25 मई तक रहेगी दिल्ली सरकार?
आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में सवालिया अंदाज में लिखा है कि दिल्ली सरकार को 25 मई के पहले बर्खास्त किया जाएगा या उसके बाद? फिलहाल, यह महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है. दिल्ली में उसी दिन लोकसभा चुनाव हैं. उसके पहले कदम उठाने पर भारतीय जनता पार्टी के लिए दिल्ली की सीटें जीतने की संभावना पर असर पड़ सकता है.
दिल्ली के सीएम और उपराज्यपाल के बीच व्यंग्यवाण जारी हैं. केजरीवाल यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि वह एक दमनकारी सरकार के राजनीतिक बंदी हैं न कि एक भ्रष्ट व्यक्ति. हर दूसरे दिन जेल मे बंद मुख्यमंत्री के साथी बाहर यह घोषणा करते है कि उन्होंने जेल से क्या ‘निर्देश’ दिया है या क्या ‘निर्णय’ लिया है. प्रतिक्रिया में राज्यपाल ने जोर देकर कहा है कि दिल्ली की सरकार जेल से नहीं चलेगी.
आदिति लिखती हैं कि हमें एक बात समझ लेनी चाहिए कि अनुच्छेद 239 एए या एबी के तहत दिल्ली के उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि वह भारत के राष्ट्रपति को सूचित करें कि ऐसी स्थिति बन गयी है, जहां राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का प्रशासन संविधान सम्मत तरीके से नहीं चलाया जा सकता है और वह सरकार को बर्खास्त करने की अनुशंसा कर सकते हैं.
2000 से आज तक वीके सक्सेना को अगर किसी से डर लगा है तो वह हैं मेधा पाटकर. सन 1990 के दशक में जब सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के विरुद्ध बाबा आमटे और मेधा पाटकर के नेतृत्व वाला 'नर्मदा बचाओ' आंदोलन चरम पर था, उस समय सक्सेना ने एक स्वयंसेवी संगठन की स्थापना की, जिसका नेशनल काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज नाम था.
सक्सेना ने आलेख प्रकाशित कराने आरंभ किए और पाटकर की गतिविधियों के विरुद्ध सशुल्क विज्ञापन देने शुरू किए. उन्होंने आरोप लगाया कि वह राष्ट्रविरोधी हैं तथा उन्हें संदिग्ध विदेशी माध्यमों से पैसे मिल रहे थे. बदले में पाटकर ने उनके खिलाफ अवमानना के मामले दायर किए जो अभी भी चल रहे हैं.
आशीष नंदी के खिलाफ भी ऐसी ही शिकायतें दर्ज कराई गयी. सक्सेना के कार्यकाल में ही केवीआईसी को कॉरपोरेट में बदला गया और उसने मुनाफा कमाया.
मकुदमों का इतना अनुभव होने के बाद भी वह कौन सी बात है, जो सक्सेना को केजरीवाल को पद से हटाने के लिए कानून का इस्तेमाल करने से रोक रही है? शायद इसका जवाब 25 मई के बाद मिलेगा.
संविधान पर अंतिम प्रहार
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 29 में से सात राज्यों की स्थिति यह है कि कर्नाटक, तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख युद्ध क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है. इसके विपरीत, ओडिशा और आंध्र प्रदेश किसी पूर्व लिखित नाटक के मंच की तरह लगते हैं, वास्तविक युद्ध के मैदान की तरह नहीं.
बीजेपी ने अपने सारे हथियार झोंक दिए हैं. सबसे ऊपर असंवैधानिक चुनावी बॉन्ड (ईबी) के जरिए इकट्ठा किए गये धन का विशाल भंडार है. समाचार पत्रों, टीवी और ‘बिलबोर्डों’ में विज्ञापनों के माध्यम से विशाल आयुध सामग्री झोंक दी गयी है. बीजेपी असमान खेल मैदान पर खेल रही है. बीजेपी चार सौ से कुछ अधिक उम्मीदवारों को नामांकित करेगी. पचास तक उम्मीदवार दलबदलू होंगे.
चिदंबरम लिखते हैं कि शस्त्रागार में घातक हथियार हैं ‘गिरफ्तारी और नजरबंदी’. निशाने पर दो मुख्यमंत्री, एक उपमुख्यमंत्री, कई राज्यमंत्री, मुख्यमंत्रियों और अन्य नेताओं के परिवार के सदस्य और विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता हैं. फिलहाल, संसद के दोनों सदनों में बीजेपी के 383 सांसद, 1481 विधायक और 163 एमएलसी हैं. इनमें पूर्व गैर-बीजेपी नेता भी शामिल हैं जो विशाल ‘लॉन्ड्री मशीन’ में धुलकर शुद्ध और बेदाग हो गए हैं.
राज्यपालों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल इसके उदाहरण हैं. तेलंगाना की राज्यपाल तो इस्तीफा देकर चुनाव मैदान में आ धमकी हैं. राज्य सरकारों को अस्थिर करना भी हथियार है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार इसका उदाहरण है.
आरएसएस-बीजेपी एक एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं. आरएसएस के नेताओं का सोचना है कि वे काफी लंबे समय तक इंतजार कर चुके हैं और लोकसभा चुनाव में जीत उनके एजेंडे को पूरा करने के लिए एक ‘प्रस्थान बिंदु’ साबित होगा.
गांधी परिवार के गिर्द कांग्रेस
तवलीन सिंह ने 1999 में प्रकाशित अपने एक लेख के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि तब सोनिया गांधी ने राजनीति में पहला कदम रखा था. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को गिराने में अहम भूमिका निभाई थी. मुलायम सिंह यादव पर पूरा विश्वास किया कि वे लोकसभा में कांग्रेस की सरकार बनाने में पूरी मदद करेंगे. इस भरोसे पर सोनिया जी राष्ट्रपति भवन के प्रांगण मे पत्रकारों से मिली थीं और जब किसी ने पूछा कि उनको लोकसभा में कितने लोगों का समर्थन मिलने वाला है तो उनका जवाब था “दो सौ बहत्तर लोग हमारे साथ हैं और कई सारे और जुड़ने वाले हैं.”
उस लेख में लेखिका ने लिखा था कि गांधी परिवार के ‘करिश्मा’ पर कांग्रेस के लोगों को भरोसा कम करना चाहिए, नई नीतियों, नयी सोच पर ज्यादा. यह भी लिखा था कि गांधी परिवार को अपने भले के लिए चमचों और खुशामदी लोगों को अपने करीबी सलाहकारों से बाहर रखना चाहिए. उस पुराने लेख को पढ़कर ऐसा लगा कि उस समय जो कांग्रेस की समस्याएं थीं वह आज भी है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि सोनियाजी की जगह उनके बेटे ने ले ली है. फर्क यह है कि राहुलजी ने अपनी न्याय यात्रा के हर भाषण में साबित किया है कि उनकी राजनीतिक सोच बहुत पुराने अतीत में अटक कर रह गयी है. जातीय जनगणना और जातियों के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी बांटने की बात वे कह रहे हैं. मोदी के दौर में गरीबी जरूर कम हुई है और ग्रामीण भारत में कई तरह के सुधार दिखते हैं लेकिन शिक्षा में जरूरी सुधार नहीं आया है.
कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रहे हैं लेकिन किसी भी गांव के स्कूल में जाकर आप कुछ समय बिताएं तो जान जाएंगे कि सरकारी स्कूलों में वह शिक्षा उपलब्ध नहीं है आज भी, जिसके बिना 2024 की दुनिया में तरक्की करना असंभव है.
राहुल गांधी इसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं जातिवाद का मुद्दा उठाकर. शायद यह जाने बिना कि ऐसा करने से देश और भी पिछड़ जाएगा विश्व की आर्थिक दौड़ में. ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ खोलना अच्छा ‘डायलॉग’ बन सकता है किसी हिंदी फिल्म में, लेकिन आने वाले लोकसभा चुनावों में नया सपना नहीं बनेगा.
द्वितीय विश्वयुद्ध में हमले का खौफ
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि अधिकांश लोगों का मानना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के 80 साल बाद इस बारे में वे कम जानते हैं. मुक्द पद्मनाभन ने इसे गलत साबित कर दिखाया है. उन्होंने एक ऐसी घटना के बारे में किताब लिखी है जो कभी घटित नहीं हुई लेकिन दहशत का कारण बनी. इसे ‘द ग्रेट फ्लैप ऑफ 1942 : हाउ द राज पैनिक्ड ओवर ए जापानी नॉन इनवैजन’ कहा जाता है.
फरवरी 1942 में सिंगापुर के पतन के बाद डर पश्चिम की ओर उस जगह पर फैल गया, जो अभी भी ब्रिटेन का भारतीय साम्राज्य था. मलय प्रायद्वीप से निकटता से पता चलता है कि यह जापान का अगला लक्ष्य हो सकता है.
थापर लिखते हैं कि जब सिंगापुर का पतन हुआ, तब तक मद्रास की एक तिहाई आबादी भाग चुकी थी. छह सप्ताह बाद इंडियन एक्सप्रेस का कहना है कि शहर की जनसंख्या घटकर केवल 25 फीसद रह गयी थी. एक आईसीएस अधिकारी पॉल जयराजन का मानना है कि यह 13 फीसद तक गिर गया था. इसका मतलब है कि 8 लाख में से 7 लाख भाग गये थे.
मद्रास चिड़ियाघर की घटना का जिक्र है. “शेर, बाघ, तेंदुआ, भालू और विषैले सांपों का पता लगाया गया और उन्हें गोली मार दी गयी...जापानी बमों द्वारा चिड़ियाघर को नष्ट करने की स्थिति में खतरनाक जानवरों के मुक्त होकर मद्रास के निवासियों को शिकार बनाने के जोखिम को रोकने के लिए हत्या का आदेश दिया गया था...” लंदन में भी कुछ ऐसा ही हुआ था.
1939 की शुरुआत में युद्ध के पहले हफ्ते में 4 लाख से 7.5 लाख बिल्लियां और कुत्ते मारे गये थे. मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भाग निकले थे. दिल्ली और संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में अफवाहों ने दहशत फैलायी. स्टेट्समैन ने फटकार लगाते हुए कहा, “क्या भारत सरकार तिब्बत में वापसी की व्यवस्था कर रही है? क्या हम आखिरकार पामीर को पार करके दुनिया की छत पर पहुंचने वाले हैं? और कहीं कोई दम तो नहीं बचा?”
शासकीय नीतियों से अवाम बेचैन
सैकट मजूमदार ने टेलीग्राफ में लिखा है कि एक वेबसाइट पर उन्होंने उत्तराखंड के रामनगर तहसील में ध्वस्त शेर अली बाबा के मजार की तस्वीर देखी. इसकी देखभाल करने वाले अशरफ अली खाली जगह के सामने खड़े होकर प्रार्थना कर रहे थे. मजार को मई 2023 में ध्वस्त कर दिया गया था, जबकि दस्तावेज सही थे. कांटेदार तार की बाड़ के बाहर अगरबत्तियों, मिठाइयों, मिट्टी के दीपक और पवित्र कपड़ों का संग्रह था, जो ध्वस्त मजार की भूत उपस्थिति का अहसास करा रहा था.
स्पष्ट है कि स्थानीय लोग अब भी इस स्थल पर आते हैं और प्रार्थना करते हैं. इस तस्वीर से एक और तस्वीर की याद हो आती है. दक्षिणी गाजा पट्टी के राफा में इजराइली हवाई हमलों में नष्ट की गयी एक मस्जिद के खंडहरों के पास शुक्रवार की प्रार्थना होती है. एक दिल दहला देने वाली और भयावह तस्वीर.
मजूमदार लिखते हैं कि कुछ भारतीय राज्यों में कुछ अल्पसंख्यक आबादी के घरों और सामुदायिक धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करना एक पूर्वानुमानित प्रशासनिक रणनीति बन गयी है जिसमें उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड हमले में सबसे आगे हैं. हम ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं जहां राजनीतिक नियंत्रण केवल चुनावों के प्रबंधन, राज्य अधिकारों के हनन या सरकार के अलग-अलग अंगों के बीच अप्रत्याशित संबंधों तक ही सीमित नहीं है. जीवित और मृत लोगों के घरों विध्वंस अल्पसंख्यक समुदाय के लिए एक वास्तविकता है.
साम्यवादी चीन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले भारत दोनों ने अपने नागरिकों के प्रजनन कार्यों की निगरानी करने की कोशिश की है. सीमित बाल नीति के कारण एक उदाहरण में वांछित जनसंख्या नियंत्रण हुआ है और दूसरे में अनिवार्य नसबंदी कार्यक्रम एक विद्रोही आपदा पैदा कर रहा है. अब सहवास के पंजीकरण की आवश्यकता बना दी गयी है. यह एक महत्वपूर्ण क्षण है, जब राज्य अंतरंगता और घरेलूता के गैर उत्पादक संबंधों को चिन्हित करना चाहता है.
देश के कुछ हिस्सों में कुछ समुदायों के बीच वैवाहिक संबंधों के खिलाफ प्रशासनिक सक्रियता पहले से ही व्याप्त है. जनसांख्यिकीय बदलाव की काल्पनिक भयावहता के कारण यह तेज हो गया है.
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