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संडे व्यू: ममता बनर्जी की साख को चुनौती, फीकी पड़ी PM मोदी की चमक

पढ़ें इस रविवार शिखा मुखर्जी, तवलीन सिंह, करन थापर, पी चिदंबरम और आदिति फडणीस के विचारों का सार

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ममता की साख को चुनौती

शिखा मुखर्जी ने इंडिया टुडे में लिखा है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी 9 अगस्त को आरजी कर मेडिकल कॉलेज में ट्रेनी डॉक्टर के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और बर्बर हत्या के बाद विश्वास के संकट का सामना कर रही हैं. घटना के बाद का घटिया प्रबंधन इसके लिए जिम्मेदार है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, गृहमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री तीनों एक साथ जिम्मेदार हैं. कोलकाता की ट्रेनी डॉक्टर के लिए न्याय का मतलब न केवल वर्किंग प्लेस पर महिलाओं की सुरक्षा है बल्कि इसमें एक ऐसे प्रशासन और पुलिस की मांग भी शामिल हो जो सक्षम हो. सत्तारूढ़ टीएमसी के कथित राजनीतिक संरक्षण वाली पुलिस ना हो. राजनेताओं, अपराधियों, पुलिस, बिल्डिंग माफिया, भूमि माफिया और हर अवैध या धूर्त या संदिग्ध चीज के व्यापक गठजोड़ की सार्वजनिक अवधारणा बनी हुई है. इसे लेकर व्यापक आक्रोश है.  

शिखा लिखती हैं कि मसला आरजी कर मेडिकल कॉलेज की घटना तक सीमित नहीं है. शिक्षक भर्ती में भ्रष्टाचार, मवेशी तस्करी, कोयला तस्करी, राशन वितरण घोटाला, संदेशखाली में टीएमसी बाहुबली द्वारा जमीन हड़पने और महिलाओं का यौन शोषण, उत्तर दिनाजपुर और दक्षिण 24 परगना में जेसीबी और जमालुद्दीन सरदार जैसे लोगों द्वारा कंगारू कोर्ट लगाकर महिलाओं को कोड़े मारने की घटनाओं पर गुस्सा भी शामिल है. जितनी बड़ी संख्या में रैलियां हुई हैं, लोग सड़कों पर उतरे हैं उससे पता चलता है कि लोग मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं. आरजी कर मेडिकल कॉलेज में सामूहिक बलात्कार और नृशंस हत्या ऐसा पहला अपराध नहीं था जिसने पश्चिम बंगाल को झकझोर दिया. ऐसी घटनाओं की लड़ी है. अब लोगों को लगता है कि प्रतिकार करने का समय आ गया है. घटनाएं पहले भी हुई थीं लेकिन ऐसी प्रतिक्रिया कभी नहीं देखने को मिली थी.

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जो दिखता है वैसा नहीं है

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि सेबी के खुलते आख्यान ने व्यापार और वित्तीय जगत का ध्यान आकर्षित किया है. शर्लक होम्स को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि अगर आप अंधविश्वास, नाटकीयता और अराजकता को हटा दें तो आपके पास सिर्फ बेजान तथ्य रह जाएंगे. अंधविश्वास यह है कि सरकार हमेशा लोगों के हक में बोलती और काम करती है. नाटकीयता यह है कि बड़े व्यवसाय छोटे निवेशकों के खिलाफ खड़े नजर आते हैं और अंत में सबक यह कि हमें खून-खराबे से बचना चाहिए. अराजकता इस अर्थ में है कि बहुत से लोग बहुत सी आवाजों में बोलते हैं और नतीजा सिर्फ शोर होता है.  

चिदंबरम लिखते हैं कि मुख्य प्रश्न यह था कि एक व्यावसायिक समूह में निवेश का स्रोत क्या था? समूह ने इनकार किया कि उसने कोई गलत काम किया है और दावा किया कि सारा पैसा वैध था. संदेह करने वालों ने आरोप लगाया कि पैसा ओवर इनवॉइसिंग और राउंड ट्रिपिंग के जरिए आया और वह अवैध था. सेबी ने मामले की जांच की और रपट दी कि उसे प्रथम दृष्टया कुछ भी गलत नहीं मिला. मगर, संदेह करने वाले इससे संतुष्ट नहीं थे. आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति सप्रे की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय समिति से जांच कराने और रपट देने को कहा. समिति का अंतिम निष्कर्ष था कि ऐसा लगता है कि एफपीआई के स्वामित्व ढांचे पर सेबी की विधायी नीति एक दिशा में आगे बढ़ी है जबकि सेबी द्वारा प्रवर्तन विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहा है. वहीं, सेबी ने 24 विशिष्ट मामलों ने अपनी जांच जारी रखी. सुप्रीम कोर्ट ने 3 जनवरी 2024 को सेबी की कार्रवाई को बरकरार रखा. अदालत ने सेबी को तीन महीने में अपनी जांच पूरी करने का भी निर्देश दिया. अब सात महीने बीत चुके हैं.

फीकी पड़ी मोदी की चमक

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चमक फीकी पड़ गयी है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख छपने के बाद मुलाकात का भी हवाला दिया है. उस मुलाकात में नरेंद्र मोदी ने पूछा था कि सरकार बनने पर क्या करना चाहिए. इसके जवाब में लेखिका ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने का सुझाव दिया था. लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के बाद लेखिका को लगा कि मानो वो मोदी कहीं खो गये हैं जो दस साल पहले उन्हें मिले थे. लेखिका का मानना है कि मोदी के पांव अभी तक जमीन पर नहीं उतरे हैं. हर क्षेत्र में सुधार का दावा किया गया. सच यह है कि सरकारी स्कूलों की हालत कतई नहीं बदली है. उच्च शिक्षा संस्थानों में भी की सुधार नहीं आया है कि बच्चों को विदेश न जाना ना पड़े.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि अटलजी के समय में इंडिया शाइनिंग अभियान के बाद मतदाताओं को विश्वास हो गया था कि सत्ता के गलियारों में उनकी कोई सुनवाई नहीं होने वाली है. यही गलती मोदी कर रहे हैं जब लाल किले के प्राचीर से वे कहते हैं कि उन्होंने आदिवासियों और गरीबों के जीवन में परिवर्तन लाकर दिखाया है. ऐसा नहीं है मोदीजी. आपने उनको गैस के सिलेंडर दिए हैं उज्ज्वला योजना के जरिए. लेकिन, यह नहीं देखा है कि उनके पास दूसरा सिलेंडर खरीदने की क्षमता नहीं है. मुफ्त अनाज जरूर दिया है लेकिन अगर आप सोचते हैं कि बिजली-पानी हर घर में आ गया है तो गलत सोच रहे हैं. बार-बार 2047 में विकसित भारत की याद दिलाना अच्छा है लेकिन यह कैसे होगा जब बुनियादी चीजों का अभाव रहेगा. लेखिका इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि इस बार प्रधानमंत्री के भाषण पर न तालियां बजीं और न ही खुशी के नारे गूंजे. एक मायूसी-सी दिखी जो सच पूछिए आज मेरे दिल में भी है.

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स्टालिन का उत्तराधिकारी कौन?

आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन अगस्त के आखिर में अमेरिका जा रहे हैं और तीन हफ्ते विदेश में रहेंगे. प्रवासियों को लुभाने के मकसद से उनका दौरा है. मगर, इतने लंबे समय के लिए बाहर रहने पर राज्य की बागडोर जिसके हाथ में रहेगी, वह उत्तराधिकारी के चयन में भी बदल सकता है. 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं. इसलिए यह सवाल अहम हो गया है. सबकी नजरें उदयनिधि पर टिकी हैं जो डीएमके सरकार में खेलमंत्री हैं. उच्च शिक्षा और पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री आरएस राजकन्नपन और आवास एवं शहरी विकास मंत्री एस मुत्तुस्वामी भी दावेदार हैं. सबसे नया नाम नगर प्रशासन मंत्री केएन नेहरू का है.  

आदिति लिखती हैं कि राजकन्नपन पहले डीएमके छोड़कर एआईडीएमके में चले गये थे. हाल ही में उन्होंने उदयनिधि को उपमुख्यमंत्री कहकर संबोधित किया था. मुत्तुस्वामी भी एआईएडीएमके में ही थे मगर वे 2010 में करुणानिधि के जीवित रहते ही डीएमके में शामिल हो गये थे. उन्होंने भी उपमुख्यमंत्री के तौर पर उदयनिधि का नाम लिया है. परंतु नेहरू को गंभीरता से लेना होगा. वे त्रिची से पांच बार के विधायक हैं. कभी पार्टी छोड़कर नहीं गये. हालांकि स्टालिन से उनके मतभेद भी रहे हैं. उदयनिधि तब चर्चा में आए थे जब उन्होंने सनातन पर टिप्पणी की थी. सनातन धर्म को जाति व्यवस्था के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराते हुए उन्होंने इसकी तुलना संक्रामक रोग से कर दी थी. द्रमुक के जनक एम करुणानिधि ने स्टालिन को अपने मंत्रिमंडल में तब शामिल किया जब वे 50 साल की उम्र पार कर चुके थे. 2009 में उन्हें उप मुख्यमंत्री तब बनाया गया जब वे 55 वर्ष के थे. ऐसे में ये बड़ा सवाल है कि उदयनिधि नहीं तो भला कौन? एक नाम दुरईमुरुगन का भी आता है जो 86 वर्ष के हैं. परंतु, उदयनिधि को खारिज नहीं किया जा सकता.

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साझा संस्कृति हैं नीरज-अरशद

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में यह बताते हुए अपनी बात शुरू की है कि पंजाबी पाकिस्तान को किस तरह देखते हैं. यह देश के बाकी हिस्सों से बिल्कुल अलग है. बंगाली जिस तरह बांग्लादेश को देखते हैं लगभग वैसा ही. दोनों राज्य विभाजन के समय विभाजित हो गये थे, और खोए हुए आधे हिस्से के लिए पुरानी यादें और स्नेह कम नहीं हुआ है. अगर कुछ है, तो ऐसा लगता है कि यह पीढ़ियों से चला आ रहा है. शायद यही वजह है कि नीरज चोपड़ा-अरशद नदीम की कहानी देश के बाकी हिस्सों के लिए सुर्खियां बनी. लेकिन, पंजाबियों के लिए यह असाधारण था. 1966 तक हरियाणा अविभाजित पंजाब का महत्वपूर्ण हिस्सा था. अंबाला और रोहतक वास्तव में लाहौर और लुधियाना की तरह ही पंजाबी थे. 

करन थापर लिखते हैं कि यह आश्चर्य की बात नहीं है कि नीरज और अरशद एक-दूसरे की ओर आकर्षित हुए. न केवल खेल बल्कि उनकी संस्कृति ने इसे निर्धारित किया. वे गले मिलते और हंसते, एक-दूसरे के बारे में गर्मजोशी से बात करते और यहां तक कि एक-दूसरे के साथ एक रिश्ता भी साझा करते. यह उनकी माताओं के लिए भी सच है. वे अपने बेटे के प्रतिद्वंद्वी को प्रतिद्वंद्वी के रूप में नहीं देखती हैं क्योंकि उन्हें पंजाबी जुड़ाव महसूस होता है. निस्संदेह यह उनके बोलने के तरीके में उल्लेखनीय समानता को स्पष्ट करता है. अरशद की मां रजिया परवीन ने कहा, “मैं भी नीरज के लिए प्रार्थना करती हूं, वह भी हमारे बेटे जैसा है.“ नीरज की मां सरोज देवी ने भी लगभग यही बात कही- “जिसने स्वर्ण पदक जीता वह भी हमारा बच्चा है और जिसने  रजत पदक जीता वह भी हमारा बच्चा है.”

करन थापर अपनी पाकिस्तान यात्रा का जिक्र करते हुए रेस्टोरेंट में अपने अनुभव साझा करते हैं. खास तौर से उन सवालों का जिक्र करते हैं जैसे, “क्या आप जालंधर की गली नंबर एक्स में गये हैं? मेरे माता-पिता वहां रहते थे.”, “क्या आप कभी अमिताभ बच्चन और रेखा से मिले हैं? मैं उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक हूं.”, “मुझे इंदिरा गांधी के बारे में बताइए. मैं उनके बारे में सब कुछ जानना चाहता हूं.” विभाजन से पहले की पीढ़ी खत्म हो चुकी है, राजनीति हमें बांटती है और हमें आकर्षित नहीं करती है, और बॉलीवुड की फिल्में अब वैसी नहीं रहीं. हम अभी भी एक जैसे दिखते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं, एक जैसा खाना खाते हैं और यहां तक कि एक ही भाषा में गाली भी देते हैं!

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