मुसलमानों के लिए एकतरफा मतदान ही विकल्प
असीम अमला टेलीग्राफ में लिखते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुसलमान डबल इंजन की सरकार में पूर्ण नागरिक के तौर पर पांच साल बाद वोट कर रहे हैं. यह वह लोकतांत्रिक अधिकार है जो हिन्दुओं की तरह उनके पास भी है. सवाल यह है कि वे इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं? ‘मुस्लिम वोट बैंक’ की परंपरागत सोच पर सवाल उठाते हुए असीम अमला लिखते हैं कि दो बातें स्पष्ट रही हैं.
पहली यह कि मुसलमानों ने कभी एक पार्टी के लिए मतदान नहीं किया.
दूसरी बात यह कि क्षेत्र और विधानसभा क्षेत्र बदलते ही अलग-अलग पार्टियों के लिए वोट करते रहे हैं.
अधिक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि जाति, वर्ग और लिंग के साथ-साथ सुशासन की इच्छा जैसे कारण भी मुसलमानों पर हावी रहे हैं. मुसलमान महज मुसलमान होने की वजह से वोट करता नहीं रहा है. लेकिन, क्या अब यह बदल रहा है?
असीम अमला लिखते हैं कि वर्तमान चुनाव ऐसी परिस्थिति में होने जा रहा है जिसमें कानून के शासन का भरोसेमंद सुरक्षा कमजोर पड़ी है. सीएए-एनआरसी आंदोलन के दौरान पुलिस मुठभेड़ में 22 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है अवैध तरीके से उनकी संपत्ति जब्त की जाती है, मॉब लिंचिंग के खौफ में वेजीने को विवश रहते हैं.
उस पर मुख्यमंत्री आगाह करते हैं कि और भी बुरे दिन आने वाले हैं. वे खुले तौर पर वर्तमान चुनाव को 20 फीसदी बनाम 80 फीसदी का चुनाव बताते हैं. ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुसलमान समाजवादी पार्टी के लिए एकतरफा मतदान करें. पहले दो चरणों की जमीनी रिपोर्ट यही कहती है कि मुरादाबाद, रामपुर, अमरोहा, आगरा और सहारनपुर जैसे इलाकों में समाजवादी पार्टी क्लीन स्वीप करती दिख रही है.
बीते 3 दशकों से मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस में बंटते रहे थे. उस चुनाव में भी जिसमें मुसलमानों का समर्थन समाजवादी पार्टी को माना गया था, आधे मुसलमानों का समर्थन ही मिल पाया था. बाकी आधे दूसरी पार्टियों में बंटे थे. पश्चिम बंगाल की परिस्थिति भी कुछ ऐसी ही बनी थी जब 75 फीसदी मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस सो वोट किया.
इमरान मसूद जैसे नेताओं का कांग्रेस छोड़ना यह बताता है कि यूपी में समाजवादी पार्टी के लिए ऐसा होने जा रहा है. मगर, मसूद को सपा का टिकट नहीं मिलना बताता है कि मुस्लिम क्षत्रपों की मोल-तोल करने की ताकत पहसे से घटी है.
पंजाब के मन में क्या है
गोपाल कृष्ण गांधी ने टेलीग्राफ में लिखा है कि गुरु नानक की धरती पंजाब में जनता अपनी सरकार और अपना मुख्यमंत्री चुनने के लिए वोट डाल रही है. सुखबीर सिंह बादल से जब यह सवाल किया गया कि सिख बहुल प्रदेश में सिख मुख्यमंत्री होना क्या स्वाभाविक है तो उन्होंने इस दलील को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि हिन्दू या मुस्लिम भी पंजाब के मुख्यमंत्री हो सकते हैं. सवाल यह है कि बादल का यह जवाब क्या
‘व्यावहारिक’ और अल्पसंख्यकों को आकर्षित करने वाला बयान नहीं है? राजनीति में इन दिनों जीएसटी का मतलब गॉड सेव द ट्रूथ हो गया है. अकाली गठबंधन की सरकार के दौरान क्यों नहीं हिन्दू या मुस्लिम सीएम बन सके? क्या इसलिए कि इस पद के लिए कोई आवेदन नहीं आया था?
गोपाल कृष्ण गांधी लिखते हैं कि सिख स्वाभिमान आंदोलन चलाने वाले अकाली दल के नेता का बयान महत्वपर्ण है क्योंकि ऐसा बयान वही दे सकते हैं. 101 साल पहले 20 फरवरी 1921 को ननकाना साहिब में डेढ़ सौ अकाली कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी थी.
महात्मा गांधी ने तब उस घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि अच्छा होता कि वे भी पीड़ितों में एक होते. गांधी ने उस घटना को डायरवाद का दूसरा संस्करण करार दिया था. जलियांवाला बाग से भी जघन्य थी वह घटना. नफरत की घटनाओं में हम आगे रहे हैं और दूसरों की आस्था की कभी परवाह नहीं की है. पुरुष महिलाओं पर, सवर्ण दलितों पर, बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों पर अक्सर हावी रहे हैं. लेखक 1921 में खिलाफत आंदोलन के दौरान घटी एक घटना का जिक्र करते हैं जब प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए थे.
स्वराज और स्वदेशी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा, राष्ट्रवादी, संग्रामी इकट्ठा हुए थे. तब पारसी लोगों के पहनावे पर घमासान छिड़ गया. पारसियों से उनकी टोपी उतरवायी गयी. पारसी महिलाओं के साथ ज्यादती हुई. गांधीजी ने उस घटना पर गुस्से और शर्मिंदगी का इजहार किया था. स्वेच्छा से हिजाब, दुपट्टा, टोपी, पगड़ी पहनना आत्मसम्मान, इज्जत और स्वाभिमान का प्रतीक होता है. 20 फरवरी इज्जत, स्वाभिमान और मर्यादा का दिन है. पंजाब को आगे रखते हुए भारत को आगे रखना है.
गहरी हैं हिजाब पर छिड़े संघर्ष की जड़
तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि जो मुस्लिम महिलाएं कभी नकाब या हिजाब नहीं पहनती थीं, अब हिजाब पहनने का हक मांग रही हैं और इसको लिबास का हिस्सा न मानकर अपने मजहब की पहचान मानने लग गयी हैं.
ऐसा क्यों हो रहा है? कौन हैं वे ताकतें जो इनको ऐसे रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर रही हैं जिस पर उमर भर उनको एक तरह से आधी जिंदगी जीनी पड़ेगी?
मुस्लिम महिलाएं जब पश्चिमी देशों में जाती हैं तो खुशी-खुशी पश्चिमी लिबास अपना लेती हैं यह कहते हुए कि उनको अपनी तरफ गैर लोगों की नजरें आकर्षित करना पसंद नहीं है. मगर, अपने देश में क्या हो रहा है? क्या यह सारा मसला अब मजहबी न रह कर राजनीतिक नहीं बन गया है?
तवलीन सिंह लिखती हैं कि छह लड़कियों से शुरू हुआ यह विवाद कहां से कहां पहुंच गया है. क्या हमें यह पूछने का अधिकार नहीं है कि इसके पीछे कौन है? कुछ पत्रकारों ने उडुप्पी से यह ढूंढ निकाला है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का संपर्क उन लड़कियों से था. यह संगठन 2006 में बना था. देश में इस संस्था की जरूरत क्या थी?
जिहादी इस्लाम के पहरेदार कहते फिर रहे हैं कि मुसलमानों को मोदी के दौर में अपनी पहचान खोने का डर है. मगर, 2006 में ऐसी कौन सी जरूरत थी?
देश के विभाजन से दस साल पहले भारत के मुसलमानों को उनके राजनेता इसी तरह से गुमराह कर रहे थे. अगर मुसलमानों के लिए अलग देश नहीं बनता है तो अंग्रेजों के जाने के बाद उन्हें न गाय काटने का अधिकार रहेगा, न हलाल गोश्त खाने का, न मस्जिदों में जाने का और न अपनी संस्कृति को जिंदा रखने का.
नेहरू ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन न जिन्ना साहब तैयार थे, न मौलाना-मौलवी. लेखिका का मानना है कि यह झगड़ा अब केवल मुस्लिम लड़कियों का कक्षाओं के अंदर हिजाब पहनने का भर का नहीं है.
नौकरियां हैं पर देखे कौन?
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस मे लिखा है कि देश में रोजगार भरे पड़े हैं, लेकिन बेरोजगारों की संख्या भी बढ़ती चली जा रही है. इसकी वजह है कि सरकार रोजगार के अवसरों को देख नहीं पा रही है. 31 मार्च 2021 को केंद्र सरकार के पास 8 लाख 72 हजार 243 पद खाली थी और सरकार 78 हजार 214 पद ही भर सकी.
मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ देवीशेट्टी के हवाले से चिदंबरम लिखते हैं कि हमारे पास स्नातक और परा स्नातक सीटों की भारी कमी है. कैरेबियाई देंशो में पैंतीस मेडिकल कॉलेज अमेरिका के लिए डॉक्टरों को प्रशिक्षण दे रहे हैं. एक मॉल में शानदार डॉक्टर तैयार हो रहे हैं. जबकि, भारत में मेडिकल कॉलेज के नाम पर इमारत खड़ी करने पर चार सौ करोड़ खर्च हो रहे हैं. मेडिकल कॉलेजों में सौ छात्रों को प्रशिक्षित करने के लिए 140 शिक्षकों की जरूरत नहीं होती. 140 फैकल्टी हजारों छात्रों वाला मेडिकल कॉलेज चला सकते हैं.
पी चिदंबरम लिखते हैं कि हर बार मिनट में क्यों एक गर्भवती महिला को बच्चे को जन्म देने के दौरान मौत हो जानी चाहिए? पैदा होती ही क्यों तीन लाख बच्चे मर जाने चाहिए? अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाने वाले बारह लाख बच्चों की मौत क्यों हो जाती है?
हमें 2 लाख स्त्री रोग विशेषज्ञ चाहिए, इतने ही एनेस्थेसिया विशेषज्ञों और बाल रोग विशेषज्ञों की जरूरत है. लेखक बताते हैं कि शिक्षक, पुस्तकालय कर्मचारी, कला और दस्तकारी के शिक्षक, प्रशिक्षक, प्रयोगशाला तकनीशियन, डिजाइनर, वास्तुकार, नगर नियोजक, इंजीनियर, वन प्रहरी, मत्स्यपालन, पशु चिकित्सा, दूध उत्पादक, मुर्गी पालक के रूप में लाखों नौकरियां पैदा करने की क्षमता हमारे देश में है. लेकिन, रोजगार के बारे में सोच कौन रहा है? न केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और न ही वित्त मंत्रालय नौकरियों के बारे में सोचता नज़र आ रहा है.
गांधी नहीं हैं अमृत महोत्सव में
श्याम सरन ने बिजनेस स्टैडर्ड में लिखा है कि जो अमृत महोत्सव 22 मार्च 2022 से शुरू हुआ है वह गांधी के बगैर है. आजादी के स्मरणोत्सव की गतिविधियों को खंगालने के बाद ऐसा लगा जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे महत्वपूर्ण नेताओं की भूमिका का कहीं कोई जिक्र नहीं है. गुमनाम नायकों पर जोर है. बिरसा मुंडा और सुभाष चंद्र बोस को महत्व दिया गया है.
लेखक जानना चाहते हैं कि क्या महात्मा गांधी की अनदेखी करना वास्तव में संभव है? क्या यह संभव है कि महात्मा गांधी की ऊंची शख्सियत, सत्याग्रह और अहिंसा के उनके विचारों की शक्ति तथा स्वतंत्र भारत की सोच की अहमियत कम की जा सकेगी?
श्याम सरन लिखते हैं कि हालांकि गांधीजी के आदर्शों को आजाद भारत में भुला दिया गया लेकिन समाज और देश के आदर्शों में गांधीजी बने रहे हैं. उनकी अहिंसा, सत्य, धर्म, कर्म हमारे पथ प्रदर्शन रहे हैं. गांधीजीका विश्वास था कि द्विभाजन के आधार पर व्यापक हिन्दू एकता का निर्माण नहीं किया जा सकता. गांधीजी ने कहा था कि ईश्वर न करे कि भारत कभी पश्चिम वाले औद्योगीकरण को स्वीकार करे जो दुनिया को जंजीरों में जकड़े हुए है. अमृत महोत्सव मनाते हुए गांधी के वारों का गहरा समकालीन महत्व है और यह देश का मार्गदर्शन कर सकता है.
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