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संडे व्यू: राष्ट्रवादी हुई अर्थव्यवस्था, नाले-नदियां कब होंगी साफ?

Sunday View में आज पढ़ें टीएन नाइनन, राजदीप सरदेसाई, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम और नीलकंठ मिश्र के लेखों का सार.

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राष्ट्रवादी हो चुकी है अर्थव्यवस्था

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि भारत में सन 1991 और उसके बाद हुए आर्थिक सुधार दरअसल घरेलू तथा वैश्विक स्तर पर मुक्त बाजार में किए गए निवेश थे. ये सुधार रोनाल्ड रीगन और मार्ग्रेट थैचर के युग के उन विचारों से प्रभावित थे कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका कम होनी चाहिए. भारत में एलपीजी यानी लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन को चरण बद्ध ढंग से आंशिक तौर पर लागू किया गया. नतीजतन हमें तेज आर्थिक वृद्धि धीमी मुद्रास्फीति और बेहतर व्यापार संतुलन केसाथ बाहरी आर्थिक व्यवहार्यता हासिल हुई.

नाइनन लिखते हैं कि

विनिर्माण को अपेक्षित गति न मिलने, गुणवत्तापूर्ण रोजगार तैयार नहीं कर पाने और असमानता में इजाफा होने से इसे लेकर मोहभंग की स्थिति भी बढ़ी है. इसके अलावा व्यवस्थागत दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्पादों और सामग्री को लेकर चीन पर निर्भरता भी बढ़ी.

अमेरिका में तथा अन्य स्थानों पर विनिर्माण के खत्म होने ने ऐसे ही नतीजे पेश किए हैं: गुणवत्तापूर्ण रोजगार की क्षति, बढ़ती असमानता और चीन को लेकर संवेदनशीलता. ऐसे में राजनीति लोकलुभावन हो गयी है और अर्थव्यवस्था राष्ट्रवादी.

टीएन नाइनन आगे लिखते हैं कि सरकारें चीन से खरीद से बचने के लिए जो राशि चुका रही हैं वह बहुत अधिक है. अमेरिका और यूरोप में हर बिजली चालित वाहन पर दी जाने वाली सब्सिडी करीब 7500 डॉलर है. इंटेल को जर्मनी ने 10 अरब डॉलर की प्रोत्साहन राशि दी है ताकि वह चिप संयंत्र स्थापित कर सके. जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कंपनियां जो विनिर्माण पर जोर देना छोड़ चुकी थीं वे वापस इस क्षेत्र में आ रही हैं. अहम क्षेत्रों की नयी विनिर्माण इकाइयों में सैकड़ों अरब डॉलर का निवेश होने की संभावना है.

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महाराष्ट्र में हिल गयी है राजनीतिक धुरी

राजदीप सरदेसाई ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 1978 में जब शरद पवार पहली बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे, तब मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री थे. राजीव गांधी इंडियन एयरलाइंस के पायलट हुआ करते थे, नरेंद्र मोदी संघ के प्रचारक थे और राहुल गांधी अभी जूनियर स्कूल में ही थे. पवार में हमेशा मुंबई या दिल्ली की सत्ता के इर्द-गिर्द बने रहने की अद्भुत क्षमता है. लेकिन सवाल है कि क्या उनमें एक और लड़ाई लड़ने का दमखम शेष रह गया है?

सरदेसाई लिखते हैं कि अजित की बगावत उनकी स्वायत्तता की घोषणा है लेकिन महाराष्ट्र में होने वाली सार्वजनिक सभाओं में उन्हें आज भी अपने चाचा की आदमकद तस्वीरें प्रदर्शित करना पड़ता है जो यह बताता है कि जनता में उनकी लोकप्रियता अभी तक सीमित है. वास्तव में शरद पवार की वाणिज्यिक रुचियां महाराष्ट्र के समृद्ध सहकारी समूहों और उसके रीयल एस्टेट सेक्टर में हैं जिसका यह मतलब है कि पवार-परिवार केवल एक राजनीतिक वंश ही नहीं, बल्कि एक संयुक्त परिवार का व्यापारिक उद्यम भी है.

2019 में जब शरद पवार सरकार निर्माण पर संवाद के दौरान आखिरी समय में बीजेपी से दूर हो गये तो मोदी और शाह को लगा जैसे उनके साथ विश्वासघात हुआ है. मोदी के पवार से मधुर संबंध हैं.

उन्होंने अनेक बार सार्वजनिक रूप से उनकी सराहना की है और 2017 में उन्हें पद्मविभूषण भी प्रदान किया गया था. गौतम अडानी दोनों के ही साझा मित्र हैं. मोदी के कहने पर ही बीजेपी ने बीते दशक में तीन बार एनसीपी के साथ गठबंधन बनाने की कोशिशें की हैं जो नाकाम रहीं. महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपरी की टूट ने इस राज्य राजनीतिक धुरी को हिला दिया है. बीजेपी महाराष्ट्र में अभी तक अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पायी थी. चुनावों से पहले महाराष्ट्र में उसकी सक्रियता बहुत कुछ बताती है.

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नाले-नदियां साफ होंगी जब बंद होंगी ‘रेवड़ियां’

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वह उस गांव में हैं जहां 20 साल से लगातार आ रही हैं और जहां कोविड के दौरान वह वहीं रह गयी थीं क्योंकि चार घंटे की मोहलत देकर पूरे भारत में बंदी घोषित कर दी गयी थी. समुद्रतटीय स गांव में पर्यटक लौट आए हैं और छोटे होटल व रेस्टोरेंट फिर से खुल चुके हैं. बरसात में उत्तराखण्ड और हिमाचल में टूटे पुल, सड़कें और बस्तियों के दृश्य देखकर बहुत दुख होता है. मौसम विशेषज्ञ इसका कारण जलवायु परिवर्तन और अनियोजित शहरीकरण बताते हैं. मगर, कोई यह नहीं पूछता कि नाले और नदियों को साफ करने में हम इतने विफल क्यों रहे हैं?

तवलीन सिंह लिखती हैं कि समुद्र किनारे जिस गांव से वे लिख रही हैं, वहां समुद्र किनारे सुबह-शाम खुले में शौच करने वाले तो अब नहीं दिखते लेकिन इन्हें ‘रेवड़ियों’ की इतनी आदत पड़ गयी है कि मानसिकता ही भिखारी हो गयी है. मुफ्तखोरी पर अपना अधिकार समझने लगे हैं ये लोग. बीते दिनों एक सरकारी कंपनी ने घरों में पानी पहुंचाने की योजना पंचायत के सामने रखी गयी थी तो उसे इसलिए ठुकरा दिया गया क्योंकि इस बाबत उन्हें बहुत थोड़े पैसे देने की पेशकश की गयी थी. नतीजा यह है कि आज तक गांव के घरों में पानी नहीं है.

प्रधानमंत्री मान चुके हैं कि ‘रेवड़ियां’ बांट कर चुनाव जीतने की आदत गलत है लेकिन उनके मुख्यमंत्री चुनाव का मौसम शुरू होते ही कांग्रेस की नकल करके रेवड़ियां बांटने का काम शुरू कर देते हैं.

कहां से आएगा पैसा सुनियोजित शहरीकरण का? कहां से आएगा पैसा गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को साफ रखने का? मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में कहां से आएगा पैसा उन नालों की मरम्मत का, जो सौ साल से भी पुराने हो गये हैं? कहां से आएगा पैसा कचरे के उन पहाड़ों को हटाने का, जो दिल्ली में देखने को मिलते हैं जब पुरानी दिल्ली पूरी तरह डूबी नहीं होती है?

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समानता, प्रतिकूलता और विविधता

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हॉर्वर्ड कॉलेज की स्थापना 1636 में हुई थी. 2022 में 60 हजार से ज्यादा छात्रों ने आवेदन किया था, जिनमें से दो हजार से कम को दाखिला मिला. जब लेखक ने हॉर्वर्ड स्कूल में दाखिला लिया था तब लगभग 750 छात्रों की कक्षा में कुछ काले अमेरिकी, मुट्ठी भर एशियाई और कुछ अफ्रीकी थे. मगर अब अमेरिका नाटकीय रूप से बदल गया है. दाखिले की लड़ाई अब गोरे, काले, एशियाई, हिस्यानी, अफ्रीकी और मध्यपूर्व के छात्रों के बीच है. स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन की लड़ाई भी छिड़ चुकी है.

नॉर्थ कैरोलिनी विश्वविद्यालय में भी ऐसी ही स्थिति है. केंद्रीय मुद्दा यही है कि क्या नस्ल को चयन का एक प्रासंगिक मानदंड माना जा सकता है? यह सवाल तब से बना हुआ है, जब अमेरिका ब्रिटिश उपनिवेशों से आजाद हुआ. नस्ल बनाम संवैधानिक गारंटी का मुद्दा 1896 से अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में उलझा हुआ है.

चिदंबरम लिखते हैं कि हॉर्वर्ड और यूएनसी मामलों का निर्णय छह न्यायाधीशों में से तीन के बहुमत से किया गया. ये न्यायाधीश रूढ़िवादी और उदारवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए रिपब्लिकन और डेमोक्रेट द्वारा नामित और नियुक्त किए गये थे. ‘नियोजित पितृत्व बनाम केसी’ मामले में भी ऐसा ही हुआ था जब 6:3 के समान बहुमत से फैसले आए थे. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ‘रो बनाम वेड’ के फैसले को पलट दिया जिसमें एक महिला को अपना गर्भपात कराने का अधिकार दिया गया था. सर्वेक्षण बताते हैं कि साठ फीसद अमेरिकी केसी के फैसलेसे असहमत हैं.

हॉर्वर्ड और यूएनसी मामलों में निर्णय राजनीतिक कार्यपालिका को न्यायाधीशों का चयन करने की शक्ति के खतरे को दर्शाता है. यह भारत के लिए एक सबक है. कार्यपालिका को सशक्त बनाकर पूर्व कॉलेजियम की स्थिति पर वापस लौटना ख़तरनाक हो सकता है. समानता वांछित मानदंड है, प्रतिकूलता एक कठोर वास्तविकता है, विविधता एक महसूस की जाने वाली आवश्यकताहै. इन तीनों को संतुलित करने के लिए हमारे पास ऐसे न्यायधीशों को चुनने का एक तंत्र होना चाहिए जो संविधान के मूल सिद्धांतों के प्रति वफादार हो.

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नीतियों में प्रयोग को वरीयता

नीलकंठ मिश्रा ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि रिटेल इन्फ्लेशन कम पड़ने के बाद भी अमेरिका, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन में बॉन्ड प्रतिफल 15 वर्षों के उच्चतम स्तर पर हैं. इसका कारण यह है कि बॉन्ड बाजार भविष्य में महंगाई और कम होने की उम्मीद कर रहा है. अमेरिका और ब्रिटेन में होम लोन की दरें पिछले साल दर्ज सर्वोच्च स्तर के ही करीब हैं. जापान, चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय हस्तक्षेप कम हुए थे, इस,लिए वहां समस्या अधिक गंभीर नहीं दिख रही है. अमेरिका में एक ढीली राजकोषीय नीति से भी हमें यह समझने में मदद मिलती है कि लंबे समय से जताई जा रही आर्थिक सुस्ती की आशंका अब तक वास्तविकता में तब्दील क्यों नहीं हुई है.

नीलकंठ मिश्रा आईएमएफ के हवाले से लिखते हैं कि इस साल विकसित अर्थव्यवस्थाओ में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.4 प्रतिशत तक रह सकता है.

यह 2020 में दर्ज जीडीपी के 10.2 प्रतिशत के स्तर से अधिक होगा मगर 2012 से सर्वाधिक होगा. ऊंची ब्याज दरों से सरकार पर ऋण बढ़ता है और आने वाले समय में प्राथमिक घाटा में भी बहुत कमी आने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. यह नीति इसके उलट है जो 2008-09 संकट के बाद प्रभाव में लायी गयी थी. उस समय विकसित अर्थव्यलवस्थाओं ने लचीली मौद्रिक एवं अधिक कड़ी राजकोषी नीति का चयन किया था.

मिश्रा लिखते है कि

अमेरिका में वेतन में मजबूत बढ़ोतरी से भारत से सेवाओं के निर्यात को ताकत मिलनी चाहिए. मगर कई अन्य अर्थव्यवस्थाओं के लिए कम और अधिक महंगा डॉलर आर्थिक दबाव लगातार बढ़ाता रहेगा.

भविष्य में अधिक गंभीर चिंता उत्पन्न् हो सकती है. अमेरिकी बॉन्ड को लेकर अविश्वास बढ़ना इनमें से एक चिंता हो सकती है. फिलहाल इस संभावित स्थिति के बारे में सोचना उचित नहीं होगा और इसलिए भी क्योंकि डॉलर का कोई विश्वसनीय विकल्प मौजूद नहीं है.

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