- सुप्रीम कोर्ट ने जहां बैन खत्म कर खुद की ही रुलिंग को नकार दिया वहीं ‘अश्लीलता’ पर अभियोजन पक्ष को निर्देश भी दिया
- अदालत ने डांस बारों पर बैन को हटाने को लेकर पिछले साल दिए गए खुद के ही प्रगतिशील फैसले को चोट पहुंचाई
- महाराष्ट्र सरकार के प्रतिबंध लिंग, वर्ग और जाति में भेद करते हैं
- इस बैन ने प्रभावित डांसर्स को अनकहे दुखों, तकलीफों और शोषण की तरफ धकेला
- इस मामले में दोष सरकार का है महिला डांसरों का नहीं जिनपर वो अश्लीलता फैलाने का आरोप लगाती रहती है
महाराष्ट्र सरकार द्वारा डांस बार पर लगाए गए प्रतिबंध पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक लगाते हुए निर्देश दिया है कि किसी भी तरह के डांस में अश्लीलता नहीं दिखनी चाहिए.
‘हमारे पुराने फैसले में साफतौर पर कहा गया है कि अश्लील डांस के जरिए महिलाओं के सम्मान पर चोट न पहुंचे, इसके लिए लाइसेंसिंग अथॉरिटी को पर्याप्त शक्ति दी गई है. किसी भी प्रकार की अश्लीलता न हो और महिलाओं के सम्मान पर आंच न आए, इसके लिए लाइसेंसिंग अथॉरिटी जरूरी कदम उठा सकती है.’
इस तरह से कोर्ट एक तरफ तो डांस के जरिए अपनी रोजी रोटी कमाने वाली महिलाओं के साथ खड़ा हुआ दिखा, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं महिलाओं के डांस को ‘अश्लील’ मानते हुए कड़े प्रतिबंध भी लगाए हैं.
ये विडंबना ही है कि कोर्ट ने समाज को डांस बार की बुराइयों में फंसने से बचाने के लिए लाइसेंसिंग अथॉरिटी को जांच करने के लिए ‘बेलगाम’ छूट देकर एक तरह से सरकार के बैन को समर्थन ही दिया है.
इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि सरकार और पुलिस को जो भी अश्लील लगे, उसके खिलाफ कार्रवाई का हक देकर सुप्रीम कोर्ट 2013 में दी गई अपनी ही रूलिंग के खिलाफ चला गया.
दमन के तीन रास्ते
2013 के अपने फैसले में कोर्ट ने सरकार पर अपने फायदे का नजरिया अपनाने (एक तरह से ढोंग करने) की तोहमत लगाई थी और कहा था कि एक तरफ तो थ्री-स्टार होटलों और अन्य जगहों पर होने वाले कैबरे जैसे डांसों पर कोई रोक नहीं है, वहीं दूसरी तरफ डांस बार को बंद किया गया.
सरकार के पास कोर्ट के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था – क्या उस प्रकार के डांसों से लोगों के दिमाग और नैतिकता दूषित नहीं होती?
उन काबिल जजों ने महिलाओं पर प्रतिबंध के लिए अपनाए गए तीन आधारों को पहचान लिया था, जो कि लिंग, जाति और वर्ग थे. सरकार के मुताबिक, नशे में पुरुषों द्वारा किए गए भद्दे और कभी-कभी हिंसात्मक डांस ‘अश्लील’ नहीं थे और सिर्फ महिलाओं पर ही ‘नैतिकता’ के आधार पर नाचने को लेकर प्रतिबंध लगाया गया था.
सरकार वर्किंग क्लास से आने वाले पुरुषों के लिए, जो डांस बारों के प्रमुख ग्राहक थे, ही अपनी चिंता का कारण बता पाने में भी असमर्थ थी.
डांस बारों पर बैन लगाते हुए और इसके खिलाफ कानून बनाते हुए सरकार ने कहा था कि डांस बार की वजह से लोग अय्याशी में फंसते जा रहे थे और इसकी वजह से उनके परिवार को आर्थिक और सामाजिक कठिनाइयां झेलनी पड़ रही थीं.
सरकार की दलील थी की यदि बैन लगाया जाता है और इसे कड़ाई से लागू किया जाता है तो मुंबई में होने वाले अपराधों में भारी कमी आएगी. इसके साथ ही वो एक तरह से उस अपर-क्लास मेंटिलिटी को सपोर्ट कर रही थी जिसके मुताबिक सिर्फ गरीब व्यक्ति ही पीने के बाद आपे से बाहर होते हैं और अपराध की तरफ बढ़ जाते हैं.
वकील और महिला अधिकार कार्यकर्ता फ्लाविया एग्नेस, जो बैन के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाती रही हैं, ने 2005 में लिखा था कि किस तरह बैन ने उन महिलाओं, जिनकी सरकार सुरक्षा करना चाहती थी, के सम्मान को तार-तार कर दिया था. अति उत्साह में आकर पुलिस बड़े पैमाने पर ज्यादतियों में लिप्त हो गई.
कास्ट गवर्नेंस
इंडियन एक्सप्रेस की दीप्ति नागपाल-डिसूजा बताती हैं कि किस तरह डांस बार अनुसूचित जनजातियों और दलित जातियों से ताल्लुक रखने वाली सैकड़ों महिलाओं के लिए आजिविका के साधन थे.
उन्होंने समीना दलवई की पीएचडी थीसिस (जो 2016 में एक किताब के रूप में प्रकाशित होगी) के आधार पर बताया कि किस तरह से इस बैन को लागू करने में जातीय भेद-भाव किया गया था.
दलवई कहती हैं कि सरकार के इस बैन ने कैसे निचली जाति की महिलाओं से ऊंची जाति के पुरुषों द्वारा तय की गई सीमाओं को तोड़ने का मौका छीन लिया. खुद की रोजी-रोटी कमाने वाली नीची जाति की महिलाएं अपने यौन इच्छाओं को पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रदर्शित कर रही थीं और वे अब ऊंची जातियों के पुरुषों के चंगुल से बाहर निकल रही थीं.
सरकार द्वारा दाखिल किए गए हलफनामे में, जिसपर सुप्रीम कोर्ट की बेंच फैसला करेगी, सीएम देवेंद्र फडणवीस का बयान है कि उनकी सरकार बैन को जारी रखवाने की पूरी कोशिश करेगी, इसी में जातीय पूर्वाग्रह को दिखता है.
द इकनॉमिक और पॉलिटिकल वीकली में 2013 में छपे लेख के मुताबिक ये और कुछ नहीं बल्कि ‘गुड गवर्नेस’ के नाम पर ‘कास्ट गवर्नेंस’ है.
एग्नेश ने इस लेखक को बताया चूंकि ‘अश्लीलता’ की कानूनी परिभाषा बहुत ही जटिल है और इसे अक्सर मोरल पुलिसिंग (महाराष्ट्र पुलिस अब इस कला में माहिर है) के लिए इस्तेमाल किया जाता है, अदालत का आदेश निराशाजनक है.
5 नवंबर को अगली सुनवाई होनी है, और इस बीच सरकार निश्चित रुप से अपने रुख के बचाव के लिए और दलीलें ढूंढ़ेगी. क्या जज भी इस समय का इस्तेमाल न्यायिक बुद्धिमता स्थापित करने और खराब हो चुकी चीजों को सुधारने के लिए करेंगे?
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