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संडे व्यू : जीत कर भी हारते रहे हैं ताकतवर देश, कैसे रुकेगा रूस?

पढ़ें नामचीन लेखकों रामचंद्र गुहा, थॉमस एल फ्रायडमैन, मुकुल केसवान, टीएन नाइनन, सोनाल्दे देसाई के आर्टिकल एक जगह

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हर बार बेइज्जत हुए हैं ताकतवर देश

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में चार अलग-अलग दुस्साहसिक सैन्य अभियानों की विफलता को जोड़ा है जिसने महाशक्ति के रूप में अमेरिका और सोवियत संघ या रूस की ताकत को कमजोर किया या फिर ताजा मामले में कमजोर करेगा. अमेरिका के वियतनाम और इराक का अभियान हो या फिर अफगानिस्तान में सोवियत संघ का दखल- हर मामले में आक्रमणकारियों को प्रतिष्ठा गंवानी पड़ी है.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 1965 में अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने वियतनाम में सैन्य अभियान चलाया, लेकिन आखिरकार बदनामी मिली. 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया. तब चरण सिंह की सरकार ने इसका विरोध किया.

हालांकि बाद में इंदिरा गांधी की सरकार ने रूस के कदमों की तारीफ की. लेखक ने अपने अनुभवों से बताया है कि अफगानी किस तरह इंदिरा गांधी के फैसलों पर उंगलियां उठाते रहे हैं.

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रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि अमेरिका ने जब 2001 में अफगानिस्तान पर हमले किए तो उसकी वजह 9/11 की घटना थी. इसलिए वह हमला पूर्व में अफगानिस्तान पर सोवियत हमले के मुकाबले अधिक विश्वसनीय था. अमेरिका 1975 में वियतनाम से निकले और 28 साल बाद इराक में घुसे. इसी तरह सोवियत सेना 1989 में अफगानिस्तान से बाहर हुई और 23 साल बाद 2022 में यूक्रेन में दाखिल हुई. ये सभी हमले बिना किसी उकसावे के हुए और एक ताकतवर देश की सनक के उदाहरण हैं.

हालांकि पुतिन अमेरिकी दुस्साहसिक विफल अभियानों का जिक्र करते हैं लेकिन कोई इतिहासकार उन्हें भी बताए कि हमलों के कारण किसी देश की प्रतिष्ठा कभी नहीं बढ़ी है. उल्टे हमलावर देश कमजोर हुए हैं और उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा है.

ऐसी दुर्दशा कभी नहीं देखी

थॉमस एल फ्रायडमैन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि यूक्रेन पर व्लादिमिर पुतिन के आक्रमण को देखते हुए कहा जा सकता है कि दुनिया कभी अब पहले जैसी नहीं रहेगी. 18वीं शताब्दी वाले अंदाज में जमीन हड़पने के लिए 21वीं सदी में किसी युद्ध के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था.

सुपर शक्तियों से सुसज्जित लोग जिनके हाथों में स्मार्टफोन हैं, बगैर किसी फिल्टर के घटनाओं को निर्बाध रूप से दुनिया में पहुंचा रहे हैं. इस किस्म का खेल आपने कभी नहीं देखा होगा. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार कोई शासक दुनिया का नियम तय करता दिख रहा है. पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर अपमानजनक वर्साय संधि थोपने का नतीजा था द्वितीय विश्वयुद्ध. रूस के मामले में नाटो का विस्तार पोलैंड से लेकर यूक्रेन तक नहीं होना चाहिए.

थॉमस एल फ्रायडमैन लिखते हैं रॉबर्ट कागन की पुस्तक ‘द जंगल ग्रोज बैक’ सही मायने में पुतिन के हमले की व्याख्या करता है. लेकिन यह तस्वीर भी अधूरी है क्योंकि यह न तो 1945 है और न ही 1989. हम वास्तव में जंगल वाले दौर में पहुंच जा सकते हैं. यह दुनिया संचार, उपग्रह, व्यापार, इंटरनेट, सड़क, रेल और हवाई नेटवर्क से जुड़ी हुई है, वित्तीय बाजार और आपूर्ति की श्रृंखलाएं इस दुनिया को परस्पर जोड़े हुए है.
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यही कारण है कि युद्ध का खेल भले ही यूक्रेन की सीमा के भीतर हो रहा हो लेकिन इसका असर पूरी दुनिया में महसूस किया जा सकता है. यूक्रेन पर रूस के हमले के पहले ही दिन से एक-एक भयावह घटना जिस तरीके से दुनिया को देखने मिली है ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.

हिटलर के हवाले से लेखक बताते हैं कि युद्ध एक ऐसे अंधेरे कमरे का दरवाजा खोलता है जहां कमरे के भीतर क्या है इसका पता किसी को नहीं होता. यूक्रेन का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी यूरोपीय यूनियन है रूस नहीं. और, यह बदलाव 2012 के बाद 10 साल में हुआ है. एक देश के रूप में यूक्रेन का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार चीन है. चीन ने यूरोपीय यूनियन के साथ कारोबार में अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया है.
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यही वजह है कि युद्ध पर सिर्फ चीन ने इतना कहा है कि उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. लेखक ने व्लादिमिर पुतिन को आगाह किया है कि भले ही उसके लिए युद्ध का पहला दिन सुखद लग रहा हो लेकिन वे दुनिया में कुख्यात होंगे विख्यात नहीं. महामारी में जिस तरह से पुतिन ने दुनिया को युद्ध में झोंका है वह उनके लिए वाटरलू साबित होगा. पुतिन और शी जिनपिंग के पास अनियंत्रित ताकत वास्तव में खतरनाक है.

यूक्रेन को देश नहीं मानते पुतिन

टेलीग्राफ में मुकुल केसवान ने लिखा है कि व्लादिमिर पुतिन की सोच है कि रूस और यूक्रेन कभी अलग नहीं रहे और यूक्रेन की परंपरा कभी एक राष्ट्र के रूप में रहने की नहीं रही है. वे लिन और बोल्शेविकों को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं कि उन्होंने 1917 की क्रांति के बाद 15 गणराज्यों के संघ सोवियत संघ में पूर्वी यूक्रेन को जन्म दिया.

स्टालिन ने 1913 में यह साफ किया था कि देश किसी नस्ल या धार्मिक समुदाय के आधार पर नहीं बनते. साझा भाषा, क्षेत्र, आर्थिक जीवन और साझी सोच के साथ साझा संस्कृति लेकर कोई देश खड़ा होता है.

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मुकुल केसवान मानते हैं कि स्टालिन ने राष्ट्र की परिभाषा रखकर वैश्विक क्रांति के लिए राष्ट्रवादी मंसूबे पर प्रहार किया था. सोवियत संघ नाम से संघ था. वास्तव में यह जार की विरासत वाले रूस का रूसीकरण था. आधुनिक यूक्रेन के पूर्वी हिस्से को ही 1922 में सोवियत संघ का हिस्सा बनाया गया था. पश्चिमी यूक्रेन पर पोलैंड और ऑस्ट्रिया का शासन था.

यही कारण है कि पूर्वी यूक्रेन में रूसी बोलने वाले ज्यादा हैं. पुतिन इसलिए यूक्रेन पर आधिपत्य चाहते हैं ताकि नाटो और रूस के बीच एक बफर इलाके का निर्माण किया जा सके.

लेखक ध्यान दिलाते हैं कि 27 देशों वाला यूरोपीय यूनियन और भारत लगभग एक जैसे हैं जो इतने ही संख्या वाले राज्यों का संघ है. यूरोपीय यूनियन की करंसी एक है और यह राजस्व के मामले में एक संघ नहीं है. इस पर जर्मनी और फ्रांस का प्रभाव है. यह यूरोपीय यूनियन की विफलता है कि वह सुरक्षा के लिए नाटो पर अब भी निर्भर है. नाटो के जरिए अमेरिका के विस्तारवाद को रूस अपने लिए खतरा मानता है.

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तेल संकट के बीच बेहतर स्थिति में है भारत

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि भारत जैसा देश जो अपनी जरूरतों का 85 फीसदी तेल आयात करता हो उसके लिए न तो युद्ध अच्छी खबर है और न ही कच्चे तेल की आसमान छूती कीमतें. ऐसा 7 साल के बाद हुआ है जब कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल पार हो गयी हैं. ऐसे में चाहे पेट्रोल-डीजल हों या फिर प्राकृतिक गैस- झटका लगना तय है. कोयले के मामले में भी भारत तीसरा सबसे बड़ा आयातक है. जाहिर है विधानसभा चुनावों के बाद खुदरा मूल्यों में भारी बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है.

नाइनन लिखते हैं कि मौजूदा सरकार के लिए बेहतर यही है कि सरकार उस कर वृद्धि को वापस ले ले जो उसने 2014 में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अपने उच्चतम स्तर से नीचे आते वक्त की थीं. इससे वह शिकायत भी दूर हो जाएगी कि कच्चे तेल के दाम कम होने पर सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम नहीं घटाए थे. बिजली उत्पादक कंपनियों की ईंधन की लात में भी बढ़ोतरी तय है. पहले से 25 फीसदी की सब्सिडी झेल रहा यह सेक्टर दबाव में होगा. ऐसे में बिजली की दरें बढ़ सकती हैं.
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टीएन नाइन लिखते हैं कि मुद्रास्फीति को बजट में किए गये वादों के अनुरूप 3 फीसदी के दायरे में लाना मुश्किल होगा लेकिन रिजर्व बैंक ब्याज दरों में मामूली बढ़ोतरी कर सकता है. यह संतोष की बात है कि व्यापार घाटा औरविदेशी मुद्रा भंडार के मामले में पहले से बेहतर स्थिति है. यह तय है कि उपभोक्ताओं को खरीद का साहस जुटाने में अभी वक्त लगेगा. महामारी के असर से उबरने में भी समय लगेगा.

तेली की ऊंची कीमतें कब तक रहेंगी कहना मुश्किल है. यूरोप का एक चौथाई तेल रूस से आताय है. ऊर्जा को प्रतिबंधों से बाहर रखने की सबसे बड़ी वजह यही है. ऐसे में युद्धकाल में रूस के पास महंगा ईंधन बेचकर कमाई करने का यह अच्छा विकल्प है.

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शिक्षा ही महिलाओं को पर्दे से निकालेगी

सोनाल्दे देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि महामारी के दौर में आवाज़ और अभिव्यक्ति चहारदीवारी में कैद रही हैं और ऐसे में महिलाओँ के पहनावे को लेकर उठ रहा विवाद चिंताजनक है. घुंघट, पल्लू, बुर्का या हिजाब वास्तव में महिलाओं पर प्रतिबंध के उदाहरण हैं. यह सच्चाई है कि 58 फीसदी हिन्दूऔर 88 फीसदी मुस्लिम महिलाएं भारत में ऐसे प्रतिबंधों के बीच जी रही हैं. स्कूली बच्चियों पर ऐसी ही बाध्यताएं लागू करना वास्तव में चिंताजनक है. कर्नाटक में पहनावे का जो विवाद सामने है उसमें हिजाब बाकी किसी भी पहनावे बुर्का, घुंघट आदि के मुकाबले प्रतिबंध कम है.

सोनाल्दे देसाई लिखती हैं कि जब इस औपनिवेशिक देश में लड़कियों की शादी की उम्र 12 तय की गयी थी तब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों के इस कदम की तारीफ की थी और 1891 में उन्होंने एक संपादकीय लिखकर अपने विचार रखे थे. उन्होंने कहा था कि वे मूल रूप से सरकार के सुधार के कदम के साथ हैं. हमें अपने विचार महिलाओं पर नहीं थोपने चाहिए. हरियाणा में मंजू यादव ने कुछ साल पहले महिला सशक्तिकरण अभियान की शुरुआत की थी.
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उन्हें खापों से संघर्ष करना पड़ा. मुस्लिम समाज में यह संघर्ष और भी मुश्किल रहा है. सानिया मिर्जा ने लगातार संघर्ष किया है. इसी तरह शबाना आज़मी ने भी नृत्य और संगीत को लेकर धार्मिक मुल्लाओं से टकराव लिया है.

ऐसे भी उदाहरण रहे हैं कि घरेलू हिंसा विरोधी अभियानों को इस कारण नजरअंदाज किया गया क्योंकि वे पुलिस से परेशान नहीं होना चाहती थीं. लिंग आधारित भेदभाव से लड़ने के लिए महिलाओं को शिक्षित किया जाना महत्वपूर्ण कदम है. यह समय है जब हम महिलाओं को सशक्त करने पर ध्यान केंद्रित करें. उन्हें शिक्षा रोजगार और सार्वजनिक जीवन में सुरक्षा सुनिश्चित किया जाए. ऐसा करके ही लिंग आधारित समानता की ओर समाज आगे बढ़ सकता है.

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