ब्रिटेन की सांसद देबोराह अब्राहम्स को नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से वापस भेज देना एक और उदाहरण है कि हमारी सरकार अपनी नीतियों की विदेशी आलोचना के प्रति कितनी सशंकित है. ब्रिटेन की हाऊस ऑफ कॉमन्स में सर्वदलीय संसदीय समूह की चेयरपर्सन सुश्री अब्राहम्स को दिल्ली एअरपोर्ट पर सोमवार को रोक दिया गया. जबकि, उनके पास उनके दावे के अनुसार अक्टूबर 2020 तक मल्टीपल एंट्री ई-वीजा थे. आगमन के बाद भारतीय इमिग्रेशन अधिकारियों की ओर से उन्हें बताया गया कि उनका ई वीजा खारिज कर दिया गया है. उसके बाद उन्हें दुबई वापस भेज दिया गया.
एक आलोचक को लौटाना लोकतंत्र की दरिद्रता
सरकार के नजरिए से उनकी कार्रवाई के लिए पर्याप्त वजह हैं. पिछले साल 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के सरकार के फैसले की आलोचना के लिए सुश्री अब्राहम्स मशहूर रही हैं. कश्मीर पर ब्रिटिश संसदीय समूह की प्रमुख के तौर पर कश्मीरी अलगाववाद के प्रति सहानुभूति रखने वाली नेता के तौर पर उनकी पहचान है. उन्होंने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 निरस्त करने पर गम्भीर चिंता जताते हुए ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त को चिट्ठी लिखी थी. उन्होंने अपने विचारों को किसी से छिपाया नहीं. उनके ट्विटर टाइमलाइन पर कई पोस्ट हैं जिनमें कश्मीर पर भारत सरकार की कारर्वाईयों की आलोचना की गयी है.
तो क्या हुआ? जिस तरीके से सरकार ने कश्मीर मामले को हैंडल किया, राजनीतिक नेताओं को हिरासत में लिया, इंटरनेट और मोबाइल कम्युनिकेशन को खत्म कर अभिव्यक्ति को दबाया, उनसे असहमत क्या भारतीय नहीं हैं? उनके विचार अगर किसी विदेशी की जुबां से व्यक्त होते हैं तो क्या हम इससे डर गये हैं?
एक आलोचक को स्वीकार करने से इनकार करना वास्तव में हमारे देश के लोकतंत्र के लिए बुरा है. इससे वह पीड़ित पक्ष हो जाती हैं जिनके साथ मुकम्मल रूप से नैतिकता भी होती है. सुश्री अब्राहम्स ने ट्वीट किया है, “मैं राजनीतिज्ञ बनी हूं ताकि सबके लिए सामाजिक न्याय और मानवाधिकार को आगे बढ़ाऊं.” सुश्री अब्राहम ने ट्वीट किया, “जब-जब अन्याय और दुर्व्यवहार निरंकुश रहेगा, मैं अपनी सरकार और दूसरों को चुनौती देना जारी रखूंगी”.
सरकार की जवाबी कार्रवाई और उचित दबाव
बहुत बुरा है अगर उन्हें इसलिए आने नहीं दिया गया कि वे ऐसे लोगों से मिलतीं जो भारत के विरुद्ध उनकी आलोचनाओं को हवा देते, तो यह भी गारंटी है कि उन्हें नहीं आने देने का भारत पर असर उससे भी बुरा होगा.
मान लीजिए कि वह आयी होतीं और जैसा कि उनका दावा है कि वह भारत में अपने ‘मित्रों और परिजनों’ से मिलतीं, अपने चचेरे या ममरे या फुफेरे भाई-बहन के यहां ठहरतीं और अपने एक रिश्तेदार के घर शोक सभा में जातीं. वह कश्मीर को लेकर या किसी अन्य भारतीय नीति पर जो कुछ भी कहतीं, क्या वह भारत में या विदेश में खबर बनती? देबोराह अब्राहम्स कोई घरेलू नाम नहीं है. मैंने निश्चित रूप से उनका नाम कभी नहीं सुना. अब डिपोर्ट होने के बाद वह अगर सेलेब्रेटी नहीं भी बनीं हों तो भी उनके बयान पर जितना ध्यान अब दिया जाएगा, पहले कभी नहीं दिया गया होगा.
सरकार के लिए यह बहुत बुरी बात है. हमेशा इसके उल्टे नतीजे निकलते हैं. किसी पुस्तक या फिल्म पर प्रतिबंध लगाते ही इसे देखने वाले या पढ़ने वाले लोगों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी. जिन लोगों के लिए उनके विचारों में कोई आकर्षण नहीं लगता, गिरफ्तार होने पर या उन पर हमले होने के बाद या फिर इस मामल में डिपोर्ट होते ही वे उनकी ही आंखों का तारा बन जाते हैं.
इस तरह सरकार ने ब्रिटिश सांसद को मशहूर कर दिया और उन्हें शहीद बना दिया है. निस्संदेह वह प्रेस कॉन्फ्रेन्स करेंगी और इस बात का रोना रोएंगी कि किस तरह भारत ने उनके साथ अलोकतांत्रिक व्यवहार किया. इसके अलावा ब्रिटिश संसद में हमारे देश का एक और तीखा आलोचक होगा. अब वह ऐसी सांसद होंगी जिनकी आलोचनाओं को अधिक तवज्जो मिलेगी क्योंकि यह वही होगी जिसे भारत ने डिपोर्ट कर दिया था.
अगर कश्मीर ;सामान्य’ है तो आलोचनाओं से डर क्यों?
विडंबना यह है कि सरकार दावा कर रही है कि कश्मीर में स्थिति सामान्य है. तब यह सरकार आलोचनाओं से क्यों डरी हुई है? अगर कश्मीर में चीजें ठीक हैं, तो क्या सरकार को उन्हें उत्साहित नहीं करना चाहिए कि वे खुद ऐसी परिस्थिति के गवाह बनें और अपने डर को खत्म करें? विदेशी समूहों और राजदूतों के दौरे कराने से ज्यादा फायदा निश्चित रूप से इसी विषय की संसदीय समूह की प्रमुख के आगमन से होता. अगर आप उनके विचारों को बदलने में कामयाब नहीं रहते हैं तब भी आपकी स्थिति पहले से बुरी नहीं होती. लेकिन अगर वह यह मसूस करती हैं कि परिस्थिति वैसी ही नहीं है जैसा कि उसने अपने पाकिस्तान सूत्रों के जरिए सुन रखा है तो उसका लाभकारी असर इस रूप में पड़ता है कि उसकी ओर से आलोचनाएं कम हो जातीं.
इस तरीके से आपने उनके असंतोष और शत्रुता की गारंटी कर ली है. यह एक सरकार के लिए समझदारी वाला काम नहीं है जो दुनिया में एक जिम्मेदार और प्रशंसनीय लोकतंत्र के तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है.
मैं महसूस करता हूं और सरकार भी इसे मानेगी कि सांसद को डिपोर्ट करने के उसके फैसले से वह भारत में बहुत लोकप्रिय हो गयी हैं. मेरा सोशल मीडिया का टाइमलाइन बताता है कि यहां तक कि मेरा एक पार्टी का सहयोगी भी सरकार की कार्रवाई के समर्थन में खुलकर सामने आ गया.
मुझे यह विचित्र लगता है कि वही लोग जिन्होंने एक भारतीय सांसद के रूप में मेरे ब्रिटेन जाने और उनके औपनिवेशिक व्यवहार की परत उघेड़ने के लिए मेरी सराहना की थी, अब इस बात के लिए मुझ पर हमला कर रहे हैं कि मैं एक ब्रिटिश को भारत से विशेषाधिकार दिलाने की कोशिश कर रहा हूं. जैसा कि मैंने ट्विटर पर महसूस किया है कि अगर हमें ऐसी चीजें खत्म करनी है तो हमें उन्हें स्वीकार करने के लिए सक्षम होना चाहिए.
आलोचनाओं के प्रति असहिष्णु है भारत
विदेशी आलोचकों का सामना करने से इनकार करना भारत सरकार की हताशा है. मैं महसूस करता हूं कि विदेश मंत्री जयशंकर ने इसी तरीके से अपनी एक बैठक इंटरनेशनल रिलेशन्स कमेटी के साथ रद्द कर दी थी जब उन्होंने जाना कि कश्मीर में भारत के रवैये की आलोचक रहीं प्रमिला जयपाल वहां मौजूद रहेंगी. मेरा मानना है कि जयशंकर कांग्रेस की महिला सदस्यों के साथ बहस कर पाने में खुद सक्षम थे. उन्हें सुनने और उनके विचारों का जवाब देने के बजाए उनसे मिलने से इनकार कर देना वर्तमान सरकार की खराब भारतीय कूटनीति का उदाहरण है.
इस सबका शुद्ध परिणाम : भारत आलोचनाओं के प्रति असहिष्णु, अलोकतांत्रिक व्यवहार और अपनी नीतियों के कार्यान्वयन में इस तरह से असुरक्षित होकर उभरा है कि वह बहस में भी चुनौती दे रहे लोगों से अपना बचाव नहीं कर सकता। यह हमारे लोकतंत्र की समृद्धि और ताकत के पीटे जाते रहे ढोल के अनुरूप कतई नहीं है।
(पूर्व यूएन अंडर सेक्रेट्री जनरल शशि थरूर कांग्रेस के सांसद और लेखक हैं. उनका ट्विटर अकाउंट है @ShashiTharoor. यह वैचारिक आलेख है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं.द क्विन्ट का इससे कोई लेना-देना नहीं है।)
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