प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर अपना सोशल मीडिया अकाउंट सौंपने का फैसला किया तो बहुत सी महिलाएं खुश हो गईं. आखिर #SheInspiresUs के जरिए विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने वाली महिलाओं का जश्न जो मनाया जा रहा है. इसमें हर क्षेत्र, हर उम्र की महिला शामिल है. सभी ओर वाहवाही है. ऐसे में यह जानना तो बनता ही है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हम क्यों मनाते हैं.
महिला दिवस सामूहिक प्रयासों का नतीजा था
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत 1909 से मानी जानी चाहिए. दुनिया औद्योगिकृत हो गई थी. आबादी बढ़ रही थी और उग्र विचारधाराएं पनप रही थीं. लोगों में असंतोष था, औरतों में भी. गैर बराबरी कायम थी. औरतों को ज्यादा लंबे समय तक, पुरुषों से कम वेतन पर काम करना पड़ता था. इसलिए 28 फरवरी, 1909 को सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने नेशनल विमेंस डे के नाम से महिला दिवस मनाना शुरू किया. 1914 तक यह फरवरी की अलग-अलग तारीखों को ही मनाया जाता था. 1914 में 8 मार्च को मनाया जाना शुरू हुआ.
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक राजनीतिक संघर्ष का प्रतिफल था
पर क्या क्रोनोलॉजी समझाने के लिए यह सारी कवायद है? यह किताबी ज्ञान अधिकतर लोगों को है. जरूरी यह समझना है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक राजनीतिक संघर्ष का प्रतिफल था. तब औरतों ने सामूहिक रूप से हड़ताल-प्रदर्शनों के जरिए अपने हकों की मांग की थी. काम के कम घंटे, बराबर वेतन, वोटिंग का अधिकार. यह व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक प्रयास की उपलब्धि थी. इसीलिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस व्यक्तिगत उपलब्धियों के जश्न मनाने का दिन कतई नहीं है.
महिला कर्मचारियों की हालत खराब, कॉरपोरेट्स के लिए प्रमोशनल ईवेंट का दिन हां, इसे ऐसे ही मनाया जाता है. चूंकि सामूहिक प्रयास इतिहास और समाज बदलते हैं. व्यक्तिगत उपलब्धियां, उन प्रयासों को एकांगी बनाती हैं. कई बार उन सामूहिक प्रयासों को हाशिए पर भी डाल देती हैं. उन्हें कमजोर करती हैं. जैसे महिला दिवस को कॉरपोरेट्स प्रमोशनल ऑपरचुनिटी के तौर पर देखते हैं. कोई लाल गुलाब बांटता है, कोई चमकदार टीशर्ट. एक साल मैकडोनाल्ड जैसी कंपनी ने अपने एम के लोगों को उलटकर डब्ल्यू बना दिया था. इस साल एमेजॉन जैसे ई-कॉमर्स जाइंट ने अपने ‘प्रिटी पावरफुल प्रेजेंट्स’ पर 30 से 70 प्रतिशत का डिस्काउंट दिया है.
पर इन सेलिब्रेशंस में हम भूल जाते हैं कि एमेजॉन में काम करने वाली औरतों की स्थिति कैसी है. पिछले साल न्यूयॉर्क पोस्ट के एक आर्टिकल में बताया गया था कि कैसे एमेजॉन के वेयरहाउसों में औरतों को 12 घंटे की शिफ्ट में, रोजाना 15 से 20 मील पैदल चलकर ऑनलाइन ऑर्डर्स पूरे करने होते हैं. चूंकि वेयरहाउस ही 25 से 50 एकड़ के बीच में बना होता है. इसी तरह एचएंडएम जैसा ब्रांड महिला दिवस पर युनाइटेड नेशंस गर्ल अप इनीशिएटिव के साथ जुड़ता तो है, लेकिन अपनी गारमेंट सप्लाई चेन्स में महिला उत्पीड़न पर चुप्पी साधे रहता है.
जाहिर सी बात है, यह उत्पीड़न इसीलिए होता है, क्योंकि बड़े कॉरपोरेट्स में अधिकतर असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर काम करते हैं. महिलाओं की हिस्सेदारी अनौपचारिक क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक और कहीं-कहीं 90 प्रतिशत है. इनकी कोई आवाज नहीं. सामूहिक सौदेबाजी यानी कलेक्टिव बारगेनिंग की ताकत नहीं. यह ताकत इन्हें हासिल न हो, इसीलिए लगातार व्यक्तिगत उपलब्धियों को सेलिब्रेट किया जाता है.
व्यक्तिगत सेलिब्रेशन पर जोर क्यों?
1987 में विमेंस ओन नाम की पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गेट थैचर ने कहा था- ‘समाज जैसी कोई चीज होती ही नहीं. लोग खुद में अकेले होते हैं या परिवार के साथ. सरकार सिर्फ लोगों के जरिए ही लोगों की मदद कर सकती है. इसीलिए लोगों को खुद अपनी देखभाल करनी चाहिए.‘ उस दौर में ब्रिटेन में थैचर, और अमेरिका में रोनाल्ड रीगन ऐसे ही सैद्धांतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर रहे थे. पहला उद्देश्य यह था कि गैर जवाबदेह निजी क्षेत्र के रास्ते में आने वाले सारे अवरोधों को दूर किया जाए. दूसरा समाज की किसी भी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को दबाया जाए. यह नवउदारवाद का राजनैतिक प्रॉजेक्ट था जिसे थैचर जैसे नेताओं के जरिए पूरा किया जा रहा था. यह अब भी कायम है. हर देश का राजनीतिक नेतृत्व इसे पूरा कर रहा है- भारत का भी.
यह हर क्षेत्र पर लागू है. कनाडियन पत्रकार और एक्टिविस्ट मार्टिन ल्यूकस जलवायु परिवर्तन पर व्यक्तिगत प्रयासों से ज्यादा सामूहिक पहल पर बल देते हैं. उनका कहना है कि नव उदारवाद अति व्यक्तिवाद पर इसीलिए जोर देता ताकि राजनीतिक नेतृत्व और निजी क्षेत्र की कारस्तानियों पर किसी का ध्यान न जाए. लोगों को नागरिक नहीं, कंज्यूमर बताया जाता है और कहा जाता है कि उन्हें खुद जलवायु परिवर्तन का रुख मोड़ने में मदद करनी चाहिए. जबकि दुनिया की सिर्फ 100 कंपनियां 71% कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं. जब समाज एकजुट होगा तब उन दोनों की जवाबदेही तय की जाएगी और उनसे सवाल किए जाएंगे.
सामूहिक ताकत खतरा या दुश्मन नहीं?
इसीलिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर व्यक्तिगत सेलिब्रेशन से ज्यादा यह समझने की जरूरत है कि यह दिन किस उद्देश्य से मनाया गया था. औरतों की संगठित शक्ति कितनी महत्वपूर्ण होती है. पर आज के दौर में संगठित शक्ति को खतरे के तौर पर देखा जाता है. मजदूर संगठनों को कमजोर किया जा रहा है. जहां लोग एकजुट होकर किसी कानून या व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाते हैं तो उन्हें दुश्मन की इमेज दी जाती है. जरूरत इस बात की है कि हम सामूहिक स्वरों की ताकत को समझें. यह किसी भी समाज के लिए खुशी की बात है कि उसके नागरिक एक दूसरे से ऐसा बंधुत्व कायम करना जानते हैं. उन्हें यह भी समझना चाहिए कि परस्पर बंधुत्व के बिना आजादी, बराबरी और इंसाफ हासिल करने का कोई वादा पूरा नहीं हो सकता. हमारे संविधान की प्रस्तावना में भी बंधुत्व हासिल करने का अहम वादा है. व्यक्तिगत उपलब्धियों के जश्न में इसे कमजोर मत करें.
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