जाएगा. मुझे खेद है, यह (कोहिनूर) वहीं रहेगा.”

लेकिन टॉवर ऑफ लंदन में महारानी के ताज पर कोहेनूर का प्रदर्शन पूर्व औपनिवेशिक शासक द्वारा की गई चोरी और लूट की एक गहरी निशानी है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

जब तक इसे वापस नहीं लौटाया जाता– कम से कम प्रायश्चित के प्रतीकात्मक संकेत के तौर पर– यह लूट, झपटमारी और बेईमानी का सबूत बना रहेगा, जैसा कि उपनिवेशवाद असल में था. शायद इसीलिए क्वीन कैमिला (Queen Camilla) ने अगले महीने अपने पति के राज्याभिषेक में इसे नहीं पहनने का फैसला किया है.

लेकिन अगर आप इसे नहीं पहन रहे हैं, तो अगला तार्किक कदम इसे लौटा देना होगा. आज हम ऐसे युग में आ चुके हैं, जहां औपनिवेशिक लूट को उसके असल रूप में देखा जा रहा है, न कि ‘दूसरों को सभ्य बनाने’ के पवित्र मिशन के दौरान यूं ही हो गए नुकसान रूप में.

ब्रिटेन के बेनिन ब्रॉन्ज (Benin Bronzes) और घाना के आशांति स्टूल (Ghanaian Ashanti Stool) लौटाने के साथ हम बात आगे बढ़ती देख रहे हैं, चोरी का सामान लौटा देना हमेशा एक अच्छी बात है और आने वाली पीढ़ियां अचंभित होंगी कि सभ्य राष्ट्रों को सही काम करने में इतना वक्त क्यों लग गया.

यह हिसाब बराबर करने की मांग नहीं है. इतिहास आगे बढ़ चुका है और अब दो आजाद संप्रभु राष्ट्रों को नए जमाने के रिश्तों की नींव रखनी चाहिए. चोरी का सामान लौटाया जा सकता है और बाकी बातों को इतिहास की किताबों के लिए छोड़ सकते हैं. लेकिन पूर्व उपनिवेशवादी ताकतें दूसरे तरीकों से भी प्रायश्चित कर सकती हैं. ब्रिटेन के मामले में, स्कूलों में औपनिवेशिक इतिहास की असल दास्तान पढ़ाकर, उपनिवेशवाद पर एक संग्रहालय बनाकर जो ब्रिटिश शासन, इसकी बुराइयों सबकुछ दर्शाता हो, लोगों के योगदान का स्मारक बनाकर उदाहरण के लिए- विश्व युद्धों में एशियाई और अफ्रीकी ब्रिटिश नागरिकों का योगदान दर्शा कर और आखिरी में, अतीत के अत्याचारों के लिए “सॉरी” कहकर. ऐसा करके ही हम सब आगे बढ़ सकते हैं.

(डॉ. शशि थरूर तीसरी बार तिरुवनंतपुरम से सांसद हैं और 22 किताबों के पुरस्कार विजेता लेखक हैं. वो @ShashiTharoor पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×