ADVERTISEMENTREMOVE AD

संडे व्यू : जनता ने सिखाया सबक, बदलेंगे नरेंद्र मोदी!

पढ़ें इस रविवार तवलीन सिंह, रामचंद्र गुहा, प्रताप भानु मेहता, अंशुमान चौधरी, मारियाना मैजुकाटो और जियोवानी ताग्लियानी के विचारों का सार.

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

जनता ने लगाया मोदी पर अंकुश

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस लिखा है कि चुनाव नतीजों के बाद नरेंद्र मोदी बदले-बदले से लग रहे हैं. जिस व्यक्ति ने कुछ हफ्ते पहले कहा था कि उनको परमात्मा ने भेजा है, जिसने 400 पार का नारा दिया था, ऐसा लगता है कि उनके पांव जमीन पर जनता ने उतार दिए हैं.

मोहन भागवत ने पिछले हफ्ते कहा था, “जो वास्तविक सेवक हैं वह मर्यादा का पालन करता है लेकिन कर्मों में लिप्त नहीं होता. उसमे अहंकार नहीं आता कि मैंने किया है.” यह आलोचना कम और सकारात्मक सलाह ज्यादा है. मोदी अगर इसे नहीं भूलेंगे तो अपने तीसरे कार्यकाल में बेहतर प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि दूसरे कार्यकाल में मोदी में अहंकार इतना आ गया था कि कई बार ऐसा लगा कि जैसे वे अपने आपको राजनेता कम और मसीहा ज्यादा समझने लगे थे.

कोविड टीकों के सर्टिफिकेट से लेकर गरीबों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर मोदी की फोटो चिपाई जा रही थीं. बस अड्डों से लेकर पेट्रोल पंपों पर मोदी के विज्ञापन दिखते थे. चुनाव प्रचार शुरू होन से कुछ महीने पहले मोदी के कटआउट हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर लगाए गये ताकि उनके साथ मोदीभक्त सेल्फी ले सकें.

अहंकार की सीमाएं ऐसी लांघी गईं कि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा मोदी ने खुद की जबकि यह काम महंतों, पुजारियों का होता है. ऐसा लगता है कि चुनाव में फैजाबाद हराकर मोदी को रामलला ने स्वयं संदेश भेजा है.

अहंकार की सीमाएं ऐसी लांघी गईं कि रामलला की प्राण प्रतिष्ठा मोदी ने खुद की जबकि यह काम महंतों, पुजारियों का होता है. ऐसा लगता है कि चुनाव में फैजाबाद हराकर मोदी को रामलला ने स्वयं संदेश भेजा है.

चुनाव नतीजों के बाद ज्यादातर लोगों ने बताया-‘अच्छा हुआ’. गृहमंत्री के धमकी भरे भाषण, सीएए-एनआरसी को लेकर चुनौतीपूर्ण टिप्पणियां, मुसलमानों में डर जैसी बातों का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह ने लिखा है कि बुल्डोजर न्याय से दहशत बढ़ी. पत्रकारों पर कार्रवाई, विदेशी चंदे पर सेलेक्टिव तरीके से पाबंदी, जैसे मुद्दों ने भी माहौल बिगाड़ा. आगे क्या होगा? मोदी सरकार ऐसे राजनेताओं पर निर्भर है जो दुनिया की नजरो में पूरी तरह ‘सेकुलर’ और ‘लोकतांत्रिक’ हैं. सो, मोदी की चौकीदारी ये लोग करेंगे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बदलेंगे नरेंद्र मोदी!

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में याद दिलाया है कि ठीक एक साल पहले उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के बारे में कुछ महत्वाकांक्षी बातें लिखी थीं और भारतीय संसदीय चुनाव में एक उम्मीद रखी थी. यह उम्मीद किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने के बारे में थी.

फरवरी 2024 में फॉरेन अफेयर्स में प्रकाशित एक लेख में भी लेखक ने टिप्पणी की थी, “भारत मोदी और बीजेपी को सत्ता से हटाने के लिए संघर्ष करेगा और संसद में उनके प्रभावशाली बहुमत को कम करने की उम्मीद कर सकता है.”

उसी महीने पत्रकार अनिल माहेश्वरी ने भी कहा था कि विपक्ष संसद में बीजेपी के बहुमत को न केवल कम करेगा बल्कि खत्म भी कर देगा. 25 फरवरी को अनिल माहेश्वरी ने लेखक को लिखा, “मुझे डर है कि आपकी आशंका गलत है. जमीनी हकीकत के आधार पर जिसे वामपंथी/उदारवादी नहीं देख पा रहे हैं...बीजेपी को लगभग 230 सीटें मिल सकती हैं.” 18 मार्च को भी उन्होंने यह बात दोहराई.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि जुलाई 2023 में गठबंधन सरकार की उम्मीद करते हुए उन्होंने तर्क दिया था...

“भारत इतना बड़ा और विविधतापूर्ण देश है कि इसे सहयोग और परामर्श के अलावा किसी और तरीके से नहीं चलाया जा सकता. हालांकि संसद में एक बड़ा बहुमत सत्तारूढ़ दल में अहंकार और अहंकार को बढ़ावा देता है. ऐसा बहुमत पाने वाला प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट सहयोगियों पर अत्याचार करता है, विपक्ष का अनादर करता है, प्रेस को नियंत्रित करता है और संस्थानों की स्वायत्तता को कमजोर करता है..”

अब अपनी तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी बिना अपनी पार्टी के बहुमत के प्रधानमंत्री के रूप मे कार्य कर रहे हैं. अल्पमत सरकार चलाने वाले नरसिम्हाराव ने प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा और राजीव दोनों की कैबिनेट में लंबे समय तक काम किया था. वाजपेयी खुद प्रधानमंतरी बनने से पहले मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री थे. वहीं मोदी कभी भी केवल विधायक या सांसद नहीं रहे हैं. 2001 से उन्हें बस इतना ही पता था कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कैसे बनना है. नरेंद्र मोदी ने 10 मई को ही अपनी तीसरी सरकार के 100 दिन का एजेंडा सामने रख दिया था. शासन के तरीके में कोई ठोस बदलाव होगा या नहीं, अब इसी पर सबकी नजर है.

BJP हारी है हिन्दुत्व नहीं

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि यह राहत की बात है कि विपक्ष मजबूत हुआ है, गठबंधन वापस आ गये हैं, एक नेता के अहंकार पर लगाम लग गयी है. हिन्दुत्व की छाया से सामान्य राजनीति फिर से उभरती दिख रही है. सीएसडीएस के चुनाव बाद सर्वेक्षण में दर्शाया है कि आर्थिक मुद्दे हावी दिखे, कम से कम उन लोगों के बीच जिन्होंने बीजेपी के खिलाफ मतदान किया.

चुनाव की एक संभावित व्याख्या यह है कि देर सवेर हर राजनीतिक दल और नेता चाहे वह कितना प्रभावशाली क्यों न हो, यह पाता है कि भारत पर शासन करना और इसकी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाना मुश्किल है. राजनीतिक दलों ने आम तौर पर दो साधनों के माध्यम से चुनावी गठबंधन बनाने की कोशिश की है. पहला है सरकारी योजनाएं- रोजगार कार्यक्रम, नकद हस्तांतरण वगैरह-वगैरह.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि सुविधाएं और छूट एक बार संस्थागत हो जाने के बाद मतदाता पूछता है आगे क्या? अधिकांश राजनेता इन योजनाओं की सफलता पर भरोसा करते हैं, जबकि मतदाता पहले से ही आगे बढ़ चुके होते हैं.

यकीनन यूपीए 2 ने मनरेगा जैसी योजनाओं का सारा श्रेय ले लिया था. हाल के वर्षों में ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश जैसे प्रदेशों में कल्याण योजनाएं और नकद हस्तांतरण जैसी योजनाएं बेहतर रहीं. फिर राज्य सरकारे हार गईं. राजस्थान में कांग्रेस को भी हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव में बीजेपी ने पहले से ही लागू की गयी योजनाओं पर एक रिकॉर्ड बनाया था लेकिन मतदाता कुछ नया चाह रहे थे.

भारत में गरीबी के स्तर पर कई योजनाएं आर्थिक रूप से सार्थक हैं. लेकिन, अच्छी नौकरियां पैदा करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था का संरचनात्मक परिवर्तन अभी भी धीमा है. गरीबी कम जरूर हुई है लेकिन वास्तविक रूप से जीवनयापन की लागत को देखते हुए ग्रामीण मजदूरी में बहुत वृद्धि नहीं हुई है, न ही शहरी मजदूरी में.

मेहता आगे लिखते है कि मंडल राजनीति इसलिए नहीं लड़खड़ा गई क्योंकि उसे नकार दिया गया. यह इसलिए लड़खड़ा गई क्योंकि नीतिगत रूप से इसका केंद्र बिन्दु हासिल हो चुका था. अब से आरक्षण या जाति जनगणना जैसे दूसरे केंद्र बिंदु के साथ खुद को फिर से गढ़ना होगा. मंडल पार्टियां सत्ता में आने के बाद भी स्थायी शासन या आर्थिक परिवर्तन नहीं ला सकीं. बीजेपी की अस्वीकृति हिन्दुत्व की अस्वीकृति नहीं है. बीजेपी ने यह सोचने की गलती की कि उसने अनिश्चित काल के लिए राजनीतिक पूंजी तैयार कर ली है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मणिपुर-नगालैंड में केंद्र से प्रभावी हस्तक्षेप की उम्मीद

अंशुमान चौधरी ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि एनडीए सरकार ने 9 जून को लगातार तीसरी बार कार्यभार संभाला. हालांकि, इस बार उसे जो खंडित जनादेश मिला है, उससे पता चलता है कि वह मतदाताओं को हल्के में नहीं ले सकती. उसे जमीनी स्तर पर चिंताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा.

पूर्वोत्तर भारत के लिए भी यह सच है जहां बीजेपी और उसके सहयोगियों ने मणिपुर, मेघालय, नगालैंड और मिजोरम में अपनी मौजूदा संसदीय सीटों में से चार खो दीं. असम और त्रिपुरा को छोड़कर एनडीए ने अन्य सभी राज्यो में वोट शेयर भी खो दिया.

अंशुमान चौधरी लिखते हैं कि लोकसभा नतीजे घोषित होने के ठीक चार दिन बाद मणिपुर के जिरीबाम जिले में ताजा हिंसा भड़क उठी. यह क्षेत्र पश्चिम में असम की सीमा से सटा हुआ है. जिरीबाम में 59 वर्षीय मैतेई किसान का शव मिलने के बाद आदिवासी समुदाय के लगभग 45 घर जमींदोज हो गये.

हिंसा को देखते हुए 600 से ज्यादा लोग असम के कछार जिले से भाग गए हैं. 10 जून को संदिग्ध आतंकियों ने जिरीबाम की ओर जा रहे मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के अग्रिम सुरक्षा काफिले पर हमला किया.

लेखक का मानना है कि नई एनडीए सरकार को अपनी गलतियों को स्वीकार करना चाहिए. नई दिल्ली को दिखाना चाहिए कि वह तटस्थ मध्यस्थ है और सबकी भलाई के लिए एक ताकत है. सरकार को चाहिए कि वह इंफाल में एन बीरेन सिंह सरकार समेत सभी हितधारकों को एक ही टेबल पर लाकर और सभी प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करे. इनमें भूमि विभाजन, हिल वैली विभाजन, आरक्षण, अफीम की खेती, आतंकी हिंसा और डेमोग्राफी से जुड़ी चिंता शामिल हैं.

लेखक ध्यान दिलाते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया कि उनकी सरकार जल्द से जल्द नागा शांति वार्ता को संपन्न करने का प्रयास कर रही है. एनएससीएन-आईएम को आश्वस्त करने की जरूरत है कि परोक्ष रूप से छल करके उसकी स्थिति को बदलने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है. इसके अलावा एनएससीएन-आएम और नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स के नाम से जाने जाने वाले दूसरे संवाद गुट के बीच की खाई को पाटने की जरूरत है. नई दिल्ली को नागा समाज को यह दिखाने की जरूरत है किवह एकता के लिए एक ताकत है, विभाजन के लिए नहीं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मेलोनी को नजरिया बदलना होगा

मारियाना मैजुकाटो और जियोवानी ताग्लियानी ने बिजनेस स्टैंडर्ड में अपने एक साझा लेख में लिखा है कि 50वें जी-7 शिखर सम्मेलन की मेजबानी इटनी ने किया. प्रधानमंत्री जियोर्जियो मेलोनी की सरकार ने अफ्रीका केंद्रित विकास योजना की घोषणा की.

2017 के बाद जी-7 शिखर सम्मेलन में अफ्रीकी महाद्वीप से सबसे ज्यादा प्रतिनिधियों की संख्या रही. इसी साल इटली-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में मेलोनी ने मैटेई योजना के रूप में नयी पहल की थी, जिसका उद्देश्य ऊर्जा, विकास और आप्रवास पर केंद्रित वैश्विक विकास साझेदारी स्थापित करना है.

तेल दिग्गज ‘एनी’ के संस्थापक मैटेई ने 1950 के दशक में विकासशील देशों को अधिक अनुकूल साझेदारी समझौते देकर प्रमुख तेल कंपनियों के एकाधिकार को तोड़ा था. विडंबना यह है कि एनी अब मेलोनी की 20 बिलियन की निजीकरण योजना का हिस्सा है.

लेखक का मानना है कि मेलोनी की निजीकरण योजना इटली की अल्पकालिकता, लक्ष्यहीनता और एक गंभीर औद्योगिक रणनीति की अनुपस्थिति का संकेत है. 1990 के दशक में इटली ने महाद्वीपीय यूरोप में सबसे बड़ा निजीकरण कार्यक्रम शुरू किया जिसमें नवाचार को बढ़ावा देने के बजाए इसकी औद्योगिक रीढ़ का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया.

1990 और 2000 के दशक के श्रम बाजार सुधारों ने अनिश्चित कार्य स्थितियों को जन्म दिया, कौशल और प्रशिक्षण में दीर्घकालिक निवेश को हतोत्साहित किया और उत्पादकता को कम किया. मेलोनी की दोषपूर्ण निजीकरण योजना व्यापक वैश्विक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने माना है कि मितव्ययिता से ऋण-जीडीपी अनुपात कम नहीं होता है और विकास को नुकसान पहुंचताहै.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

यूरोपीय नीति निर्माता अभी भी अप्रचलित राजकोषीय नियमों से चिपके हुए हैं जो सरकारों को सार्वजनिक ऋण को कम करने के लिए औद्योगिक परिसंपत्तियों को बेचने के लिए प्रेरित करते हैं. मेलोनी द्वारा अभिनव विकास दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के प्रयास के बावजूद उनकी सरकार द्वारा पुराने सिद्धांतों को अपनाने से विफल नीतियां बनती हैं जो जी7 के आर्थिक एजेंडे और अफ्रीका के साथ साझेदारी को खतरे में डालती हैं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×