बीत गयी वैश्वीकरण दोपहरी
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि नई सदी के शुरुआती ढाई दशकों के समापन की ओर बढ़ते हुए हम कह सकते हैं कि वैश्वीकरण की दोपहर बीत चुकी है.अमेरिका और यूरोप की राजनीति बहुत बुरी तरह अप्रवासी विरोधी भावनाओं से संचालित है और इसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का घालमेल है. (इटली के प्रधानमंत्री यूरोप में इस्लामिक संस्कृति के खिलाफ हैं जबकि डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि प्रवासी अमेरिकी रक्त को ‘विषाक्त’ बना रहे हैं.) इस बीच आर्थिक बहस बढ़ती असमानता और अच्छे रोजगारों की कमी को लेकर मौजूदा असंतोष के लिए वैश्वीकरण और ‘नव उदारवाद’ को उत्तरदायी ठहराती है.
नाइनन लिखते हैं कि पश्चिम ने अपनी नौकरियां तथा अवसर चुनौती देने वाले देशों के हाथों गंवा दिए हैं और वे दोनों को वापस पाना चाहते हैं. जीडीपी में व्यापार की हिस्सेदारी कम हुई है जबकि भारत में राज्य का हस्तक्षेप, संरक्षणवाद और सब्सिडी आदि बढ़े हैं. इस बीच हालात नये नीतिगत प्रतिमानों की मांग करते हैं. वैश्वीकरण की चौथाई सदी में वैश्विक गरीबी पिछली किसी भी अन्य तिमाही की तुलना में तेजी से कम हुई. तमाम बातों के बीच वैश्विक असमानता में भी कमी आयी है. एक आकलन के मुताबिक वैश्विक गिनी गुणांक (असमानता का मानक) में बीती चौथाई सदी में काफी सुधार हुआ है जिससे 20वीं सदी में बैढ़ी वैश्विक असमानता में थोड़ी कमी आयी है. इसके अलावा विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार शीर्ष 10 फीसदी और अगले 40 फीसदी और यहां तक कि निचले 50 फीसदी लोगों के दरम्यान य गुणक में कमी आयी है.
अपराध कानूनों पर उपनिवेशवादी साया
मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि यह बहुत विचित्र बात है कि सरकार ब्रिटिश शासन और इससे पहले के मुस्लिम शासकों की पहचान मिटाने में मशगूल है. उसे आभास तक नहीं कि नये कानूनों में एक उपनिवेशवादी ठहराया जा सकता है. पुलिस और पॉलिटिक्स इन इंडिया के लेखक किरपाल ढिल्लों ने इन कानूनों को उपनिवेशवादी करार दिया है. उन्होंने कहा है कि संविधान निर्माताओं ने आम लोगों की मददगार पुलिस की जो भावना मजबूत की थी, उसे नये कानून कमजोर करते हैं. 1860 में बना इंडियन पेनल कोड, 1872 में पारित और 1898 में लागू इंडियन एविडेंस एक्ट अब बदल चुके हैं. नये कानूनों में इंडिया शब्द बदलकर ‘भारतीय’ हो गया है.
एक बदलाव पुलिस और पब्लिक के बीच रिश्ते को खराब कर सकता है जिसकी चर्चा जरूरी है. अब तक 15 दिन तक की हिरासत दी जाती थी. इसे बढ़ाकर 60 दिन या 90 दिन किया जा रहा है. यह इसलिए गंभीर है क्योंकि भारत में पुलिस हिरासत को बेहद असुरक्षित माना जाता है. अनूप सुरेंद्र नाथ और जेबा सिकोरा ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि गिरफ्तार लोगों की पुलिस हिरासत में सुरक्षा को लेकर व्यापक चिंता है. भारतीय न्याय संहिता 2023 का यह प्रावधान पुलिस की शक्ति को विस्तार देता है. इसका मतलब यह है कि नये कानून उपनिवेशवादी पुलिस की ओर लौटने के समान है.
तेलंगाना में कांग्रेस के लिए चुनौती बड़ी
आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि तेलंगाना में कांग्रेस की जीत के बाद एक या दो से कारकों पर ध्यान देना जरूरी है जिसने चुनावी जीत में योगदान किया है. वाई एस शर्मिला अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय इसलिए नहीं कर सकी क्योंकि उन्हें विलय नहीं करने दिया गया. रेवंत रेड्डी ने इसका भारी विरोध किया था. रेवंत अब तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं. पर्दे के पीछे के रणनीतिकार सुनील कानुगोलू के मशविरे के कारण शर्मिला से दूर रहा गया. कानुगोलू रणनीतिकार हैं और वे प्रशांत किशोर के पेशेवर साथियों की टीम का हिस्सा थे. अब वे कांग्रेस के सवैतनिक सदस्य और कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के सलाहकार हैं.
फडणीस लिखती हैं कि कांग्रेस के सामने जो चुनौतियां है उनमें रणनीति तैयार करना तो इन चुनौतियों का महज हिस्सा भर है. पार्टी का जर्जर सांगठनिक ढांचा कहीं अधिक बड़ी चुनौती है. राज्य सरकार की वित्तीय हालत के बारे में श्वेत पत्र कहता है कि कर्ज बड़ी समस्या है. पुराने लोन चुकाने हैं. बड़ी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करना है जिनमें प्रतिफल कम है और समय अधिक लगेगा. इसका असर शिक्षा और स्वास्थ्य की फंडिंग पर भी पड़ा है. चुनावी घोषणाओं को लागू करना और रोजगार उपलब्ध कराने के वादे पर अमल अहम चुनौतियां हैं. मुख्यमंत्री रेड्डी ने विधानसभा में कहा है कि नई सरकार के वादे पूरे करने के लिए कोई बहाना नहीं होगा. उन्होंने कहा कि कुछ लोगों को ये तथ्य अप्रिय लग सकते हैं लेकिन सच को सच की तरह कहना होगा.
भारत में मसुलमान होने का मतलब
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि भारत में एक मुसलमान होने का मतलब क्या है- यह सवाल बहुत आम हो चुका है. जवाब होना चाहिए कि हिन्दू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और किसी आस्तिक की तरह मुसलमान भी हैं. लेकिन, जिया उस सलमान की नयी किताब ‘बिईंग मुस्लिम इन हिन्दू इंडिया : ए क्रिटिकल व्यू’ में जो जवाब मिलता है वह बेचैन करने वाला है. मुसलमानों की आबादी 15 फीसद है लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी 4.9% है. सेना में 1 फीसदी से भी कम. सच्चर कमेटी ने 2006 में ही बता दिया था कि मुसलमानो की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति एससी और एसटी से भी बदतर है.
करन थापर लिखते हैं कि कभी राजनीति में मुसलमानों की सुनी जाती थी, जो लगातार कमजोर होती चली जा रही है. आबादी के हिसाब से सदन में 74 सदस्य मुसलमान समुदाय से होने चाहिए लेकिन यह संख्या घटकर 27 हो चुकी है. 28 में से किसी भी राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं हैं. 15 राज्य में कोई मंत्री तक नहीं है. 10 राज्यों में सिर्फ एक मंत्री हैं. वह भी अल्पसंख्यक विभाग के साथ. बीजेपी ने 2014 और 2019 में एक भी लोकसभा सांसद नहीं दिए. अब बीजेपी के पास एक राज्यसभा एमपी तक नहीं है. गुजरात में बीजेपी का एक विधायक भी मुसलमान नहीं है.
थापर लिखते हैं कि स्थिति तब बहुत बुरी हो जाती है जब सत्ताधारी दल के नेता मुसलमानों को ‘बाबर की औलाद’ कहते हुए उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कह देते हैं. लव जिहाद और पशुओं की तस्करी के आरोप में लगातार मुसलमानों पर हमले होते हैं. दंगों का आरोपी बनाए जाने के साथ मुसलमानों के मकान ढहा दिए जाते हैं.
जिया की किताब में झारखंड का उदाहरण है जिसमें 2019 में एक मुस्लिम युवक को खंभे से बांधकर मौत आने तक पीटा जाता है. मुसलमान होना ही उसका गुनाह होता है. मोहन भागवत को उद्धृत करते हुए किताब में लिखा है कि वे हर भारतीय को हिन्दू बताते हैं. सबको हिंदू संस्कृति और हिंदू विरासत से जुड़ा बताते हैं.
सांसदों का निलंबन बड़ा मुद्दा या मिमिक्री?
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आम तौर पर राहुल गांधी की बातों को वे कम महत्व देती हैं लेकिन पिछले हफ्ते राहुल गांधी ने उपराष्ट्रपति की मिमिक्री से जुड़े सवाल पर उन्होंने बहुत अहम बात कही. राहुल ने सवाल उठाया कि उपराष्ट्रपति की मिमिक्री बड़ी बात है या सांसदों का सदन से निलंबन? तवलीन सिंह लिखती हैं कि राष्ट्रपति का उपहास दुनिया भार में उड़ाया जाता है. अमेरिका में तो राष्ट्रपति के सामने ही ऐसा किया जाता रहा है.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि पिछले दिनों में संसद में सेंध लगाने वाले लोगों ने अगर जहरीली गैस का इस्तेमाल किया होता तो कई सांसदों की जान जा सकती है. जवाबदेही से भागना मोदी सरकार की आदत बन गयी है. संसद में सुरक्षा चूक पर प्रधानमंत्री को सदन में बोलना चाहिए था. लेकिन, वे संसद से बाहर बोलते नजर आए. मीडिया की जिम्मेदारी पर तवलीन सिंह लिखती है कि मीडिया को निश्चित रूप से सांसदों के निलंबन को मिमिक्री पर वरीयता देनी चाहिए थी.
पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम के हलवाले से तवलीन सिंह लिखती हैं कि नये कानून में 95 प्रतिशत प्रावधान पुराने कानून जैसे ही हैं. बहुमत का बुलडोजर चलाकर मनमाना कानून पारित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता. राहुल गांधी पर अपनी ही बातों को कमजोर करने की तोहमत लगाते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि उन्होंने अडानी से लेकर रफाल तक के मुद्दे को इसी प्रतिक्रिया में जोड़ दिया. लिहाजा उनकी अहमियत कम हो गयी.
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