श्रीलंका अब 21 वीं सदी में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ हुए कलरफुल जनविद्रोह वाले देशों जैसे ट्यूनीशिया की क्रांति, अरब आंदोलन, जॉर्जिया रोज क्रांति, यूक्रेन ऑरेंज रेवॉल्यूशन और किर्गिस्तान ट्यूलिप क्रांति जैसे देशों की सूची में शामिल हो गया है. श्रीलंका के आंदोलन और इसके झंडे के रंग ‘नील महानेल’ को देखते हुए इसे ‘पर्पल यां बैंगनी क्रांति’ कहा जा सकता है.
आंदोलन की अगुवाई करते हुए श्रीलंका के युवाओं ने एक सांसद की पीट पीट कर हत्या कर दी और कई सत्ताधारी दल के सांसदों के घरों को घेर लिया. इसके अलावा प्रधानमंत्री के आधिकारिक और निजी निवास, दोनों में आग लगा दी. संसद भवन पर लगभग कब्जा ही कर लिया था. इतना ही नहीं राष्ट्रपति और उनके कुनबे को देश से धकेलकर बाहर कर दिया. ये लोग देश के प्रतिनिधि थे और मुश्किल से 2 साल पहले ही चुने गए थे. विदेशी कर्ज चुकाने में असमर्थ, इंपोर्ट का बिल चुकाने के लिए पैसा नहीं होना और खाने पीने की चीजों की भयानक किल्लत और बेकाबू महंगाई, भाई भतीजावाद, और खुल्लमखुल्ला भ्रष्टाचार और इकनॉमी का कुप्रबंधन पूरी तरह से सबके सामने आ गया था.
साठ के दशक की 'सोने की लंका'
साठ के दशक में समझदारी वाली पब्लिक पॉलिसी लाकर श्रीलंका दक्षिण एशिया में तरक्की का एक मॉडेल कंट्री बना था. साल 1964 में सिंगापुर के फाउंडर ली कुआन ने उम्मीद जताई थी कि एक दिन उनका देश श्रीलंका जैसा हो.
साल 1964 में सिंगापुर के फाउंडर ली कुआन ने उम्मीद की थी कि उनका देश भी एक दिन श्रीलंका जैसा होगा.
श्रीलंका में साक्षरता दर 92 फीसदी है. यह विकासशील देशों में सबसे ज्यादा है. प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूल में एनरोलमेंट 100 फीसदी है. देश की 96 फीसदी जनता को बुनियादी सेहत की सुविधाएं मिलती हैं.
मानव विकास की बेहतर दशा से ये माना जा रहा था कि श्रीलंका में आर्थिक विकास को मजबूती मिलेगी और सभ्य समाज का रास्ता प्रशस्त होगा. ये मुमकिन भी हुआ होता अगर श्रीलंकाई नेताओं ने जनता के पैसे का दुरुपयोग कर अपना पॉकेट नहीं भरा होता.
यह सिर्फ राजपक्षे कुनबे की बात नहीं हैं जिसने बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार किया बल्कि यह काफी लंबे वक्त से होता आ रहा था.
दक्षिण एशियाई देशों में घोटाला और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग बहुत ज्यादा होता है और इन देशों के नेताओं में यह जन्मजात प्रवृति होती है. श्रीलंका की घटना दूसरे देशों के लिए एक सबक है.
हालात अलग हो सकते थे...
दक्षिण एशिया में औसत आबादी 1.16% की रफ्तार से बढ़ती है जबकि श्रीलंका में यह दर 0.27% है. यहां वयस्क साक्षरता दर 92% है जो कि विकासशील देशों में सबसे ज्यादा है. इसी तरह प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में नामांकन शत-प्रतिशत है. यहां की 96% आबादी को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल हैं. अगर 1000 बच्चों पर शिशु मृत्यु दर देखें तो श्रीलंका में सिर्फ 7 है जबकि भारत में 29 और पाकिस्तान में 58 है. पाकिस्तान में हर साल 1.5 मिलियन असंक्रमित बच्चों की मृत्यु हो जाती है, जबकि श्रीलंका के 98% बच्चों का टीकाकरण पूरा होता है.
कोई भी यह मान सकता है कि इस तरह मानव विकास सूचकांक में बेहतरी से किसी देश में तेज आर्थिक विकास और ज्यादा सभ्य समाज की राह बनेगी. यह संभव भी हो सकता था, अगर नेताओं ने अपनी बेकार की योजनाओं पर जनता के पैसे बर्बाद नहीं किए होते और अपनी और अपने रिश्तेदारों के जेब नहीं भरे होते.
श्रीलंका की अपनी एक यात्रा पर, मैं तटीय मार्ग से दक्षिण के गाले तक गया. पाम ट्री यानि ताड़ के पेड़ किनारे किनारे लगी थी और सड़क चांदी की तरह चमक रही थी. बीच किनारे कतार से पब बने हुए थे. कुछ स्कूली बच्चों को मैंने ट्रैफिक कंट्रोल करते देखा. वो सुरक्षित तरीके से छोटे बच्चों को रोड क्रॉस करवाने में उनकी सहायता कर रहे थे. आज विरोध प्रदर्शनों का केंद्र गाले फेंस में, युवाओं के समूह ताश खेलकर समय काट रहे थे. कुछ बस यूं ही वहां मंडरा रहे थे और सभी के सभी बेरोजगार थे.
आम धारणा अब ये हो गई कि मौजूदा सियासत सिर्फ चापलूसों और परिवार के वफादारों को संरक्षण देती है.किसी युवा, महत्वाकांक्षी और मेहनती के लिए काम हासिल करना या किसी शीर्ष की जगह पर पहुंचना बहुत मुश्किल है. ऐसा करने में उनकी जिंदगी खप जाएगी.
...लेकिन श्रीलंका ने सब बर्बाद कर लिया
यह केवल राजपक्षे का कुनबा नहीं है जिसने व्यवस्था को भ्रष्ट किया. यह लंबे समय से होता आ रहा है. लोगों ने अब केवल अपनी हताशा को बाहर निकाला है. चंद्रिका कुमारतुंगा, जिनके पिता 1956 से 1959 तक श्रीलंका के प्रधानमंत्री थे और मां 18 वर्षों तक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहीं, उनके शासन में भी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद था. कुमारतुंगा 1994 से 2005 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति थीं. उन्होंने पीपुल्स अलायंस का नेतृत्व किया. यह सात राजनीतिक दलों का एक मोर्चा था. इससे सीधा और क्या होगा कि इनका चुनाव चिन्ह था कुर्सी. इसके अलावा उनकी सरकार ने जनता के पैसे को कैसे बर्बाद किया, यह दक्षिणी विकास प्राधिकरण (एसडीए) के मामले से पता चलता है
सत्ता में आते ही पीपुल्स अलायंस ने SDA को यह कहते हुए लॉन्च किया कि यह लोगों को रोजगार देगा. वो यह दिखाना चाहते थे कि वो साउथ का विकास करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. लेकिन SDA सिर्फ सत्ता समर्थकों और पीपुल्स एलाएंस के पार्टनरों का लूट का अड्डा बन गया . मोटी तनखा वाली नौकरी PA के समर्थकों को दी गई जिन्होंने चुनाव में उनकी मदद की थी. नतीजा ये हुआ कि बजट का ज्यादा बड़ा हिस्सा मोटी सैलरी पर चला गया और जो प्रोग्राम था उस पर उतना ध्यान और खर्च ही नहीं किया गया.
प्राधिकरण ने सबसे पहले जिन कंपनियों को कर्ज दिया उनमें से एक थी रूहुना 2001 ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट एंड ट्रेनिंग कंपनी. यह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी. इसे रिटायर्ड मेजर-जनरल ने बनाया था और जिन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में पीपुल्स एलायंस के लिए काम किया था.
इस कंपनी को दक्षिणी युवाओं को 'पर्यावरणीय एनिमेटर' के रूप में रोजगार के लिए प्रशिक्षित करना था. अब पता नहीं इसका मतलब क्या था. प्राधिकरण ने 23,000 डॉलर लगाए और उस जनरल ने 5,500 डॉलर लगाए. इसमें उनका निजी निवेश केवल 1,400 डॉलर था. इसके बाद प्राधिकरण ने उन्हें कैपिटल ग्रांट के तौर पर $120,000 की पेशकश की.
अब इस सिस्टम से तो सभी पक्षों को संतुष्ट होना चाहिए था.. लेकिन नहीं ! सरकार ने आगे बढ़कर कंपनी को एक 80 एकड़ का सरकारी फार्म और एक गेस्ट हाउस सौंप दिया, जिसे जनरल ने खुशी खुशी ले लिया. जनरल को लग्जरी कार और अन्य सुविधाओं के अलावा $700 का मासिक वेतन मिलता था. इस प्रकार, उन्होंने दो महीने के भीतर अपने निवेश की पूरी वसूली की. फिर, जनरल के रणनीतिक दिमाग ने बाजार के प्रलोभनों के सामने सरेंडर कर दिया.उन्होंने फर्नीचर, वाहन, ऑफिस उपकरण और उन इमारतों पर लाखों खर्च किए, जो कभी हकीकत में बने ही नहीं थे.
आखिर सेना के इन रिटार्यड जनरल ने जिन युवाओं को ट्रेनिंग दी उनमें से कितने युवाओं को नौकरी मिली? अपनी रिपोर्ट में जनरल ने बड़ी चतुराई से कहा कि प्रशिक्षण कार्यक्रम के बाद युवाओं को "रोजगार के लिए निर्देशित" किया गया था, हालांकि वास्तव में, उनमें से शायद ही किसी को नौकरी मिली हो, कम से कम 'पर्यावरणीय एनिमेटर' के रूप में. वहीं एसडीए ने स्थानीय चुनावों के लिए पीपुल्स एलायंस के एड कैंपेन पर जनता के 50,000 डॉलर भी उड़ा दिए.
दक्षिण एशियाई देशों में सब जगह एक सी कहानी
दक्षिण एशिया में ऐसे वित्तीय घोटालों और सरकारी मशीनरी और सार्वजनिक धन के दुरुपयोग मामले की भरमार है. यहां के शासकों में चोरी करने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है. किसी सड़ी-गली चीज की आहट हमेशा हवा में रहती है. युवा राजनीतिक दलों को चलाने वाले ‘बुजुर्ग डायनासोर’ से निराश हैं. वहीं अफसर स्वार्थी हैं और खुद तक सीमीत हैं. उन्हें यह मालूम ही नहीं होता कि आखिर जनता को क्या चाहिए. जनता से उनका संपर्क पूरी तरह से कटा हुआ है.
दक्षिण एशिया के युवाओं को 27 वर्ष की औसत आयु तक आर्थिक गतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. बेरोजगारी में हर देश एक दूसरे से बढ़कर ही है. कोई किसी से कम नहीं. अगर आज आबादी को देखें और पुराने बैकलॉग को छोड़ भी दें तो भी भारत को सालाना 8 मिलियन यानि 80 लाख नौकरी की जरूरत होगी तो वहीं बांग्लादेश को 2.3 मिलियन और पाकिस्तान को 1.3 मिलियन और नेपाल को 5 लाख नौकरी के मौके खड़े करने होंगे.
अपने एक चीनी दौरे पर अमेरिकी राष्ट्रपित जॉर्ज बुश ने चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन से नाश्ते पर पूछा था कि क्या वो रात में अच्छे से सो पाए? इस पर जवाब में जियांग जेमिन ने कहा कि: “ आखिर मैं कैसे अच्छे से सो सकता हूं? 20 मिलियन नौकरी की चुनौती मुझे रातों को सोने नहीं देती” . यह सच में एक भयानक सपना है.
श्रीलंका से सबक लेना चाहिए
श्रीलंका की 'बैंगनी क्रांति' दक्षिण एशियाई देशों के नेताओं के लिए एक अलर्ट हो जाने वाला कॉल होनी चाहिए. यहां के युवाओं की बड़ी फौज जो पढ़ी लिखी है और दुनिया से जुड़ी हुई है. वो खतरनाक रूप से मोहभंग और अस्थिरता का शिकार है.
एक बार जब असंतोष के बीज बो दिए जाते हैं, तो कुछ लोग उग्रवाद की ओर देखेंगे. दक्षिण एशिया में युवाओं के नेतृत्व वाले कई हिंसक और अलगाववादी आंदोलनों की जड़ें सरकारी भ्रष्टाचार में हैं.
दक्षिण एशिया के जन प्रतिनिधियों को राज्य के खजाने को लूटने, भव्य और फालतू की योजनाओं पर जनता का पैसा बर्बाद करने, वोट बैंक की राजनीति खेलने के बजाय.. अपना सबसे ज्यादा ध्यान सुशासन, रोजगार सृजन, सामाजिक सद्भाव और कानून के शासन पर देना चाहिए
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