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संडे व्यू: एक-दूसरे के मददगार हैं राहुल-मोदी? नहीं रहे वाम जगत के सीताराम

पढ़ें इस रविवार तवलीन सिंह, जावेद अहमद डार, ललिता पनिक्कर, हन्नान मोल्लाह और शशि थरूर के विचारों का सार.

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एक-दूसरे के मददगार हैं मोदी-राहुल?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि कभी-कभी समझना मुश्किल हो जाता है कि राहुल गांधी मदद करते हैं मोदी सरकार की या मोदीजी के मंत्री मदद कर रहे हैं राहुल गांधी की. बीते दस साल में जब-जब राहुल गांधी विदेश गये हैं कुछ न कुछ ऐसी बात की है जिसका इस्तेमाल बीजेपी ने उनके खिलाफ किया है. इस बार भी वही हुआ.

राहुल ने सिखों के बारे में कहा कि उनको भारत में साफा और कड़ा पहनने का अब अधिकार नहीं है. एक तो यह सरासर झूठ है. ऊपर से उन्होंने ऐसा कहकर कनाडा में बसे खालिस्तानी अलगाववादियों के दिल इतने खुश किए कि उन्होंने उनकी बातों से खुलकर सहमति जताई.

जवाब में बीजेपी के नेताओं ने फौरन याद दिलाया कि सिखों के साथ अत्याचार अगर कहीं हुआ है तो वह राजीव गांधी के समय में. आगे राहुल गांधी ने कहा कि धांधली न हुई होती तो भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह हारी होती. इतना तो सोच लिया होता कि धांधली करनी थी तो बहुमत की गारंटी तो जरूर कर लेती बीजेपी.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि राहुल गांधी ने आगे यह भी कह डाला कि अमेरिका में कि भारत की नब्बे फीसदी आबादी का हाल इतना बुरा है कि वे आगे बढ़ने के अवसरों से वंचित रह जाते हैं. राहुल इल्हान उमर के साथ फोटो भी खिंचा लेते हैं जिनकी नजर में भारत में मुसलमानों के साथ इतना अन्याय होता है कि अमेरिका को भारत से संबंध खत्म कर लेना चाहिए.

यानी राहुल गांधी ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी इतनी बार मारी कि किसी और को उनके खिलाफ हथियार उठाने की जरूरत ही नहीं थी. लेकिन, पलटवार करने में मोदी के मंत्री इतने उतावले रहते हैं कि राहुल गांधी के बयान को तोड़-मरोड़ कर हमला करने से भी नहीं चूकते.

गृहमंत्री अमित शाह ने कह डाला कि राहुल के बयान से साफ है कि कांग्रेस आरक्षण विरोधी है. जब वरिष्ठ मंत्री ऐसे बयान देते हैं तो छुटभैया नेताओं का शोर मचाने में देर नहीं लगती. देशद्रोह का आरोप इतनी आसानी से वे लगाते हैं मानो राष्ट्रवाद का ठेका उन्हीं ने ले रखा हो.

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जम्मू-कश्मीर में अस्तित्व की लड़ाई में हैं क्षेत्रीय दल

जावेद अहमद डार ने डेक्कन हेराल्ड में लिखा है कि जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दल आपस में तालमेल नहीं कर सकी है. नेशनल कॉन्फ्रेन्स का कांग्रेस के साथ जरूर तालमेल हुआ है. एनसी, पीडीपी, द पीपुल्स कान्फ्रेन्स और अपनी पार्टी परस्पर कोई चुनावी तालमेल नहीं कर सकी. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी एनसी कोई उदार रवैया नहीं दिखा सकी.

अगर दो प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां पीडीपी और एनसी की बात की जाए तो ये दोनों जम्मू-कश्मीर की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता और स्वायत्तता की वकालत करते रहे हैं. इसके बावजूद चुनावी राजनीति में एक-दूसरे के विरोधी हैं. नेशनल कान्फ्रेन्स का पूरे प्रदेश में विस्तार है और उनके कार्यकर्ताओं ने सबसे ज्यादा अलगाववादियों के हमले झेले हैं.

जावेद अहमद लिखते हैं पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लरेशन (पीएजीडी) अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाए जाने का विरोध करने को जमीन पर उतरा. मगर, चुनाव में ये अलग-थलग और अस्तित्वविहीन नजर आया. एनसी और कांग्रेस के गठबंधन की अहमियत जम्मू फैक्टर की वजह से ज्यादा है. अकेले पीडीपी या एनसी जम्मू में बीजेपी का मुकाबला नहीं कर सकती. बीजेपी का मुकाबला करने के लिए जम्मू में कांग्रेस को साथ लेना पड़ेगा. इसमें एनसी ने बाजी मारी है.

अगर क्षेत्रीय दलों को बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना है तो उन्हें परस्पर सहयोग और साझेदारी की गंभीर समझ विकसित करनी होगी. स्थानीय मुद्दे ही इन्हें परस्पर जोड़ते हैं. लिहाजा अनुच्छेद 370 और 35 ए जैसे मु्ददों से क्षेत्रीय पार्टियां अपने-आपको अलग नहीं कर सकतीं. विधानसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियां वास्तव में अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रही है.

महिलाओं की चिंता में पुरुष शामिल हों

ललिता पनिक्कर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि कोलकाता में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ भयानक बलात्कार और हत्या महिलाओँ के खिलाफ हिंसा की कई घटनाओं में से एक है. यह रेखांकित करता है कि ऐसी घटनाओं का मुकाबला करने में पुरुषों को शामिल करना कितना महत्वपूर्ण है. मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड एब्यूज (MAVA) बीते 31 साल से ऐसी कोशिशों में लगा है. मर्दानगी और बेतुकी अवधारणाओं के बारे में आलोचनात्मक चर्चा इसकी विशेषता है.

“लड़के तो लड़के ही होते हैं” जैसे विचार कई निर्वाचित प्रतिनिधि भी रखते हैं जब उनके पास कोई वास्तविक उत्तर नहीं होता कि महिलाओं को इतनी बार क्यों निशाना बनाया जाता है. MAVA इस सिद्धांत पर काम करता है कि पुरुषों में स्वाभाविक रूप से हिंसा की प्रवृत्ति नहीं होती है और हस्तक्षेप करके उनके नजरिए को बदला जा सकता है.

ललिता पनिक्कर लिखती हैं कि MAVA इस तथ्य की भी वकालत करता है कि पुरुषों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा में भाग लेने से दूर रहना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि मर्दानगी की अधिक समावेशी अवधारणा बनाने में भी सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए.

MAVA के आठ मॉड्यूल का जिक्र करते हुए लेखिका का कहना है कि यह सहानुभूति, सहयोग और शक्ति साझेदारी की बात करता है जो लैंगिक समानता के लिए समान अवसर बनाने के लिए जरूरी हैं. पुरुषों को शामिल किए बिना पितृ सत्तात्मक मानसिकता को चुनौती देना सफल नहीं हो सकता.

लैंगिक भूमिकाओं और रूढ़ियों की धारणाओं को दोबारा परिभाषित करना जरूरी है. मैनुअल आशाजनक शुरूआत है. हिंसा और उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन में शामिल होने के लिए पुरुषों को सशक्त बनाना जरूरी है. लिंग चर्चा केवल महिलाओं पर केंद्रित नहीं होनी चाहिए. मैनुअल में पितृसत्ता, लैंगिक रूढ़िवादिता, असमानता, शक्ति की गतिशीलता और विशेषाधिकार, अंतर्संबंध, समावेशिता, समानता और समानता जैसी अवधारणाओं से निपटने के लिए भागीदारी को जरूरी बताया गया है.

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वाम जगत के सीताराम

हन्नान मोल्लाह ने इंडियन एक्सप्रेस में कॉमरेड सीताराम येचुरी से अपने 45 साल के संबंध के हवाले से समाज और देश के लिए उनके समर्पण की समीक्षा की है. 1980 में मुलाकात हुई जब लेखक पहली बार उलुबेरिया से सांसद हुए थे. तब येचुरी दिल्ली में एसएफआई के अखिल भारतीय कार्यालय की देखभाल करते थे. येचुरी का राजनीति से परिचय जेएनयू में हुआ था. वे लगातार तीन बार छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये. जल्द ही उनकी गतिविधियां परिसर से बाहर चली गईं और उन्होंने विभिन्न राज्यों में एसएफआई का प्रसार करने का काम किया.

लेखक लिखते हैं कि उन्हें शुरू से स्पष्ट था कि येचुरी कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध थे और उनमें न्याय की गहरी भावना थी. वे अच्छा लिखते थे और एसएफआई के मुखपत्र के संपादक थे. उनके अधीन प्रकाशन ने ऊंचा स्तर हासिल किया. 1984 में सीताराम येचुरी एसएफआई के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने. तब असम और पंजाब जैसे राज्यों में अलगाववादी आंदोलन चल रहे थे. ऐसे आंदोलनों के खिलाफ खड़े होकर उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए जन समर्थन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

मोल्लाह लिखते हैं कि 1980 के दशक की शुरुआत में येचुरी ने एसएफआई और डीवाईएफआई के “सबके लिए काम और सबकी शिक्षा” के संदेश को फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी. 1975 में सीताराम सीपीआई (एम) के सदस्य बन गये. महज 10 साल बाद 1985 में वे केंद्रीय समिति के सदस्य बन गये. 1989 में वे केंद्रीय सचिवालय के सदस्य बने. 1992 में पोलित ब्यूरो के सदस्य बने और 2015 में वे पार्टी के महासचिव चुने गये. वे अपनी मार्क्सवादी विचारधारा और संगठनात्मक व्यवहार के मार्क्सवादी-लेनिनवादी स्वरूप के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे.

जब चीन और रूस के बीच बहस हुई या तत्कालीन सोवियत संघ के पतन के बाद असमंजस की स्थिति बनी तो उन्होंने वैचारिक दस्तावेजों का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 2012 में उन्होंने पार्टी के वैचारिक दस्तावेज और उसकी व्याख्या लगभग अकेले ही सामने रखी. 2005 में पहली बार सीताराम येचुरी राज्यसभा के सदस्य चुने गये. बाद में वे उच्च सदन में पार्टी के नेता भी बने. 2017 में सीताराम युचेरी को सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार मिला. येचुरी ने धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता पर कई किताबें लिखीं जो वामपंथियों के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं.

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बहुलवाद ही शांति और प्रगति का मार्ग

शशि थरूर ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बांग्लादेश के पीपुल्स रिपब्लिक का संविधान इसे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र घोषित करता है. हालांकि यह अल्लाह के आह्वान के साथ शुरू होता है और इस्लाम को राज्य धर्म के रूप में नामित करता है. यही कारण है कि छात्रों के नेतृत्व में लोकतंत्र समर्थक विद्रोह ने कभी भी स्पष्ट रूप से इस्लामवादी आवरण हासिल नहीं किया. फिर भी जब पीएम शेख हसीना ने 5 अगस्त को जल्दबाजी में इस्तीफा दे दिया और भारत भाग गईं तो कई बांग्लादेशियों खासकर हिन्दुओँ के लिए बुरा दौर शुरू हो गया.

शशि थरूर लिखते हैं कि भारत ने अपनी वफादार दोस्त शेख हसीना को तुरंत शरण दी. प्रतिक्रिया भी हुई. हसीना के वफादारों को प्रतिशोध का सामना बांग्लादेश में करना पड़ा. कुछ हिंदू घरों में तोड़फोड़ की गयी. अकेले 5 अगस्त को 10 हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़ की गयी. इनमें से एक इस्कॉन मंदिर था जिसे आग के हवाले कर दिया गया. अगले दो हफ्तों में बांग्लादेश हिन्दू-बौद्ध-ईसाई एकता परिषद ने हिंदुओं और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के पूजास्थलों, जीवन और आजीविका पर 205 हमले दर्ज किए.

बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका से लेकर हसीना की पार्टी के साथ भारत की लंबे समय से चली आ रही घनिष्ठ मित्रता से क्रोधित होकर विद्रोहियों ने भारत-बांग्लादेश सौहार्द के एक के बाद एक प्रतीकों को नष्ट कर दिया. ढाका में इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र, शेख मुजीबुर रहमान का स्मारक बंगबंधु भवन और यहां तक कि मुजीबनगर में 1971 के युद्ध का स्मारक भी नष्ट कर दिया गया जिसमें पाकिस्तान द्वारा भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण को दर्शाया गया था.

शेख हसीना के चले जाने के बाद नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनूस ने बागडोर संभाली. अल्पसंख्यक नेताओं को सुरक्षा का भरोसा दिया और खुद मंदिरों का दौरा किया जिनमें ढाकेश्वरी मंदिर प्रमुख है. 29 फीसदी से घटकर 8 प्रतिशत हो चुकी हिन्दुओँ की आबादी बांग्लादेश में आज भी सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है. हसीना की तानाशाही के खिलाफ असंख्य हिन्दुओँ ने भी सड़क पर नारे लगाए- “आप कौन हैं? मैं कौन हूं? बंगाली, बंगाली!”

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