जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) ने भारत के चीफ जस्टिस बनने के बाद एक फैसले में कहा था- “हम चूक जाएंगे, अगर यह स्वीकार नहीं करेंगे कि अंतरंग साथी की तरफ से की जाने वाली हिंसा एक सच्चाई है.” हां, चीफ जस्टिस ‘मेरिटल रेप’ की बात कर रहे थे, और बता रहे थे कि इसे मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत मान्यता देने की जरूरत है.
लेकिन दिल्ली में एक लड़की की बर्बर हत्या, और उसके पार्टनर की तरफ से कवर-अप करने की कोशिश- इसके संदर्भ में देखें, तो इस टिप्पणी से बड़ा सच और कुछ नहीं हो सकता.
श्रद्धा वालकर को मारने के बाद उसके पार्टनर आफताब अमीन पूनावाला, जिसके साथ वह लिव-इन में रहती थी, ने कथित तौर पर उसके शरीर के टुकड़े किए, उन्हें छिपाकर रखा और थोड़े-थोड़े समय बाद उन्हें फेंकता रहा. इस भयानक किस्म के जुर्म पर बात करते समय, सांप्रदायिक बयानबाजियों का दौर भी चला. कइयों ने श्रद्धा पर छींटाकशी भी की कि उसने लिव-इन वाला रिश्ता रखा ही क्यों था.
ट्विटर पर एक ने लिखा, “नौजवान कामकाजी लड़कियों को अपने सदियों पुरानी संस्कृति को भूलना नहीं चाहिए.”
“पाश्चात्य संस्कृति हमारी हिंदू लड़कियों को बर्बाद कर रही है.”
भारतीय समाज का यह वर्ग, जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है, अभी भी इस बात से खफा रहता है कि दो बालिग लोग अपनी मर्जी से एक साथ रह सकते हैं,. वह यह मानने से इनकार करता है कि सेक्स एक च्वाइस है जिसे बालिग लोग चुन सकते हैं और इसके लिए उन्हें सजा नहीं दी जा सकती. हां, अदालतों ने इसे कुछ अलग तरीके से देखा है.
अदालतें लिव-इन रिश्तों को कैसे देखती हैं
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के जिस फैसले का हमने हवाला दिया है, उसमें बेंच ने साफ कहा है कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के लाभ शादीशुदा/गैरशादीशुदा, दोनों महिलाओं को मिलते हैं. कहने का मतलब यह है कि गैरशादीशुदा महिलाएं वैध रूप से यौन संबंध बना सकती हैं और वैध रूप से गर्भपात करा सकती हैं, जिसकी उस कानून में अनुमति है (जैसे एक खास समय सीमा के भीतर). यानी लिव-इन रिश्ते को लेकर भी कानून साफ है.
2006 के एक मामले- लता सिंह बनाम यूपी राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दो बालिगों के बीच रजामंदी से कायम लिव-इन रिश्ता कोई अपराध नहीं है, "भले ही इसे अनैतिक माना जाता हो." इसी बात को दोहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एस खुशबू बनाम कन्नईम्मल मामले में कहा था कि लिव-इन रिश्ते भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के दायरे में आते हैं.
2021 में सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के उस आदेश को उलट दिया था जिसमें लिव-इन रिश्ते में रहने वाले एक कपल को नैतिक आधार पर सुरक्षा देने से इनकार कर दिया गया था.
इसके अलावा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण एक्ट, 2005 के सेक्शन 2 (एफ) के मुताबिक-
"घरेलू नातेदारी" के मायने दो लोगों के बीच की नातेदारी है जो किसी भी समय एक साझी गृहस्थी में एक साथ रहते हैं या किसी समय एक साथ रह चुके हैं, जब वे समरक्तता यानी कान्सैंगग्विनिटी, शादी, या शादी की प्रकृति वाली नातेदारी या एडॉप्शन से संबंधित हैं या ज्वाइंट फैमिली के तौर पर रहने वाले परिवार के सदस्य हैं.
देश की अदालतों ने कई फैसलों में यह कहा है कि 2005 का कानून लिव-इन रिश्तों में रहने वाले लोगों पर लागू होता है.
एक मामले में लिव-इन रिश्ते के खत्म होने के बाद महिला ने पुरुष से गुजारा भत्ता मांगा था. इस पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में घरेलू हिंसा एक्ट के तहत लिव-इन रिश्तों के लिए दिशानिर्देश भी बनाए थे. लेकिन उसने यह भी माना था कि ये दिशानिर्देश जिसमें रिश्ते की अवधि, साझा परिवार, यौन संबंध और रिसोर्स का पूल शामिल है, पूर्ण नहीं हैं. अदालत ने कहा था:
"लिव-इन या शादी जैसा रिश्ता न तो अपराध है और न ही पाप, हालांकि इस देश में सामाजिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता. शादी करने या न करने या हेट्रोसेक्सुअल संबंध रखने का निर्णय बेहद व्यक्तिगत है."
इस तरह सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए एक "लिव-इन" रिश्ता, जिसमें दिल्ली की पीड़ित बंधी हुई थी, संबंधित एक्ट के तहत वैध है. इसका मतलब यह है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति घरेलू हिंसा कानून के तहत घरेलू हिंसा से सुरक्षा पाने का हकदार है.
यह मायने क्यों रखता है
यह मायने रखता है क्योंकि, जाहिर है, जब दो बालिगों के बीच रजामंदी से बने रिश्ते का मामला उठता है तो कानून समाज से ज्यादा महत्व रखता है. यानी समाज इस बारे में जो कहे, लेकिन कानून की कही बातें ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं.
यह मुख्य रूप से इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि लिव-इन रिश्ते में महिलाओं को अक्सर ताने मारे जाते हैं, नीचा दिखाया जाता है, उनका मजाक उड़ाया जाता है और डराकर चुप कराया जाता है. लिव-इन रिश्ते में रहने वाली औरत सार्वजनिक रूप से शिकायत नहीं कर सकती क्योंकि समाज उसे यह कहकर उलाहना देता है कि "पश्चिमी संस्कृति" ने उसे बर्बाद कर दिया है.
उसे अक्सर अपनी च्वाइस की वजह से कसूरवार ठहराया जाता है, जैसे यह अत्याचार उसके अपने फैसले का अंजाम है. जैसे अपने अंजाम के लिए वह खुद जिम्मेदार हैं. यह न सिर्फ बेहिसी है, बल्कि अफसोसनाक बदगुमानी भी है. औरतों के लिए नफरत से भरी. इसके अलावा समाज के ऐसे दमनकारी रवैये का असर जानलेवा हो सकता है.
लेकिन जैसा कि एक्टिविस्ट कविता कृष्णनन अपने ब्लॉग में साफ तौर से कहती हैं:
“आम तौर पर बॉयफ्रेंड/पति लंबे समय तक घरेलू हिंसा के बाद औरतों की हत्या कर देते हैं. अगर लोग सिर्फ घरेलू हिंसा पर रिएक्ट करते हैं और उसे रोकने की कोशिश करते हैं तो इससे औरतों की जान बचाई जा सकती है.”
श्रद्धा वालकर के मामले में असल हालात अभी साफ नहीं हैं. हां, यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन स्थितियों से बचा जा सकता है, अगर किसी रजामंदी के रिश्ते में बालिग लड़की को यह याद दिलाया जाए कि उसे कानून से सुरक्षा मिली हुई है. क्योंकि अगर वह ऐसा कुछ कर रही है जिस पर समाज की ‘भौंहें तन जाती हैं’, तो उसका मतलब यह नहीं कि वह कुछ गलत कर रही है. अगर उसे लगता है कि उसके साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है तो वह उसके खिलाफ बोल सकती है, आगे बढ़कर मदद मांग सकती है.
और शादी अत्याचार से छुटकारा तो बिल्कुल नहीं
यह भी ध्यान देने लायक बात है कि सिर्फ लिव-इन रिश्ते में बंधी औरतें क्रूरता का शिकार नहीं होतीं. जैसा कि कविता कृष्णनन बताती हैं, दिल्ली हाई कोर्ट ने 2014 में कहा था कि बहुत बड़ी संख्या में औरतों की हत्या उनके ससुराल में हुई थी, और उन मामलों में मुख्य आरोपी उनके पति थे.
"ऐसा महसूस होता है कि भारत में विवाहित महिलाएं अपने ससुराल से ज्यादा, सड़कों पर सुरक्षित हैं."दिल्ली हाई कोर्ट
पत्नी की हत्या के दोषी व्यक्ति की उम्रकैद को बरकरार रखते हुए जस्टिस प्रदीप नंदराजोग और मुक्ता गुप्ता की खंडपीठ ने कहा था “हम देख रहे हैं कि हत्या की हर दसवीं अपील में पति दोषी अभियुक्त है. पत्नी पीड़ित है और अपराध ससुराल में हुआ है.”
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-21) के अनुसार, किसी भी प्रकार की शारीरिक या यौन हिंसा का अनुभव करने वाली केवल 14% महिलाएं ही आगे बढ़कर मदद मांगती हैं.
इसके अलावा सर्वेक्षण में कहा गया है कि 18-49 वर्ष की आयु के बीच की 32% विवाहित महिलाओं (जिन्होंने अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार शादी की है) ने शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का अनुभव किया है. इनमें से 83% ने अपने मौजूदा पति को अपराधी बताया है.
सच्चाई यह है कि बदसलूकी की संस्कृति ने समाज को अपने शिकंजे में जकड़ा हुआ है. हमें लिव-इन और शादी, इंटरफेथ और सेमफेथ, अपर-कास्ट और लोअर-कास्ट की बाइनरी से आगे बढ़कर, आंकड़ों को देखना चाहिए. देखना चाहिए कि औरतों के साथ कैसे हिंसा की जाती है. समझना चाहिए कि पीड़ित और अपराधी हमारे इर्द-गिर्द ही है. सच तो यह है कि कोई भी पीड़ित हो सकता है, ठीक वैसे ही, जैसे कोई भी अपराधी हो सकता है.
कानून लिव-इन रिश्ते को मान्यता देता है, अब समय आ गया है कि समाज भी ऐसा करे. बजाय इसके कि हम ऐसे बर्बर अपराध का उदाहरण देकर उन औरतों को शर्मिन्दा करें जो रिश्ते में अपनी स्वायतत्ता का इस्तेमाल करती हैं, अपने अधिकार की बात करती हैं. हमें याद रखना चाहिए कि शर्मिन्दगी से चुप्पी कायम होती है, और चुप्पी ही दुर्व्यवहार और हिंसा को बढ़ावा देती है.
(एनडीटीवी, डेली पायनियर, टाइम्स ऑफ इंडिया और लाइवलॉ के इनपुट्स के साथ)
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