ADVERTISEMENTREMOVE AD

सुशांत केस की जांच और मीडिया ट्रायल, एक सीनियर IPS अफसर का नजरिया 

सुशांत केस में बिहार पुलिस की भूमिका-और सवाल जिनके जवाब नहीं मिले

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

भारत में COVID-19 की वजह से हो रही हजारों मौतों के बावजूद, मीडिया में बहुत ज्यादा दिखाई जा रही एकमात्र दुर्भाग्यपूर्ण घटना पिछले दिनों हुई अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की है. 14 जून को वह अपने बांद्रा स्थित घर में फांसी पर लटके मिले थे. उनके परिवार वाले, साथी कलाकार, फैंस और बड़ी संख्या में जनता सच जानने के लिए बेचैन है. सीबीआई ने जांच शुरू कर दी है लेकिन ये जानना अहम है कि मामले का खुलासा किस तरह हुआ और यह अटकलों का- कई बार संदेह का भी- कारण बना.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जब मुंबई पुलिस इस मामले की जांच कर रही थी तभी बिहार पुलिस ने 25 जुलाई को पटना के राजीव नगर पुलिस थाने में सुशांत के पिता की अर्जी के आधार पर एफआईआर दर्ज कर ली, जिसमें आरोप लगाया गया था कि सुशांत की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती उनके बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार है.

हालांकि, सुशांत के पिता ने मुंबई पुलिस के पास पहले ही अपना बयान दर्ज करा दिया था, जिसमें उन्होंने किसी संज्ञेय अपराध (कॉगनिजेबल ऑफेंस) की बात नहीं कही थी इसलिए बिहार पुलिस के इस कदम से कई लोग हैरान रह गए.

शिकायत में खुदकुशी के लिए उकसाने के अलावा आपराधिक विश्वासघात, धोखाधड़ी और पैसों के गबन के आरोप भी लगाए गए थे. जाहिर तौर पर इससे अधिकार क्षेत्र का सवाल उठा क्योंकि मुंबई पुलिस पहले से ही ‘मौत के कारण’ की जांच कर रही थी.

सुशांत सिंह का केस सीबीआई को कैसे मिला?

इस नई घटना के बाद रिया ने 31 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर बिहार में दर्ज एफआईआर को मुंबई पुलिस को ट्रांसफर करने की मांग की. बिहार पुलिस के अधिकार क्षेत्र को भी याचिका में चुनौती दी गई थी. हालांकि प्रमाणित कानूनी तरीका ये है कि जब संज्ञेय अपराध की जांच चल रही हो तो कोर्ट आम तौर पर जांच पूरी होने तक दखल नहीं देता. सुनवाई के लिए मामला जब अदालत पहुंचेगा तभी उचित अधिकार क्षेत्र पर फैसला किया जाएगा. कानून ये भी कहता है कि जब आरोप विश्वासघात, धोखाधड़ी और पैसों के गबन से जुड़े हों तो और इसका प्रभाव किसी और पुलिस स्टेशन क्षेत्र में होने का अनुमान हो तो किसी भी पुलिस स्टेशन की ओर से क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल किया जा सकता है.

इस बीच पांच हफ्तों से भी ज्यादा समय से ‘मौत के कारण’ की जांच करने और 56 गवाहों के बयान दर्ज करने के बाद मुंबई पुलिस ने मीडिया को बताया कि वो मौत की हर एंगल से जांच कर रही है और जांच अब भी जारी है. खुदकुशी के लिए उकसाने के मामले के पहले आम तौर पर संतोषजनक जांच की जाती है.

हालांकि, तब तक मुंबई पुलिस ने कोई भी संज्ञेय अपराध दर्ज नहीं किया था, समाज का एक वर्ग केस के नतीजे को लेकर खुश नहीं था.

ये आरोप लगाया गया कि मुंबई पुलिस ‘असली अपराधियों को बचा रही है’ जिसे महाराष्ट्र सरकार ने नकार दिया. हालांकि जब जांच के लिए बिहार के एक आईपीएस अधिकारी मुंबई पहुंचे तो उन्हें क्वारंटीन कर दिया गया और मुंबई पुलिस के पास मौजूद कोई दस्तावेज भी नहीं दिया गया.

एक ओर जहां मुंबई पुलिस ने दावा किया कि वो अधिकार क्षेत्र के मामले में कानूनी विकल्पों का पता लगा रही है और मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, पटना में दर्ज मामला आगे की जांच के लिए सीबीआई को सौंप दिया गया.

इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अनिश्चितता और भ्रम को दूर करने के लिए संविधान के आर्टिकल 142 के तहत दी गई विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए दोनों मामलों को सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया जिससे मामले में पूरा न्याय हो सके.

स्नैपशॉट
  • कई सवालों के जवाब अब भी नहीं मिले हैं: ये अच्छी तरह से जानते हुए कि मुंबई पुलिस ने इस मामले की जांच में काफी प्रगति की है, सुशांत के पिता ने कोई अतिरिक्त जानकारी, अगर दी, तो वो मुंबई पुलिस को क्यों नहीं दी?
  • इसी तरह अगर बिहार पुलिस ने एफआईआर दर्ज की तो जांच करने के बजाए वो इसे किसी और एजेंसी को ट्रांसफर करने की इतनी जल्दबाजी में क्यों थी?
  • ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि केस से जुड़े कुछ वॉट्सऐप चैट और पीड़ित के निजी दस्तावेज मीडिया में लीक किए गए.
  • इसका केस की सुनवाई पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है.
  • मीडिया को इस मामले के अपने करीब-करीब हर दिन के ट्रायल पर लगाम लगाने की जरूरत है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

सुशांत केस में बिहार पुलिस की भूमिका-और सवाल जिनके जवाब नहीं मिले

इधर ये विवाद अभी शांत नहीं हुआ था और दूसरी तरफ बिहार के डीजीपी के मीडिया में दिए ‘रिया चक्रवर्ती की औकात’ वाले बयान पर और हंगामा बढ़ गया. जांच के शुरुआती दौर में, संदिग्ध के इरादों पर आरोप लगाते उनके बयान को कम से कम बिहार के बाहर सिविल सोसाइटी के लोगों ने पसंद नहीं किया. आखिरकार बिहार पुलिस को ‘जीत’ सिर्फ तकनीकी आधार पर मिली थी. कई सवालों के जवाब अभी भी नहीं मिले हैं:

  • ये अच्छी तरह से जानते हुए कि मुंबई पुलिस की जांच इस मामले में काफी आगे बढ़ चुकी है, सुशांत के पिता ने कोई अतिरिक्त जानकारी, अगर दी, तो वो मुंबई पुलिस को क्यों नहीं दी गई?
  • इसी तरह अगर बिहार पुलिस ने एफआईआर दर्ज की तो जांच करने के बजाए वो इसे किसी और एजेंसी को ट्रांसफर करने की इतनी जल्दबाजी में क्यों थी?
ADVERTISEMENTREMOVE AD

अब सबकी निगाहें सीबीआई पर टिकी हैं. हर कोई चाहता है कि सच जल्दी से जल्दी सामने आए लेकिन इस मामले का एक अहम पहलू ये तथ्य है कि सुशांत सिंह राजपूत ने कोई भी सुसाइड नोट नहीं छोड़ा था जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. ऐसे मामलों में पुलिस को पीड़ित से जुड़े हर पहलू की जांच करनी होती है जिसके कारण शायद उनकी मौत हुई हो.

सुशांत सिंह की 'खुदकुशी': ‘उकसाने’ का वास्तव में क्या अर्थ है?

अगर पोस्टमॉर्टम में हत्या की बात सामने आई होती तो मुंबई पुलिस ने तुरंत हत्या का मामला दर्ज किया होता. अगर पोस्टमॉर्टम करने वाले मेडिकल अफसर की ओर से कोई स्पष्ट राय नहीं दी जाती है तो सामान्य तौर पर विसरा को जहर से मौत की जांच के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है. अगर विसरा में कुछ संदिग्ध चीज नहीं मिलती है तो पुलिस को खुदकुशी के लिए उकसाने के हर पहलू की जांच करनी चाहिए.

आईपीसी की धारा 107 के मुताबिक उकसावा, भड़का कर, साजिशन या जानबूझकर मदद के जरिए हो सकता है. भड़का कर उकसाने का अपराध, जो उकसा रहा है उसकी आपराधिक मंशा पर निर्भर करता है और उस कृत्य पर नहीं जो जिसे उकसाया जा रहा है उस शख्स के द्वारा किया जा रहा है. इसके लिए सक्रिय या प्रत्यक्ष कार्रवाई जरूरी है जिसके कारण मृतक के पास खुदकुशी कर मौत के अलावा कोई और विकल्प बच नहीं गया था.

एम मोहन बनाम सरकार (2011) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि आरोपी के कृत्य और खुदकुशी के बीच कुछ-कुछ सीधा संपर्क या करीबी संपर्क होना चाहिए.

‘उकसाने’ का शाब्दिक अर्थ है किसी काम के लिए प्रेरित करना, आग्रह करना, आगे बढ़ाना, उत्तेजित करना, भड़काना या प्रोत्साहित करना. इसलिए पुलिस को इस मामले में और मेहनत करनी चाहिए जहां से वो बिना किसी शक के अपराध साबित कर सके, विशेषकर ये जानते हुए कि 2017 और 2018 में ऐसे मामलों में सजा की दर 14 और 16 फीसदी रही है.

सुशांत ड्रामा: मीडिया को अपने करीब-करीब हर दिन के ट्रायल पर लगाम लगानी चाहिए

ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि केस से जुड़े पीड़ित के कुछ खास चैट्स और दस्तावेज मीडिया में लीक किए गए. मीडिया को अपने करीब-करीब हर दिन के ट्रायल पर लगाम लगानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने एमपी लोहिया बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल (2005) के मामले में अदालतों में लंबित मामलों के बारे में एकतरफा खबरें छाप कर न्यायिक व्यवस्था में दखल देने के लिए मीडिया की कड़ी निंदा की थी.

अदालत ने इस बात को लेकर भी आगाह किया कि “पत्रकारिता से जुड़े दूसरे लोग न्यायिक व्यवस्था में दखलंदाजी को लेकर हमारी नाराजगी का ध्यान रखेंगे. ” ऐसा लगता है कि मीडिया ने सुप्रीम कोर्ट की सलाह को गंभीरता से नहीं लिया.

अब ये मामला भारत की टॉप जांच एजेंसी, यानी सीबीआई के पास है, इसे स्वतंत्रता से काम करने और सभी संबंधित सबूतों को इकट्ठा करने की अनुमति दी जानी चाहिए.

क्षेत्राधिकार का मामला एक बार फिर सामने आ सकता है जब अंतिम रिपोर्ट अदालत में पेश की जाएगी. हालांकि तब तक इस मामले से जुड़ी सभी साजिश की थ्योरी की जांच होने दी जाए और सुशांत सिंह राजपूत की असामयिक मौत के बारे में सच्चाई सामने लाई जाए.

(आरे. के. विज छत्तीसगढ़ में एक वरिष्ठ IPS अधिकारी हैं. वह @ipsvijrk हैंडल से ट्वीट करते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×