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मैं से हम होने की कहानी- एक औरत की जुबानी

एक रिश्ता आपके अंदर बहुत कुछ बदल देता है, और इस बदलाव को स्वीकारना कभी आसान तो कभी मुश्किल होता है

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सुबह सुबह स्कूल जाने के लिए बेटी को उठाना – पिछले दस साल से ऐसी ही होती है मेरे दिन की शुरुआत. लेकिन आज जब बेटी को उठाया, तो वो बोली आपको नींद नहीं आती क्या, रोज मेरे पहले आप उठ जाती हो. कभी तो आपका भी मन सोने का करता होगा, कभी आपको भी छुट्टी चाहिए होती होगी, फिर आप ऐसे क्यों हो? एक साथ सवालों की झड़ी लगा दी...

सवाल इतने सारे थे. लेकिन घड़ी देखते हुए मैंने छोटा सा जवाब दिया – मां हूं न तुम्हारी.

उसका पलट कर जवाब आया, तो क्या पापा की वाइफ नहीं हो? और वो बाथरूम में घुस गई. सुबह की भागदौड़ में उसके जवाब को मैं अपने जवाब से मिला नहीं पाई लेकिन स्कूल के लिए विदा कर जब अखबार पढ़ने बैठी, तो एकाएक मन में उसका जवाब दोबारा कौंधने लगा. लगा बेटी ने ऐसा क्यों कहा?

स्नैपशॉट
  • शादी को मेरे 12 साल हो चुके थे लेकिन मुझे खुद भी पता नहीं चला की कब पत्नी से मैं सिर्फ मां बन कर रह गई.
  • मेरे अंदर के इस बदलाव के पीछे क्या हाथ शादी का था ?
  • जब मिले तो आकांक्षा पिछले कुछ सालों से पति को छोड़ अपने माता पिता के साथ रहने आ गई थी.
  • आज उसने मेरा हाथ थाम कर कहा, मां-बाप सही थे और मैं गलत.
  • यहीं से शुरुआत हुई खुद को बदलने की...
  • पता नहीं क्यों ? अचानक मेरे सब्र का बांध टूट गया
  • बदलो बेहतरी के लिए लेकिन इतना ही नहीं की अपना मैं खो दो...

क्या शादी ने मुझे बदल दिया?

एक रिश्ता आपके अंदर बहुत कुछ बदल देता है, और इस बदलाव को स्वीकारना कभी आसान तो कभी मुश्किल होता है
शादी को मेरे 12 साल हो चुके थे लेकिन मुझे खुद भी पता नहीं चला की कब पत्नी से मैं सिर्फ मां बन कर रह गई. आज बेटी के एक शब्द ने मुझे दोबारा पत्नी होने का अहसास करा दिया था.

फिर मन थोड़ा और पीछे गया, तो लगा 12 साल पहले मैं एक बेटी से पत्नी कैसे बनी, उस बदलाव को तो फिर भी थोड़ा महसूस किया था, क्योंकि घर परिवार, परिवार वाले, माहौल, सब बदला था. लेकिन पत्नी से मां के बदलाव में वक्त का मानो पता ही नहीं चला.

और यही है एक औरत के जीवन की कहानी.

मेरे अंदर के इस बदलाव के पीछे क्या हाथ शादी का था ? मन जज और वकील एक साथ बनता गया. सवाल भी खुद से किए जवाब भी खुद ही दे दिया. फिर अचानक ख्याल आया आकांक्षा का. आकांक्षा और मैं बचपन से एक से लेकर कर बारहवीं तक साथ पढ़े. फिर बाद में काफी अरसे तक उसकी कोई खोज खबर नहीं थी. और एक दिन फेसबुक पर पता चला की मां बाप से बगावत कर दूसरे धर्म के लड़के से शादी कर ली. मां बाप से मिली तो उनका पक्ष सुन कर थोड़ा उनके लिए दुख हुआ. समाज क्या कहेगा, मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा, हम तो मान भी जाएं, अपने मां बाप को इस उम्र में कैसे मनाएं. वही बातें जो उस दौर के लोगों के मुंह से सुनी होगी.

एक रिश्ता आपके अंदर बहुत कुछ बदल देता है, और इस बदलाव को स्वीकारना कभी आसान तो कभी मुश्किल होता है

लेकिन जब आकांक्षा से मिली तो वो बहुत खुश थी. हाल ही में हनीमून मना कर लौटी थी वो. तब अंकल आंटी के दुख को एक पल के लिए मैं भूल गई. आकांक्षा ने बताया कि कैसे जय (उसके पति) कि आदत थी, नहा कर गीला तौलिया, बिस्तर पर छोड़ कर ऑफिस जाने की. कहा शादी के बाद मैंने उसकी आदत ही छुड़ा दी. और ये बताते हुए वो बच्चों सा खुश हो रही थी, मानों मन चाही कोई गुड़िया मिल गई हो.

तकरीबन 10 साल बाद, दो दिन पहले फिर उससे मुलाकात हुई. लेकिन इस बार आकांक्षा अपने पति के साथ नहीं थी. बल्कि अंकल आंटी के साथ मिली. थोड़ी देर के लिए लगा कि वो उनसे छुट्टियों में मिलने आई है. लेकिन जब बेटे से पूछा किस स्कूल में पढ़ते हो, उसने उसी स्कूल का नाम बताया जहां मैंने और आंकाक्षा ने बचपन में साथ पढ़ाई की थी. मन में तरह तरह के ख्याल आने लगे. जी मानने को तैयार नहीं की उसके साथ कुछ बुरा हुआ होगा. लेकिन फिर उसने वही कहा, जो सुनने का मन नहीं था.

आकांक्षा पिछले कुछ सालों से पति को छोड़ अपने माता पिता के साथ रहने आ गई था. और माता पिता, जो उसके शादी के फैसले के पहले समाज, लोग पड़ोसी क्या कहेंगे, सोच रहे थे, पति को छोड़ने के फैसले पर खामोश से दिखे. खैर मेरे सामने खुल कर इस बार उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन दोस्त के दिल में मुझे झांकने का मौका मिला.

आकांक्षा बंगाल में पली बढ़ी हिन्दू लड़की थी. और शादी जैन धर्म को मानने वाले लड़के से कर ली थी. शादी के पहले, जब मां बाप ने एतराज किया तो उसका जवाब था, हम मूर्ति पूजा करते हैं, वो नहीं करते. हम मांस-मछली खाते हैं वो नहीं खाते. मैं भी खाना छोड़ दूंगी. उस दिन लगा था कि शादी दो और दो चार होते हैं, जितना ही सीधा गणित है. बेवजह लोग इसे ज्यादा उलझा देते हैं.

एक रिश्ता आपके अंदर बहुत कुछ बदल देता है, और इस बदलाव को स्वीकारना कभी आसान तो कभी मुश्किल होता है

लेकिन आज उसने मेरा हाथ थाम कर कहा, मां-बाप सही थे और मैं गलत. मैं गलत इसलिए नहीं थी, क्योंकि मैंने दूसरे धर्म में शादी की. मैं गलत इसलिए थी, क्योंकि शादी अपने आप में बहुत बड़ा बदलाव लाता है किसी भी महिला के जीवन में, और दूसरे धर्म में जाकर शादी करने पर महिलाओं को दो बड़े बदलाव एक साथ लाने पड़ते हैं. और शायद उस बदलाव के लिए मैं तैयार नहीं थी. कोशिश कि मैंने, लेकिन उसमे मैंने अपने “मैं“ को खो दिया था. खुदा ही मिले न मिसाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के हम.

एक रिश्ता आपके अंदर बहुत कुछ बदल देता है, और इस बदलाव को स्वीकारना कभी आसान तो कभी मुश्किल होता है

मैं चुपचाप आंकाक्षा को सुनती रही. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे, न वो खुद पोंछ रही थी, न मैं अपना हाथ उसके हाथ से छुड़ा पा रही थी. वो बस बोलती जा रही थी और मैं सुनती जा रही थी. आकांक्षा ने कहा कि मैंने खुद को बहुत आजाद ख्याल वाला माना.

लेकिन मेरे आजाद ख्याल जहां शुरू होते थे, वहां से उनकी आजादी खत्म होती है. शादी के अगले ही दिन सुबह उठ कर पूजा करने की आदत थी, घर पर देखा तो मंदिर ही नहीं था. सूरज को हाथ जोड़ पानी डाला और काम पर निकल गई.

यहीं से शुरुआत हुई खुद को बदलने की...

शाम को घर आई तो, पता चला मां ने खाना खा लिया है. ऐसा क्यों पूछने पर पता चला की सूरज डूबने से पहले ही वो खाना खा लेती लेती है, और फिर उगने के पहले तक कुछ नहीं खाती. ये रिवाज मेरे लिए अजीब था. पर अलगे दिन ऑफिस जाने से पहले शाम के खाने में क्या खाएंगी उसका इंतजाम कर कर ही. और फिर इसे अपने रूटीन में शामिल कर लिया.

ये था मेरे जीवन का तीसरा बदलाव.

मैंने मां को देखा था, किस तरह वो दादी का ख्याल रखती थी. वही मेरे लिए आदर्श थी. कुछ दिन तक ऐसा चलता लेकिन एक दिन जय ने मुझ से पूछा, मां शाम का खाना खुद बनाती है क्या? मैंने जवाब हां में दिया, और साथ में जोड़ा तैयारी कर जाती हूं.

उसने कहा तुम बना कर क्यों नहीं जाती?

अजीब लगा मुझे, लेकिन मैंने कोई जवाब नहीं दिया. अगले दिन से थोड़ा पहले उठ कर शाम का खाना बनाने लगी और फिर ऑफिस जाती. ये था चौथा बदलाव. कुछ महीने और बीत गए. एक दिन घर पर थी, कि अचानक बॉस का फोन आया, शनिवार को जल्दी आना है, एक मीटिंग है. लेकिन उस शनिवार को माताजी के धर्मगुरु आ रहे थे. बड़ी मुश्किल से बॉस को मनाया, और दूसरे को प्रेजेंटेशन की जिम्मेदारी सौंपी. शादी न हुई होती तो ऐसा कभी न करती. लेकिन फिर कुछ दिनों बाद जय ने कहा तुम ऑफिस और घर दोनों मैनेज करने में थक नहीं जाती, क्यों नहीं नौकरी छोड़ देती?

आकांक्षा ने बताया कि मैं समझ गई थी, नौकरी छोड़ने की बात कहां से शुरू हुई थी. बहुत सोचा और मैंने जीवन का वो बड़ा फैसला लिया, जो दूसरे धर्म में शादी से भी ज्यादा बड़ा था. मैंने नौकरी छोड़ दी. लेकिन घर पर काम के बाद खाली वक्त में बाहर आने जाने पर, कपड़े पहनने, दोस्तों के साथ पार्टी करने से लेकर दूसरे पुरुष दोस्तों को घर पर बुलाने तक पर पांबदी, रोक-टोक शुरू हो गई.

बीच में कई बार जय से अपना दुख साझा करने की कोशिश की. लेकिन वही जय जिसे शादी के पहले, कुछ बिना बोले भी सब समझ जाया करते थे, वो आज शब्दों के पीछे के मेरे भाव भी नहीं समझ पा रहे थे. एक दोस्त की सलाह पर दो से तीन होने का फैसला कर लिया. लेकिन उसके बाद तो चीजें मानो बद से बदतर होती चली गई. पहले जय और माता जी की जिम्मेदारी थी. अब बच्चे की भी. लेकिन जिम्मेदारियों को साझा करने वाला कोई नहीं.

एक दिन बेटा स्कूल से पीले फूल से गणेश जी ड्राइंग बना कर लाया. सालों बाद गणेश जी की तस्वीर देख कर मैं उसे समझाने बताने ही लगी थी कि किस तरह से हर शुभ काम के पहले गणेश जी से आशीर्वाद लेकर शुरुआत की जाती है, कि उधर से आवाज आई जरा जैन धर्म भी समझा देना.

पता नहीं क्यों ? अचानक मेरे सब्र का बांध टूट गया

मैं बिफर पड़ी. और बेटे को लेकर मां के पास आ गई. बिना फोन किए, बिना किसी को बताए. बिना सोचे की वो मुझे स्वीकार भी करेंगे या नहीं. आकांक्षा ने कहा मैं धार्मिक बिलकुल नहीं थी. लेकिन सासु मां की उस एक बात से मुझे बहुत दुख पहुंचा. मैंने उनके लिए अपना धर्म, अपनी चाल, अपनी नौकरी, अपनी खुशी, पहनावा, सब कुछ बदला. लेकिन वो अपने में बस एक छोटा सा बदलाव न कर सकी, भगवान के बारे में एक लाइन सुनने की.

इतना तक तो सब ठीक था, लेकिन अगर मेरे बेटे को भी वही करना पड़े, वैसे ही बदलना पड़े ये न हो पाएगा. वो तो कम से कम आजाद रहे, क्या पहनना है, किसकी पूजा करनी है? क्या सीखना है? बस इतना कहा और आकांक्षा सुबक-सुबक कर रोने लगी. हाथ पकड़ कर बोली, मैंने तो जय के लिए खुद को बदल दिया पर बेटे को बदलते नहीं देख सकती, बदलो बेहतरी के लिए लेकिन इतना ही नहीं की अपना मैं खो दो...

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