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संडे व्यू: चुनाव में फिर जीवंत हुई विभाजनकारी राजनीति, पाकिस्तान में सेना सरकार!

संडे व्यू में पढ़ें आज विवेक काटजू, रामचंद्र गुहा, करन थापर, पी चिदंबरम और तवलीन सिंह के विचारों का सार.

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पाकिस्तान में फिर सेना समर्थक सरकार!

विवेक काटजू ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पाकिस्तान के आम चुनाव में इमरान खान ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शानदार प्रदर्शन कर दिखाया है. बगैर चुनाव चिन्ह के इमरान समर्थक निर्दलीय नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या सरकार बनाने लायक नहीं हैं लेकिन इसने यह परिस्थिति जरूर पैदा कर दी है कि नवाज शरीफ और बिलावल भुट्टो हाथ मिलाएं. सेना इसी हक में खड़ी दिख रही है. पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) को 71 और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) को 53 सीटें अब तक मिली हैं इमरान समर्थकों की तादाद 91 है.

काटजू लिखते हैं कि पाकिस्तान में 342 सदस्यों की राष्ट्रीय असेंबली का प्रावधान है. इनमें से 242 सीधे चुने जाने हं. 235 सीटों के लिए चुनाव हुए हैं. महिलाओँ के लिए 60 और राष्ट्रीय आधार पर अल्पसंख्यकों के लिए 10 सीटें आरक्षित हैं. मगर, इसके लिए 5 प्रतिशत वोट हासिल करना जरूरी है. तभी इन सीटों के लिए अनुशंसा की जा सकती है. इमरान खान को इसका फायदा नहीं मिलेगा. लिहाजा सरकार दो पार्टियों के गठबंधन से ही बनेगी. सेना की कोशिश है कि पीएमएल (एन) और पीपीपी के बीच गठबंधन कराया जाए.

लेखक मानते हैं कि पाकिस्तान में चुनाव का यह साफ संदेश है कि इमरान खान का दबदबा बरकरार है. सेना से लड़ते हुए उसने यह रुतबा हासिल किया है.

जेल में रहने और पार्टी की मान्यता रद्द होने व चुनाव चिन्ह नहीं रहने के बावजूद यह चुनावी प्रदर्शन बताता है कि जनता इमरान के पीछे लामबंद है. सेना की भूमिका लोकतंत्र के खिलाफ नजर आती है. सेना जनता के खिलाफ दिखती है. भारत को इसके स्थायी खतरे को महसूस करना होगा.

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राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता दोनों के पैरोकार रहे आडवाणी

करन थापर ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि गलती को बिना संकोच के स्वीकार करने की इच्छा शायद लालकृष्ण आडवाणी की सबसे बड़ी खूबी रही है और इसी से लेखक उनसे प्रभावित रहे हैं. भारत रत्न से सम्मानित होने के बाद उनसे पहले साक्षात्कार का याद करना जरूरी है. 1990 में हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ हेरिटेज वॉक की एक सीरीज के माध्यम से यह संभव हुआ था. साक्षात्कार पंडारा पार्क स्थित लालकृष्ण आडवाणी के साथ हुआ था.

लेखक बताते हैं कि एक प्रश्न के जवाब में आडवाणी ने साफ तौर पर कहा था, “मेरा मानना है कि यह एक हिंदू देश है जैसे इंग्लैंड एक ईसाई देश है. न कुछ ज्यादा, न कुछ कम.” आडवाणी ने बताया था कि वे शुद्ध और सरल राष्ट्रवाद के पक्षधर हैं. हिन्दू सामग्री से रहित राष्ट्रवाद निरर्थक है. आडवाणी ने स्पष्ट रूप से इस बात को भी स्वीकार किया था कि वे बिना किसी झिझक के धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए खड़े हैं. हिन्दुत्व और धर्मनिरपेक्षता के साथ खड़े रहने पर सवाल के जवाब में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था, “यह लोकमान्य तिलक की तरह है, गांधी की तरह है. यह नेहरू की तरह नहीं है... या सरदार पटेल जिनकी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा वैसी ही थी जैसी मैं मानता हूं. पिछले चार दशकों में चुनावी जरूरत ने ही दृष्टिकोण को विकृत कर दिया है.''

करन थापर खास तौर से उल्लेख करते हं कि लालकृष्ण आडवाणी ने मुसलमानों को भारत का अभिन्न अंग स्वीकार किया था.

उन्होंने भारत में तीन हजार मस्जिदों को नष्ट करने के विचार का भी विरोध किया था. लेखक खासतौर से बताते हैं कि आज के दौर में इतनी स्पष्टता के साथ बोलनेवाले नेता कम हैं.

चुनाव में फिर जीवंत हुई विभाजनकारी राजनीति

रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि विभाजन की राजनीति एक बार फिर कर्नाटक में लौटती दिख रही है. विधानसभा चुनाव के दौरान हिजाब, हलाल, लव जिहाद और टीपू सुल्तान के मुद्दों को जोर-शोर से उछाला गया था. रोजगार, महंगाई, स्कूल और अस्पताल, स्वच्छ् हवा-पानी, सड़कों की स्थिति या ऐसे मुद्दों की अनदेखी की गयी थी. व्हाट्सएप फैक्ट्री के माध्यम से ऐसे भी झूठ गढ़े गये, जिनमें दावा किया गया था कि टीपू सुल्तान की हत्या ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों ने नहीं, दो वोक्कालिंगा योद्धाओं ने की थी. हालांकि ये सारे प्रयास विफल रहे और कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस ने काफी आसान बहुमत हासिल किया. सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने कमोबेश मिलकर काम किया. राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे उत्तरी राज्यों के मुकाबले यह बेहतर उदाहरण है.

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार अब हिन्दुओं के तुष्टिकरण की राह पर चलती दिख रही है. ऐसी ही सियासत मध्यप्रदेश में नहीं चली थी. जनता ने नकार दिया था.

बीजेपी लगातार कर्नाटक में विवादास्पद मुद्दों को हवा दे रही है. मांड्या जिले में सरकारी जमीन पर खड़े पोल पर झंडा फहराने को बड़ा मुद्दा बना दिया गया. जनता दल सेकुलर नेता एचडी देवगौड़ा और कुमारस्वामी भी बीजेपी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं.

लेखक ने बीजेपी नेता रवि को उद्धृत करते हुए बताया है कि आगामी लोकसभा चुनाव को काशी विश्वनाथ और औरंगजेब, सोमनाथ और गजनी और हनुमान और टीपू के बीच लड़े जाने की बात कह रहे हैं. निराशाजनक बात यह है कि राज्य में कांग्रेस नेताओं द्वारा उन हिंदुओं को खुश करने की कोशिश की जा रही है जो मानते हैं कि राजनीति और शासन व्यवस्था को बहुसंख्यकवादी मुहावरे में संचालित किया जाना चाहिए.

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चिदंबरम ने वित्तमंत्री को ‘झूठे आंकड़ों’ पर घेरा

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने बुलहॉर्न शब्द का इस्तेमाल किया है. मगर, वित्तमंत्री को इससे बड़ी निराशा हुई होगी कि अगले दिन ही बजट बिना अपनी कोई छाप छोड़े गायब हो गया. ऐसा लगता है कि बीते दस सालों में सरकार के बार-बार किए गये दावों से लोग थक और उब गये हं. हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा था लेकिन कुछ हजार नियुक्ति पत्र सौंपने के तथ्य ही उपलब्ध हैं. 2023 में दो लाख साठ हजार नौकरियां खत्म कर दी गयीं. हर व्यक्ति के बैंक खाते में 15 लाख का वादा भी लोग नहीं भूलेंगे. विदेश में जमा धन वापस लाने का वादा अधूरा है जबकि घोटालेबाजों को देश छोड़ने की अनुमति दी गयी. लोगों को 2022 तक हर परिवार के लिए घर और 2023-24 तक पांच लाख करोड़ अमेरिकी डालर यानी अर्थव्यवस्था बनाने का वादा भी याद है.

चिदंबरम ने वित्तमंत्री के कई दावों की भी कलई खोली है. ग्रामीण क्षेत्रो में वास्तविक आय में बढ़ोतरी से लेकर 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से मुक्ति दिलाने के दावे को भी लेखक ने दुरुस्त किया है.

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के हवाले से लेखक बताते हैं कि गरीबी से बाहर निकलने वाले लोगों की संख्या 27.5 करोड़ थी जो एनडीए के कार्यकाल में 14 करोड़ रही. लाभार्थी किसानों की संख्या घटककर 8.12 करोड़ रह जाने का भी लेखक ने उल्लेख किया है. आईआटी, ट्रिपल आटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों और एम्स तक में बड़ी संख्या में रिक्तियां खाली हैं. आंकड़ों के जरिए से लेखक ने बताया है कि औसत ऋण 25,217 रुपये बांटे गये हं. इससे भला कौन सा व्यवसाय खड़ा किया जा सकता है. ऐसे ही आंकड़ों को रखते हुए पूर्व वित्तमंत्री ने वर्तमान वित्त मंत्री को गैर वैधानिक चेतावनी दी है कि वे बुलॉर्न का उपयोग नहीं करें.

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फिर हारेगी कांग्रेस

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राजनेता, राजनीतिक पंडित, सर्वेक्षण मतदाता सब कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. दिल्ली में कई लोगों को लोकसभा चुनाव 2004 याद आ रहा है जब सब गलत साबित हुए थे. लेखिका भी गलत साबित हुई थी. मगर, तब और अब में फर्क यह है कि तब कांग्रेस पार्टी निजी कंपनी में परिवर्तित नहीं हुई थी. कांग्रेस की दूसरी कमजोरी यह है कि बीते एक दशक में उसने अपनी रणनीति थोड़ी सी भी नहीं बदली है.

तवलीन सिंह बताती हैं कि राहुल गांधी की कोशिश यही रही है कि किसी न किसी तरह मतदाताओं को समझा पाएं कि मोदी एक भ्रष्ट राजनेता हैं.

2014 से लेकर अब तक केवल मोदी को बदनाम करने के लिए अंबानी और अडानी का नाम लेते रहे हैं. प्रशांत किशोर की चर्चा करते हुए लेखिका ने बताया है कि नोटबंदी के बाद नरेंद्र मोदी कमजोर दिख रहे थे. कोविड-19 के दौर में जब लोग लाखों की संख्या में मरने लगे थे और टीकों की तैयारी तक नहीं थी तब भारत सरकार में मोदी बेहद कमजोर दिखे थे. प्रशांत किशोर ने कई और मौके बताए जब विपक्ष चूक गया. लेकिन, अब शायद बहुत देर हो चुकी है. लेखिका का दावा है कि वह भविष्यवाणी करने से दूर रहती हैं लेकिन यह कहने पर वे मजबूर हैं कि आने वाले लोकसभा चुनावों में वही दृश्य देखेंगे. कांग्रेस ने अब भी न कोई नया मुद्दा उठाया है न कोई नया संदेश ही दिया है

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