चुनाव आयोग (Election Commision) ने शिवसेना के एकनाथ शिंदे (Ekanath Shinde) के नेतृत्व वाले बागी गुट को शिवसेना (Shivsena) का असली हकदार मानकर पिछले 8 महीनों से चल रहे संघर्ष को विराम दे दिया है. शिंदे ने संघर्ष के एक मोर्चे पर फतह हासिल की है. सर्वोच्च न्यायालय में अभी एक और मामला विचाराधीन है, जिस पर 22 फरवरी से नियमित सुनवाई होगी. इस मोर्चे पर भी उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) को क्या हासिल कर पाएंगे यह भविष्य के गर्भ में है.
क्या है चुनाव आयोग के फैसले का आधार?
उम्मीद थी कि चुनाव आयोग शिवसेना का नाम और चुनाव चिन्ह ‘धनुष बाण’ को सीज कर देगा. पार्टियों के आंतरिक झगड़ों में विवाद को खत्म करने और अपना सिरदर्द बचाने के लिए आमतौर पर ऐसा होता रहा है. इस बार चुनाव आयोग ने अपने निर्णय के कारण भी विस्तार पूर्वक बताएं हैं. पार्टी विधायकों की संख्या, सांसदों की संख्या, शिवसेना को मिले कुल मतों में से शिंदे के साथ जुड़े विधायकों को मिले मतों की संख्या और ठाकरे के साथ जुड़े विधायकों की मिले मतों की संख्या आदि के आधार पर आयोग ने अपना फैसला सुनाया है.
संविधान के दसवें परिशिष्ट की व्यवस्था के अनुसार दो तिहाई से अधिक विधायकों के पार्टी छोड़ने की स्थिति में उन पर अन्य पार्टी में विलीन होने का बंधन है. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो दल बदल विरोधी कानून के दायरे में आते हैं और अपात्र घोषित किए जाएंगे. किंतु शिंदे गुट के विधायक किसी भी पार्टी में शामिल नहीं हुए.
संविधान में की गई व्यवस्थाओं को धता बताते और दल बदल विरोधी कानून को शह देते हुए अपने विधायकों को बचाने के लिए शिंदे ने सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग के सामने उनका गुट ही असली शिवसेना होने का दावा किया था. इस सिलसिले में शिंदे की तरफ से पार्टी के 4 नेता, 6 उप नेता, 49 जिला प्रमुख, 87 विभाग प्रमुख, 40 विधायक,13 सांसद और प्रतिनिधि सभा के 199 सदस्यों का समर्थन होने संबंधी शपथ पत्र भी उन्होंने आयोग के सामने पेश किए थे.
ठाकरे गुट ने भी इसी प्रकार के शपथ पत्र दाखिल किए थे, लेकिन चुनाव आयोग ने पार्टी में बहुमत होने का दावा करने के लिए दाखिल किए गए कागजातों को आधार नहीं माना, बल्कि विधानसभा में पार्टी के 55 विधायकों में से 40 विधायकों और संसद में 18 विधायकों में से 13 सांसद शिंदे के साथ होने का दावा मानते हुए शिंदे के पक्ष में फैसला दिया.
शिंदे के 40 विधायकों को मिले 3657327 वोट
शिंदे समर्थक 40 विधायकों को मिले 3657327 वोट (76 प्रतिशत) और 13 लोकसभा सदस्यों को मिले 7488634 वोट (73 प्रतिशत) भी शिंदे के साथ हैं. ठाकरे के साथ मात्र 15 विधायक हैं जिन्हें 1125113 वोट (23.5 फीसदी) और 5 सांसदों को मिले 2756509 वोट (27 प्रतिशत) हैं.
शिंदे के विधायकों और सांसदों के चुनाव क्षेत्र महाराष्ट्र के हर विभाग में हैं और उस दृष्टि से ठाकरे पिछड़ते नजर आते हैं. यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि 2019 का विधानसभा और लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी (BJP) और अविभाजित शिवसेना ने साथ मिलकर लड़ा था, इसलिए यह कहना अनुचित होगा कि शिवसेना को मिले पूरे वोट शिवसेना समर्थकों के ही हैं. फिर भी इतना बड़ा वोट बैंक किसी भी पार्टी के लिए बड़ी संपत्ति है. 2024 के आगामी चुनाव में उद्धव ठाकरे, शिवसेना और बीजेपी को अपनी असली शक्ति का पता चलेगा.
उद्धव को महंगा पड़ा चुनाव आयोग को अंधेरे में रखना
एक तकनीकी गलती भी उद्धव ठाकरे को बहुत महंगी पड़ी है. शिवसेना के संविधान में 2018 में एक परिवर्तन कर पार्टी के अंतर्गत निर्णय करने का अधिकार एक व्यक्ति को दिया गया था, लेकिन इसकी सूचना चुनाव आयोग को नहीं दी गई थी. आयोग ने इसे गंभीर गलती माना है. इसके अलावा आदेश में यह भी कहा गया है कि इस तरह का परिवर्तन पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है.
शिंदे को ‘शिवसेना और धनुष बाण’ सौंपने के चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देने की घोषणा भी उद्धव ठाकरे ने की है, पर सुप्रीम कोर्ट से उन्हें कितनी राहत मिल पाएगी यह कहना मुश्किल है. सर्वोच्च न्यायालय में पहले ही महाराष्ट्र के सत्ता संघर्ष को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है. आयोग का निर्णय और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय एक- दूसरे के पूरक होंगे या कोई अलग फैसला आता है, इसका इंतजार करना होगा.
शरद पवार की राजनीतिक सलाह
इस बारे में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के अध्यक्ष शरद पवार (Sharad Pawar) की सोच बहुत साफ नजर आती है. उनका कहना है कि चुनाव आयोग के निर्णय पर चर्चा नहीं की जा सकती. नया चुनाव चिन्ह लीजिए. जनता उसे स्वीकार करती है. उन्होंने याद दिलाया कि कांग्रेस में फूट पड़ी थी. कांग्रेस का चुनाव चिन्ह ‘बैल जोड़ी’ था. उसके बाद ‘पंजा’ चुनाव चिन्ह मिला था. जनता ने उसे स्वीकार किया और श्रीमती इंदिरा गांधी (Mrs. Indira Gandhi) को विजय दिलाई थी.
उद्धव ठाकरे की बौखलाहट
चुनाव आयोग के फैसले से एकनाथ शिंदे का खुश होना और उद्धव ठाकरे का नाराज होना क्रम प्राप्त है पर उद्धव ठाकरे किस आधार पर यह उम्मीद कर रहे थे कि आयोग उनके पक्ष में फैसला देकर ‘शिवसेना’ और ‘धनुष- बाण’ उनके हवाले कर देगा, इसका जवाब शायद उनके पास भी नहीं है.
बौखलाहट में उद्धव ठाकरे कह रहे हैं कि
‘चुनाव आयोग सरकार की कठपुतली है’,‘यह तानाशाह की शुरुआत है’,’सच की जीत होगी’, ‘शिवसेना और धनुष-बाण की चोरी करने वाले ‘चोर’ इस बात से खुश हैं कि उन्होंने चोरी पचा ली है, लेकिन नामर्द कभी मर्द हो ही नहीं सकते’ आदि आदि..
पर इससे वे राजनीतिक बढ़त नहीं पा सकते. उद्धव ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा है कि वे निराश न होते हुए संघर्ष करते रहे और अंत तक लड़ते रहे. यही एक बात हो सकती है, जिससे उन्हें कुछ हासिल हो सकता है. निश्चित रूप से उद्धव को ये उम्मीद नहीं थी कि आयोग इस प्रकार का फैसला दे सकता है.
‘शिवसेना’ और ‘धनुष-बाण’ सीज हो जाता तो शिंदे और ठाकरे दोनों को ही नए नाम और चुनाव चिन्ह के साथ राजनीतिक पारी शुरू करने पड़ती. शायद इसके लिए उद्धव ठाकरे ने मानसिक रूप से तैयारी भी कर ली थी, क्योंकि आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) अपने कार्यकर्ताओं से कई बार कह चुके थे कि वे लोग ‘धनुष बाण’ चुनाव चिन्ह के बिना भी लड़ने की तैयारी रखें. वर्तमान परिस्थिति में शिंदे का पलड़ा भारी है, क्योंकि उनके पास पार्टी का अधिकृत नाम और अधिकृत चुनाव चिन्ह भी है.
कौन है बाल ठाकरे की शिवसेना की बेहाली का जिम्मेदार?
एक सवाल यह भी उठता है कि बाल ठाकरे (Bal Thakare) की शिवसेना का यह हाल करने के लिए जिम्मेदार ‘अंतिम व्यक्ति’ कौन है? तब उंगली उद्धव ठाकरे की ओर ही उठेगी. पार्टी संबंधी आंतरिक निर्णय, बीजेपी का साथ छोड़ना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के राजनीतिक निर्णय, उनके काम करने का ढंग और बाल ठाकरे की तरह पार्टी चलाने के तरीके, पार्टी में दो फाड़ होने के बाद भी पार्टी के बागी विधायकों के बारे में की गई अवांछित टिप्पणियां कहीं से भी राजनीतिक परिपक्वता और दूरदर्शिता की गवाही नहीं देती. चुनाव आयोग के फैसले पर उनकी टिप्पणी भी उनके स्वभाव के अनुसार ही है.
पहले आत्मपरीक्षण करें फिर जनता के बीच जाना होगा
उद्धव के लिए यह समय कुछ कर गुजरने का है. सबसे पहले उन्हें अपनी दुर्दशा के कारण खोजने के लिए आत्मपरीक्षण करना चाहिए. आत्म केन्द्रित होने और आत्ममुग्धता के मायाजाल से मुक्त होना होगा. मुंबई के बाहर भी महाराष्ट्र है, इस पर भी विचार कर अपनी रणनीति तय करनी चाहिए. टूटते और घटते जनाधार को बचाने के लिए पूरे राज्य का कई बार दौरा करना होगा. हर बात पर तीखी प्रतिक्रिया देना जरूरी नहीं है, मौन भी अच्छा हथियार होता है.
जिन विधायकों ने नाराज और असंतुष्ट होकर उनका साथ छोड़ा है, उनसे संपर्क कर नाराजगी दूर करने के प्रयत्न करने चाहिए. हालांकि यह इतना सरल नहीं होगा क्योंकि खुद उनकी और आदित्य ठाकरे, संजय राउत की कठोर और कटु टिप्पणियों ने सबके मन दुखा रखे हैं. जिस राजनीतिक,वैचारिक आधार पर बाल ठाकरे ने संगठन खड़ा किया था शायद वहीं उनकी वापसी का आधार बन सकता है.
जिस राजनीतिक गठबंधन के साथ वे जुड़े हैं उसके साथ बने रहने पर कितना लाभ होगा इस पर भी विचार करना होगा. जब वे सरकार में थे तो सारे महत्वपूर्ण विभाग NCP के पास थे. तब ढाई बरस में उनकी पार्टी को सचमुच अच्छा-बुरा क्या हासिल हुआ इसका भी ठंडे दिमाग से विश्लेषण करना चाहिए. इसके साथ ही उन्हें अपने जनाधार विहीन सलाहकारों की छुट्टी करनी चाहिए. 2024 के चुनाव में करीब डेढ़ साल का समय है. बाल ठाकरे की पुण्याई का लाभ भी उन्हें मिल सकता है और उनके लिए हालात शायद इतने खराब भी नहीं होंगे, जितने की बताए जा रहे हैं. पर अपनी लड़ाई उन्हें खुद लड़नी होगी, किसी दूसरे की मदद से वे अपनी साख वापस पा नहीं सकते हैं. राह कठिन है पर बिना चले मंजिल तक पहुंचा भी नहीं जा सकता है.उन्हें खुद चलना होगा.
(विष्णु गजानन पांडे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे दी क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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