निराशा से कैसे उबरेगा भारत?
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि मोदी ही भारत सरकार हैं और मोदी ही अकेले सरकार के अच्छे और बुरे के लिए जिम्मेदार हैं. अमित शाह को छोड़कर बाकी सभी मंत्री, पार्टी नेता, सांसद, यहां तक कि मुख्यमंत्री भी महत्वहीन हो गये हैं. विडंबना यह है कि वे सब महत्वहीन होने में ही प्रसन्नता का अनुभव करते हैं. इसलिए, हमारी अपीलें या आलोचनाएं केवल माननीय प्रधानमंत्री को संबोधित होनी चाहिए. प्रधानमंत्री ने एक नया नारा गढ़ा है- ‘विकसित भारत’. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ से शुरु हुई नारों की लंबी सीरीज है. लेखक को उम्मीद है कि यह आखिरी नारा होगा. कई नारे धरे के धरे रह गये.
चिदंबरम लिखते हैं कि अगर डॉलर और रुपये का संबंध स्थिर रहा तो भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनोमी बनने में जो समय लगेगा उसका अनुमान कुछ इस तरह है- 6% की रफ्तरा से 6 साल, 7% की रफ्तार से 5 साल और 8% की रफ्तार से 4.5 साल. यूपीए के 10 साल के कार्यकाल में 6.7 फीसद की जीडीपी में वृद्धि की रफ्तार रही थी जो एनडीए के दस साल में 5.9 फीसदी रही है.
चिदंबरम लिखते हैं कि अगर 8 फीसदी की रफ्तार से 2028-29 में भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन की हो भी जाती है तो क्या भारत विकसित देश कहा जा सकेगा? डेढ़ अरब आबादी के साथ तब प्रति व्यक्ति आय 3333 अमेरिकी डॉलर होगी. प्रतिव्यक्ति आय के मामले में अभी भारत का स्थान 140 है. इसमें पांच से दस पायदान तक का सुधार हो सकता है. प्रासंगिक सवाल यह बना रहेगा कि 22 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं. उनकी स्थिति कब सुधरेगी? बेरोजगारी की वर्तमान 8.7 फीसदी की दर ने लाखों लोगों की जिन्दगी तबाह कर दी है. श्रमबल भागीदारी दर कब 50 या 60 फीसदी से ऊपर बढ़ेगी? मजदूर आश्रित वस्तुओं की निजी खपत कब बढ़ेगी? गरीब कब पर्याप्त अनाज खरीदने में सक्षम होंगे? मजदूरी दर में आया ठहराव कब समाप्त होगा?
बीजेपी की मदद कर रहे हैं राहुल
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राहुल गांधी वास्तव में बीजेपी की ही मदद कर रहे हैं. वे गैर जरूरी तरीके से आक्रामक नजर आ रहे हैं. रिपोर्टर में ओबीसी ढूंढ़ रहे हैं. राम मंदिर प्रतिष्ठा समारोह में फिल्म स्टारों और उद्योगपतियों की मौजूदगी बताकर यह कहना चाह रहे हैं कि गरीब लोगों की पहुंच वहां नहीं है. वास्तव में शिक्षा का अलख जगाकर पिछड़े समुदायों को आगे करने का प्रायस करते नहीं दिख रहे राहुल गांधी. ऐसे सुझाव देते तो बात कुछ और होती. लेखिका का मानना है कि जरूरत पड़ेगी तो इन्हीं उद्योगपतियों को भी राजनेताओं को झुकना पड़ता है. नेता धन पैदा नहीं करते. धन यही उद्योगपति पैदा करते हैं. किसान और मजदूर भी अपने जीने तक का ही जुगाड़ कर पाते हैं.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि नेहरूजी की आर्थिक नीतियों के कारण देश दशकों तक कंगाल रहा. नरसिंह राव ने लाइसेंस राज समाप्त किया और निजी उद्योग की बेड़ियां तोड़ीं. जब राहुल गांधी देश में उद्योगपतियों के धन को खैरात में बांटने की बातें करते हैं तो शायद जानते नहीं हैं कि ऐसा हमने करके देखा है पहले भी.
लेखिका बताती हैं कि ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी की गारंटी पर हम पूरा अविश्वास कर सकते हैं. बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या देश में. अभी भी ग्रामीण भारत में अच्छे सरकारी स्कूल और अस्पताल मुश्किल से मिलते हैं. अभी बी ग्रामीण भारत में खुले में शौच करने की गांदी आदत पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है और अभी भी गरीबी इतनी है कि बीमारियों के कारण लोगों की मौत होती है. फिर भी मोदी सपना दिखा रहे हैं विकसित भारत का और उनके मुक्य प्रतिद्वंद्वी सपना दिखा रहे हैं वही पुराने दौर का जिससे हम गुजर कर निकले हैं.
Byju's ने तोड़ी उम्मीद
बिजनेस स्टैंडर्ड में देवांशु दत्ता ने लिखा है कि एडटेक कंपनी बायजूस (Byju's) बुरे दौर से गुजर रही है. कंपनी के खिलाफ अमेरिका में भी कानूनी मामला चल रहा है जहां देनदारों ने उसे 1.2 अरब डॉलर की वसूली के लिए अदालत में चुनौती दी है. कभी कंपनी में 60 हजार कर्मचारी थे. जनवरी 2024 में कंपनी ने 20 करोड़ डॉलर की राशि जुटाने के लिए राइट इश्यू पेश किया था. उसका निहित मूल्यांकन 22.5 करोड़ से 25 करोड़ डॉलर के बीच था. मार्च 2022 में कंपनी का अधिकतम मूल्यांकन 22 अरब डॉलर के मुकाबले यह मूल्यांकन बहुत कम था. बायजूस ने 2.5 अरब डॉलर की राशि व्यय की. अब कर्मचारियों का वेतन देने में भी मुश्किलें आ रही हैं. जिन निवेशकों ने शुरू में कंपनी में खूब निवेश किया अब उन्होंने अपने प्रतिनिधियों को बोर्ड से हटा लिया है.
बायजूस ने दो साल के भीतर अपना 99 फीसदी मूल्यांकन गंवा दिया है. इसने ब्रांड बनाने में बहुत खर्च किया. आईपीएल और फुटबॉल विश्वकप को प्रायोजित किया. घर-घर मशहूर होने के बावजूद इसका नाटकीय पतन हुआ.
सामान्य समझ के मुताबिक शिक्षा उद्योग नहीं है और स्कूल-कॉलेज प्राय: गैर लाभकारी माने जाते हैं. एडटेक में डिजिटल तकनीक की मदद से शिक्षा दी जाती है. इसी नयी प्रकृति के कारण एडटेक मुनाफे के लिए काम करती नजर आई. बायजूस ने खुद को एक बड़ी और ऐसी मांग को हल करने वाली कंपनी के रूप में पेश किया था जो कोई और नहीं कर रहा था. भारत में अल्पशिक्षित आबादी बहुत अधिक हे जो बेहतर शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही है. एडटेक ने जो उम्मीद पैदा की थी कि कम शिक्षित युवा इसकी मदद से ऐसे कौशल सीख पाएंगे जो कक्षाओं में नहीं सिखाया जाता, वह उम्मीद टूट गयी है.
मराठा आरक्षण कितना जायज?
हिन्दुस्तान टाइम्स में अश्विनी देशपांडे ने लिखा है कि महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदायों में शामिल करने की घोषणा की गयी है. महाराष्ट्र सरकार ने एक बार फिर उस मांग को मान लिया है जिसे अदालतों द्वारा बार-बार खारिज कर दिया गया है. अपेक्षाकृत अमीर और अधिक शक्तिशाली समूहों तक कोटा बढ़ाने का मतलब उन समुदायों के लिए पहले से ही छोटे और सिकुड़ते अधिकार को कम करना है जो वास्तव में वंचित हैं और जिनके साथ भेदभाव किया जाता है. इस बार मराठों के पिछड़ेपन का प्रमाण शुक्रे आयोग की रिपोर्ट से मिलता है.
दिसंबर 2023 में बनी इस कमेटी ने 15 फरवरी 2024 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. यह प्रकाश की गति से भी तेज है. दावा है कि 11 दिन में दो करोड़ लोगों का सर्वेक्षण किया गया. मुख्यमंत्री ने 3.4 से 4 लाख लोगों को धन्यवाद दिया है. यह रिपोर्ट बताती है कि महाराष्ट्र के भीतर औसत परिवारों के मुकाबले औसत मराठा परिवार कहां खड़ा है.
लेखक अश्विनी देशपांडे ने आगे बताया है कि अन्य सभी सामाजिक समूहों की तुलना में मराठों के पास जमीन रखने या खेती करने की अधिक संभावना है. महाराष्ट्र के ब्राह्मणों की तुलना में उनका प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय कम है. लेकिन, वे अन्य अगड़ी जातियों और ओबीसी के समान स्तर पर हैं और एससी-एसटी की तुलना में काफी अधिक हैं. आंकड़ों से पता चलता है कि मराठो में गरीबी का स्तर ब्राह्मणों और अन्य अगड़ी जातियों के समान है लेकिन वे ओबीसी और एससी-एसटी की तुलना में कम गरीब हैं. बुनियादी ढांचे के मामले में एससी-एसटी की तुलना में मराठा परिवारों के पास बिजली और फ्लश शौचालयों तक बेहतर पहुंच है. शिक्षा के लिहाज से औसत मराठा के पास 6.58 साल की शिक्षा है जो ब्राह्मणों से कम है. लेकिन, अन्य अगड़ी जातियों और ओबीसी के बराबर है इनकी शिक्षा जो एससी-एसटी से अधिक है.
आवाज की ताकत समझा गये अमीन सयानी
टाइम्स ऑफ इंडिया में संदीप रॉय ने लिखा है कि अमीन सयानी को किसी छवि में कैद नहीं किया जा सकता. नई आवाज़ खोजने का शो इंडियन आइडल भी दृश्य तमाशा ज्यादा है. गायन की गुणवत्ता मसला है. बॉर्नविटा क्विज शो में शामिल होने और उस दौरान अमीन सयानी से रू-ब-रू होने के वाकये को भी लेखक ने साझा किया है. सयानी भारत के पहले रेडियो सुपरस्टार थे. वायरल होने का मतलब समझना हो तो दशकों पहले वायरल हुई इस आवाज़ को याद रखना होगा, “नमस्कार बहनों ओर भाइयों, मैं आपका दोस्त अमीन सयानी बोल रहा हूं.”
संदीप राय याद करते हैं कि रेडियो सीलोन पर हर बुधवार रात 8 बजे बिनाका गीतमाला के मेजबान थे अमीन सयानी और पूरे देश ने उनकी उलटी गिनती सुनी. सयानी की सरल हिन्दुस्तानी लोगों को खूब पसंद आयी. 1994 में आखिरी शो प्रसारित होने तक अमीन सयानी स्टार बने रहे. दिलशाद गार्डन और झुमरी तेलैया जैसी जगहों से उन्होंने पूरे देश को परिचित कराया. वे हमारी डिस्कवरी ऑफ इंडिया को आवाज दे रहे थे. लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स का दावा है कि उन्होंने 54 हजार से अधिक रेडियो कार्यक्रमों की मेजबानी की और 19,000 से अधिक जिंगल रिकॉर्ड किए.
क्विज मास्टर और सांसद डेरेक ओब्रायन ने बताया था कि बिनाका गीतमाला सयानी का स्वर्ण पदक था तो बॉर्नविटा क्विज उनका रजत पदक. ऐसी और भी आवाजें हैं जो पूरे देश में गूंजती हैं. अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर ऐसे दो नाम हैं. लेकिन, इन्हें स्क्रीन पर मौजूद छवियों से अलग करना कठिन है. बिना यादों के आवाज़ें खुद-ब-खुद धुंधली होने लगती हैं जैसे साउंड ट्रैक के बिना तस्वीरें. अमीन सयानी ने भारतीयों को एक साउंडट्रैक दिया जिस पर हम अपनी छवियों की कल्पना कर सकते हैं. चाहे हम कोलकाता में रहते हों या कोहिमा में या झुमरीतलैया में.
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