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स्मार्टफोन आपके बच्चे को बुद्धू बना रहा है, इस बीमारी को ऐसे रोकें

जानिए स्मार्टफोन एडिक्शन बच्चों के लिए है कितना खतरनाक

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नई पीढ़ी के बच्चों को देखकर हम कहते हैं भई बड़े तेज हैं आजकल के बच्चे. 4 से 5 साल के बच्चे देखो कितनी आसानी से सर्फिंग कर रहे हैं. वीडियो बना रहे हैं.सेल्फी ले रहे हैं. देखा आपने.... कमाल है.

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ये काफी मोहक है. पर मोहक के सम्मोहन से जुड़ी कुछ त्रासदियां ऐसी हैं:

  • यूपी के बलरामपुर में एक पांच साल के मासूम पर सात साल की मासूम बच्ची के साथ बलात्कार करने का इल्ज़ाम लगा. यह बच्चा अपनी मां के साथ अदालत पहुंचा.
  • नोएडा में एक 16 साल के लड़के ने अपनी मां और बहन की हत्या कर दी क्योंकि बहन ने शिकायत कर दी थी कि भाई दिन भर मोबाइल फोन पर खतरनाक गेम खेलता रहता है. मोबाइल पर मारधाड़ वाले गेम खेलते रहने के आदी लड़के का गुस्सा इससे बढ़ गया और उसने अपनी मां और बहन की हत्या कर दी और भाग गया.
  • मुंबई का एक किशोर ब्लू ह्वेल गेम का इस हद तक आदी हुआ कि उसने इस खेल में दी गई चुनौती को स्वीकार करते हुए एक ऊंची मंजिल से छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली. यह किशोर ब्लू ह्वेल गेम का पहला भारतीय शिकार बना.

कुछ ऐसी दिक्कतें, जो हर पैरेंट्स का सिरदर्द बनी हुई हैं

नोएडा के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाली 15 साल की शिवांगी का स्कूल में परफॉर्मेंस लगातार खराब हो रहा है. वह घंटों व्हाट्सएप पर चैट करती है. 16 साल का रोहन दत्त रात में घंटों अपने स्मार्टफोन से दोस्तों से बातें करता है और सुबह उठते ही पहला काम होता है मैसेज चेक करना.

अगर कहीं वाई-फाई या नेटवर्क साथ नहीं देता, तो वह बेचैन हो जाता है. ये दिक्कतें स्मार्टफोन और इंटरनेट एडिक्शन से जुड़ी हैं. यह कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी से जुड़ी तल्ख सच्चाइयां हैं. इंटरनेट और स्मार्टफोन हैं तो इनसे जुड़ा एडिक्शन भी है.

विशेषज्ञों का मानना है कि स्मार्टफोन या इंटरनेट एडिक्शन ऐसी मनोस्थिति है, जब लोग घंटों ऑनलाइन गेम, नेट सर्फिंग या सोशल साइट्स पर समय बिताने लगते हैं. कोई समय-सीमा नहीं रहती. खुद पर नियंत्रण कम होता जाता है. स्मार्टफोन नहीं मिलता, तो अधीर, बेचैन हो जाते हैं. डिप्रेशन में चले जाते हैं. यहां तक कि झूठ बोलकर रियल वर्ल्ड का सामना करने से कतराने लगते हैं.

बात बंद कर देने से बीमारी खत्म नहीं होती

भारतीय समाज में इंटरनेट का चलन पिछले डेढ़-दो दशक में काफी बढ़ा है और लगभग सात-आठ साल से स्मार्टफोन की तादाद बढ़ने से तो वॉयस और डाटा कम्यूनिकेशन ने नेट और फोन एंगेजमेंट को जबरदस्त रफ्तार दे दी है. ऐसे में हमने भी यह मान लिया है कि स्मार्टफोन की लत इस कम्यूनिकेशन की बाइ प्रोडक्ट है. चाहे वह कितना ही खराब क्यों न हो इसे बर्दाश्त करना ही पड़ेगा.

लिहाजा इंटरनेट और स्मार्टफोन के जिस एडिक्शन की मैं बात कर रही हूं उस पर चार पांच साल पहले भी बहुत बहसें हुई हैं. खास कर बच्चों और किशोरों की लत के लेकर. यह बहसें अब थम सी गई हैं. लेकिन बात करना बंद कर देने से कोई बीमारी खत्म नहीं हो जाती है. भारतीय बच्चों और किशोरों को स्मार्टफोन एडिक्शन लगातार कुंद कर रहा है. यह उन्हें तन्हा, डिप्रेस और मेंटली कमजोर कर रहा है.

इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च यानी आईसीसीआर की ओर से फंडेड एएमयू के रिसर्चे में कहा गया है. कॉलेज गोइंग स्टूडेंट्स एक दिन में अपने स्मार्टफोन को 150 बार देखते हैं ताकि उनके व्हाट्सअप, फेसबुक या इंस्टाग्राम पर कुछ मिस न हो जाए. टीनएजर्स बच्चों में इसकी बढ़ती लत को देखते हुए फ्रांस सरकार ने स्कूल-कॉलेजों में स्मार्टफोन और टैबलेट का इस्तेमाल बैन कर दिया है.

चलिए हम मान लेते हैं कि स्कूल-कॉलेजों में स्मार्टफोन बैन कर हम इस समस्या को कुछ हद तक काबू कर सकते हैं. लेकिन जब बच्चे घर में हों तो उनके स्मार्टफोन विहेवियर को कैसे कंट्रोल करें. यह आज पैरेंट्स के लिए टेढ़ी खीर बना हुआ है.

बैड और गुड कंटेंट का फर्क समझाइए

यह लेखिका एक किशोरी की मां है और इस समस्या से जूझ रही है. इस लेखिका ने अपनी बच्ची के स्मार्टफोन विहेवियर को बैलेंस करने के लिए जो तरीके डेवलप किए हैं वो कारगर हो सकते हैं. सबसे पहले आपको थोड़ा टेक सैवी बनना होगा. कम से कम इंटरनेट और स्मार्टफोन की दुनिया की थोड़ी जानकारी तो रखनी ही चाहिए.

इंटरनेट पर आपकी जानकारी, आपके बच्चो के गलत साइट्स पर जाने से रोकने में मदद करेगी. आप अपने बच्चों के स्मार्टफोन विहेवियर पर नजर रखें लेकिन ये जताए बिना कि आप उसकी पुलिसिंग कर रही हैं.

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. जैसे- नेटफ्लिक्स, अमेजन और अल्ट बालाजी जैसे वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस प्रोवाइडर्स ने मोबाइल फोन पर मनोरंजन की एक नई दुनिया खोल दी है. लेकिन ये सर्विस प्रोवाइडर सेक्स और कामुकता भरे जो शो दिखा रहे हैं, जो क्राइम फिक्शन चला रहे हैं, वे बेहद अधकचरे हैं.

इसे आप नैतिकता भरा लेक्चर मत समझिये. ये युवाओं को मुंहफट, संवेदनहीन और मी फर्स्ट कल्चर का आदी बना रहे हैं. इन शोज के दो-चार एपिसोड देख कर आप खुद ही इनके खतरे समझ जाएंगे. अब आप अपने बच्चों को इन्हें देखने से कैसे रोंकेगे. इन शोज से वह क्या मैसेज लेते हैं. क्या इन पर आपको कंट्रोल होगा? यहीं आपका एक रोल शुरू होता है. अपने बच्चों से इन शोज के बारे में बात करें.

भारतीय घरों में ऐसा करना मुश्किल होता है क्योंकि बच्चों और पैरेंट्स के बीच संवाद की हमारी परंपरा वर्जनाओं से जुड़े विषयों पर बात करने से रोकती है. लेकिन हम संवाद की इस लकीर के फकीर बने नहीं रह सकते. आपको आगे बढ़ कर अपने बच्चों को समझाना होगा बैड कंटेंट क्या है और गुड कंटेट क्या है.

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बच्चों के सोशल प्लेटफॉर्म्स की जानकारी रखें

अगर आपका बच्चा किसी सोशल प्लैटफॉर्म पर हैं तो इसकी जानकारी रखें. अब आप किशोर बच्चों के सोशल प्लेटफॉर्म में तो शामिल हो नहीं सकते. लेकिन उनसे पूछ सकते हैं कि वो किस प्लेटफॉर्म पर हैं. आप उससे पूछ सकते है कि वो किससे चैट कर रहा है. अगर बच्चे को बताने में हिचक है तो उसकी इंटरनेट गतिविधियों पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है.

बच्चे अनजाने में व्हाट्सऐप, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर कई सारी पर्सनल जानकारी दे देते हैं. टीन एजर्स इस तरह बहुत सी गोपनीय बातें भी कई तरह के प्रलोभन के चलते नेट पर शेयर कर देते हैं. उसे कुछ सलाह जरूर दें. जैसे वो किसी अजनबी से ज्यादा दोस्ती ना करे. उसके साथ अपनी व्यक्तिगत जानकारी ना बांटे. इंटरनेट से खरीदारी, डाउनलोड आदि करने में सावधानी रखे.

फिल्टरिंग और ब्लॉकिंग सिस्टम भी है मदद के लिए

इंटरनेट पर कई तरह के फिल्टरिंग और ब्लॉकिंग सिस्टम भी हैं, जिसमें सुविधा होती है कि आप ऐच्छिक साइट्स ही खोल सकें ताकि अनचाही वेबसाइट्स सर्फ ही न की जा सकें. माइक्रोसॉफ्ट इंटरनेट एक्सप्लोरर पर भी यह सुविधा उपलब्ध है.

इंटरनेट कंटेंट रेटिंग एसोसिएशन का एक वेबसाइट रेटिंग सिस्टम है. इसके लिए इंटरनेट एक्सप्लोरर में 'टूल्स' मेनू में जाकर 'इंटरनेट ऑप्शन' चुनिए. उसमें 'कंटेंट' पर जाकर 'कंटेंट एडवाइजर' सिलेक्ट करें फिर 'इनेबल' पर क्लिक करें. रेटिंग्स विकल्प का उपयोग कर आप जिस विषय से संबंधित साइट्स चाहते हैं उसकी सूची देख सकते हैं. फिल्टरिंग की सुविधा इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर भी देते हैं.

स्मार्ट फोन बच्चो को स्मार्ट नहीं बनाता

स्मार्ट फोन के इस्तेमाल से जुड़ी एक बड़ी दिक्कत ये आ रही है कि बच्चे स्कूल के प्रोजेक्ट से लेकर होमवर्क तक के लिए पूरी तरह इस पर निर्भर होते जा रहे हैं. जिस जवाब को खोजने के लिए उसे किताब पलटना चाहिए उसके लिए गूगलिंग शुरू हो जाती है. इससे सब्जेक्ट के कॉन्सेप्ट को समझना हाशिये पर चला जाता है.

स्मार्टफोन की मौजूदगी के कारण हम-आप अब पहले की तरह किसी समूह में बैठ कर सिनेमा या टीवी नहीं देखते, इसने हर किसी को निजी एकांत में देखने-बरतने का मौका दे दिया है. यही एकांत अब पैरेंट्स के लिए मुसीबत बनता जा रहा है. आज बच्चों से लेकर बड़ों तक को सेल्फी की भी लत लग गई है. किशोरों को लगता है कि वर्चुअल वर्ल्ड में सक्रिय रहने से एक सेलेब्रिटी स्टेटस मिल जाता है.

बहरहाल फोनजैन (स्मार्टफोन जेनरेशन) की पैरेंटिंग की चुनौतियां मौजूद रहेंगी. लेकिन अगर रास्ता निकालने की तरकीबें ढूंढेंगे तो यह ज्यादा मुश्किल साबित नहीं होंगी. स्मार्टफोन ने पैरेंटिंग को मुश्किल जरूर बनाया है लेकिन जूझने के हथियार भी मौजूद हैं. इस्तेमाल तो कीजिये.

(लेखिका अनुजा भट्ट 'मैं अपराजिता' मैगजीन में एडिटर हैं. वे स्वतंत्र लेखन भी करती हैं. पेरेंटिंग पर प्रभात प्रकाशन से छपी उनकी किताब 'बच्चों में लीडरशिप' चर्चित रही है. इस लेख में छपे विचार उनके निजी हैं. क्विंट से इनकी सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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